दस्तक-विशेषराजनीति

नोटबंदी न फेर दे अरमानों पर पानी

पांच राज्यों में चुनाव : मोदी का लिटमस टेस्ट
जितेन्द्र शुक्ला ‘देवव्रत’
देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों उत्तराखण्ड, पंजाब, गोवा व मणिपुर के विधानसभा चुनावों का बिगुल बज चुका है। चुनाव आयोग ने तारीखों का ऐलान कर दिया है। इन पांच राज्यों की सरकारों पर नजर डालें तो दो राज्यों उत्तराखण्ड व मणिपुर में कांग्रेस की सरकारें हैं तो वहीं गोवा में भाजपा तथा पंजाब में शिरोमणि अकाली दल व भाजपा गठबंधन की यानि एनडीए की सरकार है। इसके अलावा उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार है। इन सारी सरकारों के मुखिया रस्मी तौर पर अपनी-अपनी सरकार की वापसी का दावा कर रहे हैं लेकिन कहीं न कहीं ये सभी सत्ता विरोधी लहर से डरे भी हुए हैं। लेकिन चूंकि अभी चुनाव के लिए थोड़ा समय है, ऐसे में सभी चमत्कार की उम्मीद भी कर रहे हैं। ऊपर से केन्द्र की मोदी सरकार द्वारा ऐन चुनाव से ठीक पहले नोटबंदी के फैसले से भी इन सरकारों को यह लगने लगा है कि उन्हें बैठे बिठाये एक मुद्दा मिल गया है। उधर, भाजपा को उम्मीद है कि मोदी सरकार का यह फैसला भ्रष्टाचार और काले धन के मुद्दे पर उसे जनसमर्थन मिलेगा। ऐसे में यह भी दावा किया जा रहा है कि इन पांच राज्यों के चुनाव परिणाम केन्द्र की मोदी सरकार के दो साल से अधिक के कार्यकाल पर जनता का फैसला होगा।
साल 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी का जादू सिर चढ़कर बोला था और नतीजा यह रहा कि भाजपा को पूर्ण बहुमत मिला। बाद में केन्द्र में भाजपा के ही नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सरकार बनी। मोदी सरकार ने सत्ता में आते ही जनता से सीधे और खासतौर पर लोगों को भावनात्मक रूप से प्रभावित करने वाले बहुत से निर्णय लिए। इस दौरान पड़ोसी मुल्कों सहित लगभग सभी देशों का प्रधानमंत्री दौरा कर चुके हैं। कहा जाने लगा है कि नरेन्द्र मोदी ने विश्व में भारत का गौरव बढ़ाया है। इस दौरान पाकिस्तान के साथ भारत के रिश्ते बनते-बिगड़ते भी दिखे। स्थिति यहां तक पहुंची कि रिश्ते सुधारने की चाहत में देश को पठानकोट और उड़ी हासिल हुआ जिसके बाद भारतीय सेना ने पीओके (पाक अधिकृत कश्मीर) में सर्जिकल स्ट्राइक की। जिसका श्रेय मोदी सरकार ने बढ़-चढ़कर लिया। इस घटना के बाद पूरे देश में एक बार फिर मोदी-मोदी के नारे लगे, लेकिन उसके बाद आठ नवम्बर की रात आठ बजे अचानक प्रधानमंत्री ने भारतीय अर्थव्यवस्था में 86 फीसद का हिस्सा रहे 1000 व 500 के नोटों की बंदी की घोषणा कर दी।
मोदी सरकार के इस निर्णय के खिलाफ देशभर में विपक्षी दलों ने मोर्चा खोल दिया। हालांकि मोदी ने 50 दिन का समय मांगा था और यह कहा भी था कि इस निर्णय से लोगों को परेशानी होगी, लेकिन सरकार ने इसी 50 दिन में नोटबंदी को लेकर 60 निर्णय लिए और फिर उसे बदले। इससे यह संदेश गया कि मोदी सरकार की आधी अधूरी तैयारी के कारण ही ये सब हो रहा है जिसके बाद मोदी सरकार की आलोचनाओं ने जोर पकड़ा। अब जबकि नोट बंदी के 50 दिन से