पहाड़ में बंद हो रहे स्कूल, अब तो जागो सरकार
गोपाल सिंह पोखरिया
उत्तराखंड में विकास का डबल इंजन लगाकर तेजी से विकास का दावा कर सत्ता में पहुंची भाजपा सरकार के लिए पहाड़ में बंद होते स्कूलों को बचाना बड़ी चुनौती बनता दिख रहा है। हाल ही में सरकार ने फैसला लिया कि दस या उससे कम छात्र संख्या वाले स्कूलों को बंद किया जाएगा। इसकी चपेट में गढ़वाल मंडल के मात्र पांच जिलों में ही 1103 स्कूल आ रहे हैं। यानी साफ है कि इन जिलों में तेजी से पलायन बढ़ा है। इसके कारण ही इन स्कूलों में छात्र संख्या तेजी से घट रही है। अब सरकार को मजबूरी में इनको बंद करना पड़ेगा। अब आपको लग रहा होगा कि सरकार की छात्र संख्या कम होने से क्या जिम्मेदारी। यहां बता दें कि छात्र संख्या घटने के पीछे सीधा कारण गांवों से तेजी से हो रहा पलायन है। यानि इन गांवों में तेजी से पलायन के चलते बच्चे नहीं रहे और जो भी बच्चे हैं तो उनको दूसरे निजी स्कूलों में मां-बाप पढ़ाना पसंद करते हैं। यानी सीधा सवाल उठता है कि सरकारी स्कूलों से अभिभावकों का मोह भंग होता जा रहा है। अब सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वह एक तो सरकारी स्कूलों की शिक्षा व्यवस्था ऐसी बनाए कि जिससे लोगों का विश्वास हो सके और दूसरा पहाड़ में रोजगार उपलब्ध कराए, ताकि लोगों का पलायन न हो। बहरहाल यहां पर बात हो रही है शिक्षा व्यवस्था की तो उस पर ही फोकस करें तो स्कूल बंदी का कारण भले ही पलायन हो, लेकिन इसका साइडइफैक्ट भी खतरनाक है। जिन स्कूलों में दस से कम छात्र संख्या है। उदाहरण के तौर पर दूरस्थ चीन सीमा से लगे चमोली जिले को लें तो स्कूल बंद होने से कई बच्चे अब स्कूली शिक्षा से महरूम भी रहेंगे। वजह स्कूल में दस से कम छात्र संख्या होने पर बंद कर दिया जाएगा और नजदीकी दूसरे स्कूल में भेजा जाएगा। अब यहां कई ऐसे स्कूल हैं जिनके आसपास दूसरा स्कूल नहीं है। यहां एक स्कूल से दूसरे के बीच की दूरी करीब दो से पांच किमी है। ऐसे में बच्चों को इतनी दूरी के दूसरे स्कूल जाने में कई मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। मसलन बच्चों को वहां जाने के लिए नदी-नाले पार करने के साथ ही जंगलों के रास्तों से गुजरना पड़ता है। अभी हाल ही में चमोली जिले के मोलागाड़ नदी में छह बच्चे बह गए, हालांकि पांच को बचा लिया, जबकि एक बच्चे का पता नहीं चल सका। यानि स्कूल बंद होने का यह भी बड़ा खतरा है।
