नोयडा का भूत
ज्ञानेन्द्र शर्मा : प्रसंगवश
चाहे जो सरकार हो, वह नोयडा और ग्रेटर नोयडा में ज्यादा से ज्यादा उद्यमियों को बुलाना चाहती है। वह निवेशकर्ताओं के सम्मेलन आयोजित करती है जिसके बाद सहर्ष यह घोषणा की जाती है कि अब कितना और निवेश प्रदेश में होने वाला है। यह निवेश आम तौर पर नोयडा इलाके में ही होता है। नोयडा आने वाले निवेशकर्ता उद्यमियों के लिए लाल कालीन बिछाया जाता है। पर जहां तक सूबे के मुख्यमंत्री का सवाल है, वे खुद नोयडा नहीं जाना चाहते। चाहे कोई मुख्यमंत्री हो, वे नोयडा से दूर रहता हैं, उधर को मुंह नहीं करता। अपने समाजवादी मुख्यमंत्री अखिलेश यादव भी इस अपशगुन के लपेटे में रहते हैं। प्रधानमंत्री दिसम्बर के अंत में एक बड़ी सड़क के निर्माण की शुरुआत करने आए तो उनका स्वागत करने अखिलेश नहीं गए। एक विवाह कार्यक्रम में उन्हें नोयडा आमंंित्रत किया गया था, वहां भी नहीं गए। अपने अब तक के कार्यकाल में इससे पहले भी कम से कम तीन अवसर ऐसे आए जब मुख्यमंत्री को नोयडा जाना था, लेकिन वे नहीं गए। मतलब यह कि सिर्फ पैसा लगाने वाले नोयडा आएं, मुख्यमंत्री नहीं।
यह अपशगुन 1988 में उस समय से गिना जा रहा है जब तत्कालीन मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह की कुर्सी नोयडा की यात्रा के कुछ समय बाद ही चली गई। इसके अगले साल नारायण दत्त तिवारी के साथ भी यही हुआ। नोयडा से लौटने के कुछ समय बाद ही उनकी भी कुर्सी चली गई। मुलायम सिंह, मायावती और कल्याण सिंह ने भी जब नोयडा जाने की हिम्मत की तो उनके साथ भी यही हुआ, उनकी सरकारें चली गईं। अखिलेश यादव को अगस्त 2012 में यमुना एक्सप्रेस वे का उद्घाटन करना था। ऐसे मौकों पर लपक कर जाने वाले नेताओं के कदम उस समय डगमगा जाते हैं, वह बात नोयडा जाने की हो। सो अखिलेश ने एक्सप्रेस वे का उद्घाटन लखनऊ से ही कर दिया। अगले साल भी कई उद्घाटन कार्यक्रमों में नोयडा जाने की उनकी बारी आई थी, लेकिन वे तब भी नहीं गए। जब समाजवादी लोग अपने को उससे नहीं बचा पा रहे हैं तो फिर दूसरों की बात कौन करे। भगवान जाने कब कोई मुख्यमंत्री नोयडा जाकर नोयडा की सुध लेगा!