अधिक का समय बीत चुका है और सामने पांच राज्यों के चुनाव हैं तो फिर यह देखना होगा कि मोदी सरकार का यह फैसला चुनाव परिणामों पर कितना असर डालेगा। वहीं भाजपा को यदि अगला राष्ट्रपति अपना बनाना है तो फिर उसे उत्तर प्रदेश हर हाल में जीतना होगा। वहीं कांग्रेस मुक्त भारत का नारा देने वाली भाजपा के लिए उत्तराखंड और मणिपुर में भी कब्जा करना होगा। वहीं पंजाब और गोवा विधानसभा पर कब्जे के लिए आम आदमी पार्टी ने बहुत पहले से कमर कस ली है। पंजाब में सत्ता विरोधी लहर साफ देखी जा सकती है तो वहीं गोवा में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के एक प्रतिष्ठित नेता एवं क्षेत्रीय भाषा के पैरोकार सुभाष वेलिंगकर ने नया राजनीतिक दल गोवा सुरक्षा मंच (जीएसएम) बनाने की घोषणा कर भाजपा को तगड़ा झटका पहले ही दे दिया है।
रही बात उत्तर प्रदेश की तो यहां सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी के परिवार में उपजे विवाद ने विपक्ष को भ्रमित कर रखा है। भाजपा सूबे में सरकार बनाने के बड़े-बड़े दावे तो कर रही है लेकिन फिर भी अन्दर ही अन्दर भयाक्रांत है। उधर, बसपा ने नोटबंदी के झटके से उबर कर फिर से ताल ठोंकने की तैयारी कर ली है। यदि उप्र में अगला विधानसभा चुनाव धर्म के आधार पर न हुआ तो यहां खिचड़ी सरकार बनना लगभग तय है। वहीं अगर कांग्रेस की बात की जाये तो बहुत धीरे-धीरे कदम बढ़ा रही है। सूबे के वर्तमान मुख्यमंत्री अखिलेश यादव कांग्रेस और राष्ट्रीय लोकदल से गठबंधन की वकालत कर रहे हैं। उनका दावा है कि यदि ऐसा हुआ तो यह गठबंधन 300 सीटें हासिल करेगा। अखिलेश यादव अपने कार्यकर्ताओं और विधायकों को भी यह संदेश दे रहे हैं कि नोटबंदी समाजवादियों के लिए एक मौका है, लेकिन यादव परिवार में छिड़ी रार से बना बनाया खेल बिगड़ता दिख रहा है। इसके बावजूद अखिलेश यादव दावा कर रहे हैं कि वे फिर से सूबे में सरकार बनायेंगे और जीतकर अपने पिता मुलायम सिंह यादव को यह तोहफा देंगे। उधर, बसपा मुखिया मायावती भी अपनी सरकार बनने का दावा कर रही हैं। उन्हें अपने परंपरागत वोट बैंक पर तो पूरा भरोसा आज भी कायम है जबकि 2014 के लोकसभा चुनाव में उन्हें कोई भी सीट हासिल नहीं हुई थी। वहीं मायावती को सिर्फ मुस्लिम मतों की दरकार है। यदि समाजवादी पार्टी में कलह और कांग्रेस को कमजोर देख मुस्लिम मतदाताओं ने एक मुश्त बसपा की ओर रुख किया तो फिर मायावती के दावे आसानी से सच हो सकते हैं। वहीं कांग्रेस को अपने उपाध्यक्ष राहुल गांधी के करिश्मे से कहीं ज्यादा प्रियंका गांधी के जादू पर विश्वास है। कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं को उम्मीद है कि कांग्रेस को पुनर्जीवित करने के लिए प्रियंका इस बार जरूर आगे आएंगी और पार्टी के दिन बहुरेंगे। वहीं भाजपा मोदी के ही नाम पर चुनावी वैतरणी पार करना चाहती है। इसीलिए वह मुख्यमंत्री के रूप में किसी भी चेहरे को आगे नहीं कर रही है। भाजपा नोटबंदी को लेकर सशंकित भी है। पार्टी नेतृत्व में सांसदों को जनता के बीच जाने और नोटबंदी के फायदे गिनाने के निर्देश दिए, लेकिन पार्टी सांसद जनता के बीच जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं। साफ है कि नोटबंदी का असर सूबे की सभी 403 सीटों पर दिखने वाला है। सपा, बसपा और कांग्रेस इस मुद्दे पर घूम-घूमकर भाजपा को घेरने में लगे हैं।