जिलेवार बात करें तो सबसे पहले उत्तरकाशी को लें तो यह भी चीन सीमा से जुड़ा है। जिले में 109 प्राथमिक और 38 जूनियर हाईस्कूलों पर ताले लटकाने की तैयारी है। इन स्कूलों में विभाग ने छात्र संख्या बढ़ाने के भी तमाम प्रयास किए, लेकिन सफल नहीं हो पा रहे हैं। ओवरऑल बात करें तो यहां पर सभी ब्लॉकों में 770 प्राथमिक और 275 जूनियर हाईस्कूल हैं। इनमें करीब 32 हजार बच्चे पंजीकृत हैं। औसतन एक स्कूल में 30 बच्चे हैं हालांकि शिक्षकों की कमी, बदहाल शिक्षा व्यवस्था तथा लोगों का शहरी क्षेत्रों में पलायन होने के चलते 109 प्राथमिक तथा 38 जूनियर स्कूल बंदी के कगार पर पहुंच गए। यानी इनमें छात्र संख्या दस से कम हो चुकी है। हालांकि सरकार व विभाग की ओर से इन स्कूलों में छात्र संख्या बढ़ाने के लिए हर माह की छह तारीख को ‘जन जन का प्रयास, शिक्षा का विकास’ नाम से अभियान चलाया जाता है। इसके बावजूद भी इन स्कूलों में छात्रों की संख्या नहीं बढ़ पा रही है।
उत्तरकाशी के जिला शिक्षा अधिकारी बेसिक आरएस रावत बताते हैं कि सरकारी स्कूलों में छात्र संख्या कम होने के दो प्रमुख कारण हैं, एक सरकारी स्कूलों की संख्या अधिक है तो दूसरा लोग ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों में पलायन कर रहे हैं। हालांकि वे नहीं बता पा रहे हैं कि सरकारी स्कलों में ट्रेंड शिक्षक होने के बावजूद भी लोगों का इन स्कूलों से भरोसा कम कैसे हो रहा है।
अब बात करें गढ़वाल मंडल के सबसे पुराने और मंडल मुख्यालय पौड़ी गढ़वाल की तो यहां भी हालात बेहद निराशाजनक हैं। यहां इस बार डेढ़ दर्जन स्कूल छात्रसंख्या शून्य होने पर बंद कर दिए हैं। सरकार स्कूलों में छात्रसंख्या बढ़ाने के लिए मिड-डे मील, नि:शुल्क पाठ्यपुस्तक, डे्रस दे रही है। इसके बाद भी स्कूलों में छात्र संख्या नहीं बढ़ पा रही है। यहां भी दस या उससे कम छात्रसंख्या वाले स्कूलों की सूची लंबी होती जा रही है। वर्तमान स्थिति पर बात करें तो जिले में 1568 प्राथमिक स्कूल हैं और इनमें करीब 31 हजार छात्र पंजीकृत हैं। इनमें 470 स्कूल ऐसे हैं जहां छात्र संख्या दस से भी कम है। ऐसे में सरकारी शिक्षा व्यवस्था पर ही सवाल खड़े होने लगे हैं। इस बारे में पौड़ी गढ़वाल के राजकीय शिक्षक संघ के जिलाध्यक्ष मनोज जुगरान कहते हैं कि स्कूलों में छात्र संख्या कम होने के पीछे पलायन भी एक कारण हो सकता है, लेकिन यह जिम्मेदारी शिक्षक की तो नहीं है। प्राथमिक स्कूलों के प्रति सरकार का रवैया भी इसके लिए जिम्मेदार है। पाठ्यक्रम भी सुधारने की जरूरत है। सरकार को इस दिशा में जल्द ही सोचने की जरूरत है। वहीं पौड़ी के जिला शिक्षा अधिकारी कुंवर सिंह रावत का कहना है कि शिक्षा विभाग समय-समय पर छात्र संख्या बढ़ाने के लिए प्रयासरत है। पलायन भी छात्र संख्या कम होने का एक कारण है। सभी विद्यालयों में गुणवत्तायुक्त शिक्षा मिले इसके लिए समय-समय पर स्कूलों को निरीक्षण कर जरूरी निर्देश दिए जाते हैं। छात्र संख्या बढ़ाने के निर्देश दिए जा रहे हैं। अब टिहरी जनपद की बात करें तो यहां भी आंकड़े काफी डराने वाले हैं। यहां इस बार छात्र संख्या कम होने पर 72 प्राथमिक स्कूलों में ताले लटक गए हैं। यही नहीं यहां पर दो सौ स्कूलों में छात्र संख्या दस से नीचे है, यानि