दस्तक-विशेष

पत्रकार की मौत के बाद

 

दस्तक : अनिल यादव

murders1यूपी और मध्य प्रदेश में दो पत्रकारों को जलाकर मार देने के बाद पत्रकारों की जिंदगी और मीडिया के भीतर ताक झांक एक बार फिर शुरू हुई है। हालांकि मीडिया अपनी पहुंच, प्रभाव, तकनीक और नए विचारों के कारण हमेशा से सामाजिक विमर्श के केंद्र में रहता है लेकिन इस बार उंगली उस नौदौलतिए तबके पर उठ रही है जो राजनीतिक संरक्षण में अवैध धंधों से काली कमाई और गलीज संबंधों के नेटवर्क के जरिए इतना शक्तिशाली हो चुका है कि मीडिया को पालतू बनाना चाहता है। ऐसा कर पाने में विफल रहने पर उसके लिए पत्रकारों को मार डालना बाएं हाथ का खेल है।
अपने वक्त की सच्चाइयों से आंख चुराने के कारण पीछे छूट कर लगभग अप्रासंगिक हो चुके पत्रकार संगठन इसे तोतारटंत ढंग से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमले का नाम दे रहे हैं जो गलत है। अब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मीडिया हाउसों में लगी पूंजी के मालिक के निहित स्वार्थों से तय होने लगी है जिसे बचाने का अर्थ लोकतंत्र के मूल विचार का ही विरोध करना होगा। पत्रकारों पर निरंतर बढ़ते हमलों से यह नतीजा निकालना मुश्किल नहीं है कि यह नौदौलतिया तबका प्रलोभन और हिंसा से मीडिया को नियंत्रित करने की कोशिश कर रहा है जिसके विरोध को समाज से वांछित समर्थन नहीं मिल पा रहा है। इसके विरोध में उठने वाली वास्तविक आवाजों के कमजोर और दयनीय होते जाने के ठोस कारण हैं जिनकी पड़ताल जरूरी है।
“आप कैसा महसूस कर रहे हैं” और “ब्रेकिंग न्यूज” सामाजिक जीवन में हाल के कुछ सालों में प्रचलित हुए ऐसे जुमले हैं जिनका इस्तेमाल पत्रकारों की खिल्ली उड़ाने के लिए किया जाने लगा है। सत्ता के गलियारों में निरंतर चलने वाले घोटालों और मदमस्त शक्तिशाली तबके की जनविरोधी कारगुजारियों को उजागर करने में पत्रकारों की भूमिका अपनी जगह सच है फिर भी मीडिया से चिढ़ने, उसे कोसने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। पत्रकारों को बिकाऊ ,दलाल, प्रेस्टिट्यूट (कलम वाली वेश्या) बताना और उन्हें सबक सिखाने की कल्पनाएं करना आम बातचीत का हिस्सा बन चुका है। पुराने जमाने के सभी गरिमामय समझे जाने वाले पेशों समेत नए व्यवसायों में कानूनों को धता बताकर भ्रष्टाचार करने वालों की तादाद बढ़ी है लेकिन पत्रकार सबसे अधिक निशाने पर हैं क्योंकि वे अब भी खतरा हैं जबकि बाकी पेशों के साथ नौदौलतियों की दुरभिसंधि मुकम्मल हो चुकी है। पत्रकारों को ब्लैकमेलरों का समूह बताने वाले वही लोग हैं जिन्होंने ब्लैकमेल हो सकने लायक कुकर्म किए हैं लेकिन बिडंबना यह है कि उनके दुष्प्रचार पर वे साधारण लोग भी यकीन करने लगे हैं जो मीडिया का मतलब सिर्फ पत्रकार जानते हैं।
आमतौर पर लोग मीडिया पर बात करते समय उन उद्योगपतियों, निवेशकों, बिल्डरों, प्रापर्टी डीलरों को रहस्यमय मोतियाबिंद के कारण नहीं देख पाते जिनकी अरबों की पूंजी इस व्यवसाय में लगी है, जो इस पेशे की नीतियां निर्धारित करते हैं, जो पत्रकारों को नौकर रखते हैं, जिन्होंने संपादक को लॉयजन अफसर, पत्रकारिता की परंपराओं को सौदेबाजी के औजार और श्रम कानूनों को चुटकुलों में बदल दिया है। मीडिया के प्रति लोगों की चिढ़ के असली जिम्मेदार यही हैं जिन्होंने टीआरपी बढ़ाकर ज्यादा मुनाफा खींचने के लिए न्यूज चैनलों को नौटंकी और एंकरों को मदारियों में बदल दिया है। ये वही हैं जो देश सेवा की फड़फड़ाहट से मजबूर होकर राज्यसभा में जाने के लिए हर राजनीतिक पार्टी के दरवाजे पर घंटों बैठे पाए जाते हैं लेकिन अपने संस्थान के पत्रकारों को ईंट भट्ठे के मजदूरों से भी बदतर हालत में रखते हैं। शाहजहांपुर में जलाकर मारे गए जगेंद्र सिंह जैसे मुफस्सिल कस्बों और देहात के पत्रकारों की दयनीय, खतरों से भरी जिंदगी के असली जिम्मेदार भी यही हैं, इन्हें पहचान कर मीडिया पर होने वाले हर विमर्श में शामिल किया जाना चाहिए।
इस कठिन समय में पत्रकारों के संगठन उनकी मदद कर सकते थे लेकिन वे अपनी ही करनी से व्यर्थ हो चुके हैं। अब इन संगठनों को ऐसे गिरोह चलाते हैं जिनका काम प्रेस क्लबों समेत अन्य संस्थाओं की संपत्तियों में सांसद-विधायक निधियों, सरकारी अनुदानों की मदद से इजाफा करना और सुविधाओं के छोटे- छोटे द्वीप बनाकर शासन चलाने का विकृत सुख पाना है। उनका उन मुद्दों से कोई लेना देना नहीं है जिनके कारण पत्रकारिता लगातार विश्वसनीयता खोकर पत्रकारों की बदहाली का कारण बन रही है।
उनका दायित्व मीडिया के प्रबंधन से लड़कर पत्रकारों की काम करने की परिस्थितियों, वेतन और उनकी जिंदगी को सुधारना था लेकिन उन्होंने सरकारों से (जो मीडिया को अपने पक्ष में इस्तेमाल करने के लिए इज्जत और पैसा हमेशा देने को तैयार रहती हैं) अनुदान लेकर मसीहाई का नाटक करने का आसान रास्ता चुना जिसकी भारी कीमत चुकानी पड़ रही है।
सबकुछ के बावजूद पत्रकारिता में अब भी आत्मालोचना की जबरदस्त प्रवृत्ति है और जनता में सत्य के लिए आग्रह है। इन दोनों की बुनियाद पर हमें उम्मीद का दामन नहीं छोड़ना चाहिए।

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