अगर उत्तराखंड की बात करें तो यह एक ऐसा प्रदेश है जहां उसके जन्म से राजनैतिक अस्थिरता का माहौल रहा है। वर्तमान में वहां कांग्रेस की सरकार है और हालत यह है कि साल 2012 में जब सरकार बनी थी तो विजय बहुगुणा को पार्टी ने मुख्यमंत्री बनाया था, लेकिन विवादों से घिरे होने के चलते उन्हें हटाया गया और कमान हरीश रावत को दी गयी। इसके बाद भाजपा ने वहां तख्ता पलट का असफल प्रयास किया और विजय बहुगुणा व हरक सिंह रावत जैसे बड़े नेताओं को तोड़ लिया। ऐसे में उत्तराखंड की बात करें तो साल 2017 में भाजपा को विधानसभा चुनाव रूपी अग्निपरीक्षा से गुजरना पड़ेगा। उत्तराखंड में बीती विधानसभा चुनाव नतीजों में मात्र एक सीट से सत्ता की कुर्सी हाथ से जाती रही। जिसके बाद राज्य के दिग्गजों में शुमार किए जाने वाले नेताओं ने मानों हथियार डाल दिए हों। मगर इन सबके बीच अजय भट्ट ही कांग्रेस की नीतियों को लेकर आक्रामक रवैया अपनाए दिखे। राज्य की आबकारी, खनन नीतियों को अजय भट्ट ने अपने अंदाज में विरोध जताकर राज्य में भाजपा की मंशा कि जनहितों पर कुठाराघात किसी सूरत में बर्दाश्त नहीं किया जाएगा, जताकर रख दी थी। आलाकमान को अजय भट्ट की यह आक्रामकता रास आई, और प्रदेश संगठन की बागडोर उनके हाथों सौंप दी गई। उधर, साल 2017 के विधानसभा चुनाव को देखते हुए भाजपा में सांगठनिक स्तर पर बड़े बदलाव किए जा सकते हैं। मौजूदा पदाधिकारियों के कामकाज की समीक्षा लगभग पूरी हो चुकी है। बताया जाता है कि उत्तराखंड में भाजपा का नया संगठन राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की पसंद का होगा।
दूसरी तरफ कांग्रेस विजय बहुगुणा और हरक सिंह रावत जैसे कथित रूप से दागी नेताओं के भाजपा में शामिल हो जाने का सीधे-सीधे फायदा होते देख रही है। यह सर्वविदित है कि उत्तराखण्ड की मुख्य आमदनी का स्त्रोत पर्यटन है, लेकिन नोटबंदी के बाद पर्यटन क्षेत्र पर भारी असर पड़ा है और वह भी नए साल और ठण्ड व बर्फबारी के मौसम में। ऐसे में कांग्रेस ने मोदी सरकार के इस फैसले को पूरी तरह से अपने पक्ष में भुनाने के लिए तैयारी कर ली है। 70 सदस्यीय उत्तराखण्ड विधानसभा में 36 सीटों पर कब्जा जमाने वाले पार्टी बहुमत का आंकड़ा हासिल करते हुए सरकार बनाने में सफल होती है। माना जा रहा है कि मुख्यमंत्री हरीश रावत की सक्रियता से कांग्रेस जहां अगले विधानसभा चुनाव में अपनी जीत सुनिश्चित मान कर चल रही है तो वहीं भाजपा आधे अधूरे मन से जीत के दावे कर रही है।