यह भी आने वाले समय में बंद हो जाएंगे। आज हालात यह हैं कि सरकारी स्कूल जो भी चल रहे हैं उनमें मजदूरों और नेपाल से आकर बसे लोगों के बच्चे ही हैं। हालांकि जिलाधिकारी सोनिका सरकारी स्कूल बचाने के लिए जिले के 45 स्कूलों को मॉडल स्कूल बनाने का प्रयास कर रही हैं। इनमें सीडी और टीवी के माध्यम से पढ़ाई कराने के भी प्रयास हैं, देखना यह होगा कि उनके यह प्रयास कितने काम आते हैं।
रुद्रप्रयाग की बात करें तो यहां पर दो साल में 19 स्कूलों में ताले लटक गए, जबकि 96 में ताले लटकने की तैयारी है। कई स्कूल ऐसे भी हैं जिनमें राजस्थान, नेपाल व झारखंड से आए मजदूरों के बच्चे ही पढ़ रहे हैं। इनके भरोसे सड़क किनारे के करीब 19 स्कूल बचे हैं। यानि यह मजदूर सड़क पूरा करके चले गए तो इनका भी बंद होना तय है। इससे सरकारी स्कूलों की व्यवस्था पर सवाल खड़े होते हैं। रुद्रप्रयाग के जिला शिक्षा अधिकारी चित्रानंद काला का कहना है कि प्राथमिक विद्यालयों में छात्र संख्या बढ़े इसके लिए प्रयास किए जा रहे हैं। सभी अधिकारियों को शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के साथ ही उन कारणों को जानने के प्रयास हो रहे हैं कि जिनसे इनमें छात्र संख्या कम हो रही है। उम्मीद है कि अगले सत्र से स्थितियों में कुछ सुधार हो जाएगा। सीमांत जिले चमोली की बात करें तो यहां पर वर्तमान में 190 स्कूलों में बंदी की तलवार लटक रही है। इन स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों को दूसरे स्कूलों में भेजा जा रहा है। हालांकि कुछ विद्यालय ऐसे भी हैं जिनके आसपास में दूसरे विद्यालय नहीं हैं। ऐसे स्कूलों के छात्रों के लिए काफी परेशानी हो रही है। बताते चलें कि जिले का प्राथमिक विद्यालय गंडीक, भंगोटा, देवार, सेरागाड़, मष्ट गांव, तोलीबेलुंग, बौब, गडुना, संगूड़, भदूड़ा, डांडो, कुंजणी, नैलसिदेड़ी, सिराऊं, खांडूस, रौठलाखड़ी, करछुना, सेरा, कोलग्री, सूना, सिमलसैंण, गडकोट, गुगवा, थनगिर के बंद होने से अब इन स्कूलों से दूसरे स्कूल जाने वाले बच्चों को करीब दो से पांच किमी की दूरी तय करनी पड़ेगी। यह दूरी बच्चे अकेले नहीं जा सकते हैं। इसकी वजह यहां बच्चों को रास्ते में नदी नाले व घने जंगलों से होकर गुजरना पड़ेगा। विभाग का ध्यान इस ओर नहीं जा रहा है। चमोली के जिला शिक्षा अधिकारी बेसिक नरेश कुमार हल्दिया कहते हैं कि उच्चाधिकारियों के निर्देश पर दस से कम छात्रसंख्या वाले स्कूलों को नजदीकी दूसरे स्कूलों में विलय कर दिया है। अब अग्रिम आदेशों के अनुसार ही कार्रवाई की जाएगी। यानी देखा जाए तो पहाड़ के गढ़वाल मंडल के महज पांच जिलों के हालात देखकर नहीं लगता है कि डबल इंजन की सरकार ने कुछ किया हो। अब देखना होगा कि हमारे प्रदेश के नये शिक्षा मंत्री अरविंद पांडे जो पहले ही दिन से शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन के दावे करते नहीं थक रहे हैं, वे क्या कुछ इनके लिए करते हैं। बहरहाल इन हालातों में हमारे नौनिहालों का भविष्य कैसा होगा, यह सोचनीय पहलू है।