अब बात यदि पंजाब की करें जहां भी विधानसभा चुनाव होना है तो वहां की स्थिति यह है कि इस सूबे में वर्तमान में सत्तारूढ़ शिरोमणि अकाली दल और भाजपा की गठबंधन की सरकार के खिलाफ जबरदस्त सत्ता विरोधी लहर बह रही है। इस लहर को ‘कैश’ कराने के लिए जहां भाजपा कैशलेस की बात कर रही है तो वहीं कांग्रेस और आम आदमी पार्टी इससे दीगर दावे कर रही है, लेकिन भाजपा के एक और पुराने सहयोगी अकाली दल ने नोटबंदी की वजह से आने वाले विधानसभा चुनावों को लेकर अपनी चिंता जाहिर कर चुके हैं। साफ है कि नोटबंदी का सीधा असर आने वाले पंजाब विधानसभा चुनाव में दिखने लगा है। पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल और उप मुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल नोटबंदी की वजह से आम लोगों को हो रही परेशानी को लेकर काफी चिंतित दिखे थे। इसीलिए उनको आशंका थी कि पहले ही सत्ता विरोधी लहर के चलते उन्हें जनता के बीच में जाने में काफी दिक्कत होती है और ऐसे में नोटबंदी ने आम लोगों की जो मुश्किलें बढ़ गयी है और इसका सीधा असर आने वाले विधानसभा चुनाव में अकाली-भाजपा गठबंधन के प्रदर्शन पर पड़ सकता है। जानकारों के मुताबिक अकाली दल ने वित्त मंत्रालय और केंद्र सरकार को साफ कर दिया है कि अगर नोटबंदी को लेकर पंजाब में हालात नहीं सुधरे, तो आने वाले विधानसभा चुनाव में इसका भारी खामियाजा उठाना पड़ सकता है। पंजाब के उपमुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल ने माना कि नोटबंदी की वजह से लोगों को परेशानी हो रही है।
दरअसल, वित्त मंत्री अरुण जेटली बीते दिनों पंजाब के जालंधर के नजदीक आदमपुर में बनने वाले एयरपोर्ट का शिलान्यास करने पहुंचे थे। इस दौरान उन्होंने एक जनसभा में नोटबंदी के फायदे तो खूब गिनवाएं, लेकिन लोगों को हो रही परेशानी को लेकर उठ रहे सवालों से बचने के लिए उन्होंने मीडिया से दूरियां बनाए रखी। इस दौरान सुखबीर सिंह बादल ने वित्त मंत्री अरुण जेटली को साफ कर दिया कि नोटबंदी से पंजाब के बड़े वोट बैंक किसानों को काफी परेशानी हो रही है और यह परेशानी जल्द ही एक बड़े गुस्से का रूप ले सकती है, जिसका खामियाजा आने वाले पंजाब विधानसभा चुनाव में अकाली बीजेपी गठबंधन को झेलना पड़ेगा। वहीं, पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष कैप्टन अमरिंदर सिंह ने भी एक बार फिर दोहराया की नोटबंदी से पंजाब के लोगों को काफी परेशानी हो रही है और किसान वर्ग काफी ज्यादा समस्या में हैं। कुल मिलाकर नोटबंदी का सीधा असर पंजाब के भी आम लोगों पर पड़ रहा है और इस असर से होने वाले नुकसान का अंदाजा चुनाव में उतरने वाली तमाम राजनीतिक पार्टियों को है।
वहीं यह भी आशंका है कि पंजाब चुनाव के नतीजे इस बार चौंका सकते हैं। भाजपा के नाराज चल रहे नेताओं में शत्रुघ्न सिन्हा के साथ चुनाव को प्रभावित करने वाले नेताओं में नवजोत सिंह सिद्धू का नाम प्रमुख है। अकाली दल से गठबंधन से नाराजगी और कैबिनेट में जगह न मिलने से सिद्धू ने अलग पार्टी बनाकर सभी पार्टियो को चिंता में डाल दिया था लेकिन बाद में वे और उनकी पत्नी दोनों कांग्रेस में शामिल हो गये। आम आदमी पार्टी को लोकसभा में दो सीटें पंजाब से मिली थीं, लेकिन अब हालात बदल गए हैं। दिल्ली में आम आदमी पार्टी के नेताओं के प्रति लोगों का भरोसा काफी कम हुआ है। इसका विपरीत असर पंजाब में हो सकता है। कांग्रेस अन्य सभी दलों में मची कलह के कारण करिश्मे की उम्मीद में है। हालात ठीक वैसे हैं, जैसे आम आदमी पार्टी के अस्तित्व में आने के वक्त थे। उधर, कांग्रेसियों की उम्मीद इसलिए मजबूत हुई है, क्योंकि अमरिंदर सिंह लोकप्रिय माने जा रहे हैं। हाल में हुए जनमत-संग्रह में उन्हें 33 फीसद जनता ने पसंद किया है। वही आम आदमी पार्टी को 25 फीसद जनता ने पसंद किया है। अमरिंदर सिंह को मुख्यमंत्री पद का अनुभव भी है। जनमत-संग्रह के मुताबिक सिद्धू सिर्फ आठ फीसदी लोगों की पसंद हैं जो अब कांग्रेस के चुनाव चिह्न पर मैदान में हैं।
वहीं मणिपुर में भी विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं। मणिपुर भी भारत का अभिन्न अंग है इसमें किसी को कोई संदेह नहीं है, लेकिन पूर्वोत्तर भारत के इस राज्य में क्या हो रहा है इसके बारे में शायद ही कुछ लोगों को जानकारी हो। हिन्दी भाषी राज्यों के अधिकतर लोगों को इस बारे में कोई जानकारी नहीं होगी। मीडिया के माध्यम भी इस खबर से दूर ही हैं। दरअसल मणिपुर में यूनाईटेड नगा काउंसिल ने राज्य में आर्थिक नाकेबंदी की और यह करीब दो महीने से अधिक तक चली। राज्य में हालात अब भी ऐसे हैं कि न तो खाने की चीजें उपलब्ध हो पा रही हैं और न ही जरूरत के बाकी सामान। कहीं कुछ मिल भी रहा है तो वो चार गुना या उससे भी ज्यादा कीमत पर लोगों को नसीब हो रहा है। जाहिर है यहां भी नोटबंदी एक प्रमुख चुनावी मुद्दा बन गया है। 60 सीटों वाली मणिपुर विधानसभा में 2012 में हुए चुनाव में कांग्रेस को 47 सीटें मिली थीं। जबकि वहां प्रमुख विपक्षी दल पांच सीटों के साथ तृणमूल कांग्रेस थी।
मणिपुर की ओकराम इबोबी सिंह सरकार ने राज्य के मौजूदा नौ जिलों में से सात जिलों को तोड़कर सात नए जिले बनाने का नोटिफिकेशन जारी किया था। इस नोटिफिकेशन के बाद से ही राज्य में बवाल हो गया। राज्य में मणिपुर नगा काउंसिल ने राजमार्ग संख्या 37 इम्फाल-जिरिबाम और राजमार्ग संख्या 2 इम्फाल दीमापुर पर आर्थिक नाकाबंदी की हुई है, जिसके चलते राज्य के हालात बेकाबू हो चुके हैं। इस नाकेबंदी के विरोध में राज्य के एक अहम जिले इम्फाल पूर्वी में भीषण हिंसा और आगजनी हुई। कई वाहनों को लोगों ने आग के हवाले कर दिया था जिसकी वजह है रोजमर्रा की चीजों की भारी किल्लत हो चुकी है। नगा लोगों का कहना है कि राज्य सरकार ने जान बूझकर नगा लोगों के गांवों को गैर नगा लोगों के इलाकों के साथ मिला दिया है जिससे कि नगा लोग किसी एक पार्टी का विरोध ठीक प्रकार से न कर सकें। इसके अलावा नगा काउंलिस का यह भी आरोप है कि फैसला लेने से पहले पहाड़ी समितियों से भी विचार विमर्श नहीं किया गया। उधर, नए जिलों के पक्ष में सरकार का कहना है कि लोगों की मांग और शासन को बेहतर बनाने के लिए नए जिले बनाए जा रहे हैं। हालांकि इबोबी सिंह के काम करने के तरीकों से इत्तेफाक न रखते हुए कई वरिष्ठ कांग्रेसी नेता भाजपा या फिर दूसरे दलों में चले गए हैं। इनमें एन बीरेन और वाई इराबोट शामिल हैं। इसके अलावा भी कई ऐसे नाम हैं जो भाजपा या फिर नगा दलों का दामन थाम लिया है।