स्वास्थ्य सेवाएं भी बदहाल
प्रदेश की त्रिवेंद्र सरकार विकास के कितने भी दावे कर ले लेकिन धरातल पर स्थिति कुछ और ही है। बात अगर स्वास्थ्य सेवाओं की करें तो इस समय पहाड़ ही नहीं बल्कि तराई क्षेत्र में भी स्वास्थ्य सेवाएं पूरी तरह ध्वस्त हो चुकी हैं। हां इतना जरूर है कि यहां अगर आपके पास रुपये हैं तो निजी अस्पतालों में अपना उपचार करा सकते हैं, लेकिन गरीबों को तो बिना उपचार के ही मरना पड़ेगा। प्रदेश के सरकारी अस्पतालों में अभी तक तो पहाड़ पर ही डाक्टरों की कमी का रोना था, मगर अब तो महानगरों में स्थित सरकारी अस्पतालों में भी चिकित्सकों की कमी मरीजों को रुला रही है। बात अगर हल्द्वानी शहर कि करें तो अभी हाल ही में सोबन सिंह बेस चिकित्सालय में हुए आधा दर्जन से अधिक चिकित्सकों के तबादलों के बाद दूरदराज के क्षेत्रों से यहां पहुंचने वाले मरीजों को मजबूरन निजी चिकित्सालयों कि ओर जाना पड़ रहा है। पर्वतीय क्षेत्रों के मरीजों के लिए कभी स्वास्थ्य सेवाओं की रीढ़ कहे जाने वाला बेस चिकित्सालय भी सरकारी अदूरदर्शिता की भेंट चढ़ चुका है। तबादलों के बाद से अभी तक यहां के लिए ट्रांसफर किये गये। डॉक्टरों द्वारा बेस चिकित्सालय में ज्वाइन न करने से मरीजों की मुसीबतें लगातार बढ़ती जा रही हैं।
गौरतलब है कि कभी पहाड़ों में डाक्टरों और संसाधनों के न होने की स्थिति में हल्द्वानी शहर में स्थित सोबन सिंह बेस अस्पताल, एसटीएच और महिला अस्पताल ही बीमार लोगों का सहारा थे। न केवल आम, बल्कि खास लोगों के लिए भी ये अस्पताल बड़ा सहारा देते थे। यही वजह है कि मरीजों को न चाहते हुए भी निजी चिकित्सालय में मोटी रकम दे कर अपना इलाज कराना पड़ रहा है। बुरी तरह चरमरा चुकी स्वास्थ्य सेवाओं के मद्देनजर अब सवाल यह उठ रहा है कि सत्रह साल बाद भी प्रदेश में ऐसी स्थितियां क्यों बनी हुई हैं? क्यों इस अवधि में सरकारों ने सरकारी अस्पताल में सही संख्या में चिकित्सक तैनात करने की व्यवस्था नहीं की? यहां ऐसे में सवाल उठना भी लाजमी है कि कहीं सरकार प्राइवेट अस्पतालों के संचालकों के हाथों में तो नहीं खेल रही है? क्योंकि पहाड़ में तो छोड़िए अब तो मैदानी क्षेत्रों तक में सरकारी स्वास्थ्य सिस्टम खत्म होता जा रहा है। पहाड़ी इलाकों में डाक्टरों के 75 प्रतिशत के करीब पद खाली हैं और अब मैदानी क्षेत्रों में भी सरकारी अस्पतालों में चिकित्सकों का टोटा होता जा रहा है। अब प्रश्न ये उठ रहा है कि क्या एक करोड़ की आबादी वाले इस प्रदेश में हर कोई इतना पैसे वाला हो गया है जो इलाज सरकारी कि बजाय प्राइवेट अस्पताल में कराने को सक्षम हो और अगर नहीं है तो फिर आखिर गरीब आदमी जाए तो जाए कहां?