उधर, चुनाव से ठीक पहले राजनीतिक समीकरण भी अब मणिपुर में तेजी से बदल रहे हैं। राज्य में भारतीय जनता पार्टी के दो विधायकों में से एक ने इस्तीफा दे दिया है। इस्तीफा देने वाले खुमुकचाम जायकिशन ने केन्द्र सरकार पर राज्य के हालात को काबू करने में अनदेखी करने का आरोप लगाया है। अहम बात यह है कि जायकिशन एक सीट पर हुए उपचुनाव में जीते थे और उनकी जीत से यह कयास लगाए जा रहे थे कि मणिपुर में भी भारतीय जनता पार्टी मजबूत हो रही है। राज्य के हालात को काबू करने के लिए मुख्यमंत्री इबोबी सिंह के कहने पर केन्द्र सरकार ने 4,000 सीआरपीएफ के जवान मणिपुर भेज दिए थे, लेकिन इससे ज्यादा सक्रियता केन्द्र सरकार ने इस मामले में नहीं दिखाई। जिन दो राजमार्गों पर आर्थिक नाकेबंदी लगी हुई है यही दो हाईवे राज्य की जीवनरेखा हैं। इन्हीं दोनों हाईवे से राज्य में जरूरत की करीब 90 फीसदी चीजें सप्लाई होती हैं जो फिलहाल बंद है। हालात यह हैं कि राज्य में पेट्रोल, डीजल, रसोई गैस, खाने की वस्तुएं आदि सभी चीजों की भारी किल्लत है।
एक तरफ देश में नोटबंदी का असर इस सुदूरवर्ती राज्य में भी है, उस पर जरूरत की चीजों के दाम आसमान पर पहुंच जाने से हालात बेकाबू होने ही थे सो राज्य के कई इलाकों में भारी तनाव की स्थिति है। वैसे इतिहास पर नजर दौड़ाएं तो मणिपुर में संगठन अपनी मांगों को पूरा कराने और सरकार पर दबाव बनाने के लिए नाकेबंदी का इस्तेमाल कई बार करते रहे हैं।  साल 2011 में कुकी संगठनों ने भी कुछ ऐसी ही नाकेबंदी की थी जो 100 दिन से भी ज्यादा लम्बी अवधि तक रही थी। उस दौरान भी जरूरत की चीजें राज्य में मिलनी बंद हो गई थीं। कुकी संगठनों के बंद के जवाब में नगा संगठनों ने भी नाकेबंदी कर दी थी। हालांकि तब भी दबाव डालने के इन तरीकों से कोई हल नहीं निकला था बल्कि परेशानी आम जनता को ही हुई थी और अब भी आम जनता ही ज्यादा परेशान हो रही है।
उधर, 40 सदस्यों वाली गोवा विधानसभा में वर्तमान में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है। पहले यहां मनोहर पर्रिकर मुख्यमंत्री हुआ करते थे, लेकिन केन्द्र में मोदी सरकार बनने के बाद उन्होंने पर्रिकर को उप्र से राज्यसभा भेजते हुए रक्षामंत्री जैसे महत्वपूर्ण पद से नवाजा तो वहीं सूबे की कमान लक्ष्मीकांत पारसेकर के हाथ में सौंप दी गयी। यह ऐसा प्रदेश है जहां पर्यटन ही रोजी-रोटी का मुख्य साधन है। यहां की सारी अर्थव्यवस्था पर्यटकों की संख्या पर भी निर्भर है। वहीं नोटबंदी के बाद यहां नए साल के जश्न और गोवा कार्निवाल पर बुरा असर पड़ा है। पर्यटकों की संख्या सीजन में भी बुरी तरह प्रभावित हुई है। यहां के व्यापारी तीन-चार महीने के सीजन में पूरे साल भर की व्यवस्था अपने परिवार के लिए करते रहे हैं, लेकिन नोटबंदी के बाद उनका भी बजट बिगड़ गया है। विदेशी तो क्या देशी पर्यटकों की संख्या 75 फीसदी तक गिर गयी है। ऐसे में भाजपा को अपनी साख बचाने के लिए खासी मशक्कत करनी पड़ेगी।
वहीं दूसरी ओर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के बागी एवं क्षेत्रीय भाषा के पैरोकार सुभाष वेलिंगकर ने गोवा विधानसभा चुनाव से पहले नया राजनीतिक दल गोवा सुरक्षा मंच (जीएसएम) बनाने की घोषणा कर भाजपा के लिए नयी मुसीबत खड़ी कर दी है। बीबीएसएम के प्रमुख वेलिंगकर ने कहा कि नवगठित पार्टी गोवा के 40 निर्वाचन क्षेत्रों में से 35 निर्वाचन क्षेत्रों में अपनी मौजूदगी रखती है तथा राज्य में अगले साल होने वाले चुनाव में भाजपा को हराने के लिए संकल्प लिया है। बीबीएसएम मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने और अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों को दी जाने वाली सहायता वापस लेने की मांग को लेकर राज्य सरकार के खिलाफ आंदोलन चला रहा है। वेलिंगकर गोवा विधानसभा चुनाव में गठबंधन के लिए शिवसेना और गोवा प्रजा पार्टी जैसे दलों के सम्पर्क में है।
उधर, गोवा में अरविन्द केजरीवाल के आम आदमी पार्टी भी पूरे दमखम से चुनाव मैदन में उतरने के लिए बहुत पहले से कमर कस चुकी है, लेकिन आप की सबसे बड़ी समस्या टिकट बंटवारे को लेकर आपसी कलह की है। देखना होगा कि चुनाव आते-आते तक आप इससे कैसे दो-चार होती है। साउथ गोवा में दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल की बीती 19 दिसंबर को हुई रैली से पहले बेनॉलिम विधानसभा सीट से रॉयला फर्नांडीस को उम्मीदवार बनाए जाने के खिलाफ कई कार्यकर्ताओं ने पार्टी से इस्तीफा दे दिया। पार्टी को नॉर्थ गोवा की मपुसा विधानसभा सीट पर भी पार्टी कार्यकर्ताओं के विरोध का सामना करना पड़ रहा है। इस सीट से आप ने पूर्व केंद्रीय मंत्री रमाकांत खलप की बहू श्रद्धा खलप को उम्मीदवार बनाया है, जिसका विरोध हो रहा है। विरोध की वजह उम्मीदवार चुनने में पार्टी की तरफ से तय किए गए नियमों का उल्लंघन है।
हाल में पार्टी छोड़ने वाले जो. परेरा के मुताबिक बेनॉलिम सीट पर उम्मीदवार का चुनाव आखिरी वक्त में किया गया, जबकि कार्यकर्ताओं ने किसी और शख्स को नॉमिनेट किया था। इस क्षेत्र में आर फर्नांडीस को कार्यकर्ताओं से नहीं के बराबर वोट मिले थे। पार्टी नियमों के मुताबिक, आम तौर पर पार्टी के किसी उम्मीदवार का चुनाव स्थानीय कार्यकर्ताओं की वोटिंग के जरिये किए जाने का प्रावधान है। हालांकि, ज्यादातर कार्यकर्ताओं का आरोप है कि पार्टी इस नियम का पालन नहीं करती है और वैसे उम्मीदवारों को नॉमिनेट किया गया है, जो राजनीतिक परिवार से आते हैं यानी पार्टी उम्मीदवार के चुनाव में अपने मेरिट के सिद्धांत का ही उल्लंघन कर रही है। उधर, गोवा में आप की महिला इकाई की पूर्व कन्वेनर अस्मां सईद कहती है कि हमसे कहा गया कि पार्टी इस तरह के उम्मीदवार का चुनाव कर रही है, मानो यह कोई लोकलुभावना ऐलान हो। मुझसे कहा गया कि मुस्लिम उम्मीदवार के तौर पर मैं वेलिम में ज्यादा वोट हासिल नहीं कर पाऊंगी। पार्टी की नजर वहां के कैथोलिक वोटों पर है। पंजाब में भी पार्टी के दो संस्थापक सदस्यों नवीन जेरथ और यामिनी गोमर ने हाल में इस्तीफा दे दिया था। साथ ही, उन्होंने पार्टी को जनविरोधी और उसके नेताओं को हेराफेरी करने वाला बताया। ल्ल

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