‘प्रकृति की संगति में स्वयं का पुनर्सृजन ही वास्तविक अभिव्यक्ति’
हृदयनारायण दीक्षित: बोलने से मन नहीं भरता। लगातार बोलना हमारा व्यावहारिक संवैधानिक दायित्व है। विधानसभा का सदस्य हूं और अध्यक्ष भी। जनप्रतिनिधि जनता की ओर से बोलते हैं। लोगों ने मुझे चुना है कि बोलो, सदन में बोलो। सदन की समितियों में बोलो। सभाओं में बोलो और गोष्ठियों में बोलो। बोलते बोलते थक जाना चाहिए लेकिन बोलना लत हो गया है। लोग मिले कि मैं शुरू हो गया। मैं एक यंत्र बन गया हूं। रिमोट आगंतुको के पास है, वे बोले कि मैं बोलने लगा। राजनैतिक संवर्ग बोलता रहता है। लेकिन दुनिया के सबसे बड़े जनतंत्र में बोलने की मर्यादा नहीं है। संसद व विधानमण्डलों में बोलने या विषय प्रवर्तन की नियमावली है। नियमावली की मर्यादा व अनुशासन में बोलने वाले समाचार पत्रों में उचित स्थान नहीं पाते। अप्रिय बोलने वाले ख्याति पाते हैं। सदनों के बाहर होने वाले आयोजनों में भी शील संस्कार पर दिए गए भाषण समाचार माध्यमों से प्रायः ब्लैक आउट रहते हैं। शब्द प्रयोग का शील आचार समाप्त हो रहा है। वार्तालाप का आकार और घनत्व बढ़ा है। मोबाइल फोन के आविष्कार ने बातों का बाजार बनाया है। बाते मोबाइल के पहले भी थीं। एक से दो हुए। बातें होने लगी। गांव में बतरस के अड्डे थे। लोग एकत्रित हुए बाते चल निकली। अब बातें ही बाते हैं। टाक टाइम बढ़ा है। कई कम्पनियों ने मुफ्त में बात करने के नए नए अवसर दिए हैं। लेकिन बाते करने की आधारभूतों बातों पर गंभीर ध्यान नहीं दिया जाता।
बातों के बिना काम भी नहीं चलता। इसलिए बतरस की कोई आचार संहिता तो होनी ही चाहिए। गीता (अध्याय 17.15) के एक श्लोक में वार्ता का खूबसूरत विज्ञान है। संस्कृत का यह श्लोक हिन्दी में आसानी से समझा जा सकता है, “अनुद्वेग करं वाक्यं, सत्यं प्रियहितं च – आहत न करने, प्रिय व हित करने वाले वाक्य बोलना चाहिए। साथ में वैदिक साहित्य का नियमित पाठ करना यही वाणी की तपस्या कही जाती है – स्वाध्यायभ्यसनं चैव वांग्मय तप उच्यते। बड़ा सुंदर सूत्र है – अनुद्वैगरकं वाक्यं। हमारी अभिव्यक्ति असावधानी के कारण किसी को आहत कर सकती है। इसलिए वाक्य गठन में उद्वैग उत्तेजन को कोई जगह नहीं मिलनी चाहिए। वाणी किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व का मुख्य भाग है। हम अप्रिय बोलते हैं, समाज अपयश देता है, हम प्रिय बोलते हैं, समाज यश देने लगता है। यहां गीताकार ने स्वाध्याय की भी शर्त लगाई है। पढ़ना, देखना, सुनना फिर बोलना। पढ़े सुने और देखे हुए विषय का निरीक्षण करना आवश्यक है। पढ़े सुने देखे ज्ञान में भी आहतकारी वाक्य हो सकते हैं। उनसे बचना और संवाद कौशल को उदात्त बनाना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है।
ऋग्वेद में कई मंत्रों के संकलन को सूक्त कहा गया है। प्रतिष्ठित राजनेताओं के कथन प्रायः सूक्त नहीं हैं। सूक्त का अर्थ है सु-उक्त/सुंदर कथन। वाच वाणी है ऋग्वेद में ‘सुवाचै’ – सुंदर वाणी है। वाणी ब्रह्म है, यह रूद्र, वसु आदि सभी देवों को धारण करती है। इसलिए ऐतरेय उपनिषद् के शांति पाठ में स्तुति है – हमारा मन वाणी में हो और वाणी मन में। दोनो एक हों – वांग् में मनसि प्रतिष्ठा/मनों में वाचि प्रतिष्ठा।” वाणी भीतर से आती है, चंचल मन उसे हड़बड़ी में कुछ का कुछ कर देता है। इसलिए वाणी और मन की आत्मीयता से सोचे विचारे शब्द ही निकलेंगे। स्वयं को सव्यवक्ता घोषित करने वाले किसी को भी आहत कर देते हैं कि जो सही था। वही बोला गया। ऐसे लोगों ने एक मनमाना सिद्धांत गढ़ा है कि सत्य कटु होता है। यह सिद्धांत गलत है। ऋग्वेद की घोषणा में सत्य एक है। विद्वान उसे कई तरह से बताते हैं। सत्य निरपेक्ष है। वह एक है, वक्ता अनेक हैं। वक्ता ही उसे कड़ुआ, मीठा या उत्तेजक आहतकारी बनाते हैं। कुछेक वामपंथी मित्रों के अनुसार सत्य अनेक है। उनकी मानें तो यहां राष्ट्र भी अनेक हैं। वे अनेकता में एकता की बात करते हैं। वस्तुत यहां सत्य एक है, उसी के गुणधर्म से एकता है। इसी एकता के भिन्न भिन्न आयाम अनेक दिखाई पड़ते हैं। अनेकता अस्तित्वगत नहीं है।
सतत् अभिव्यक्ति प्रकृति का गुण है। वह प्रतिपल नए रूप में प्रकट होती है। स्वयं को अभिव्यक्त करती है प्रतिक्षण। सूर्य प्रकृति की अभिव्यक्ति है। चन्द्र और तारे भी। नदिया, वनस्पतियां वर्षा और पवन प्रकृति की ही अभिव्यक्तियां हैं। मनुष्य में भी स्वयं को प्रकट करने का गुण प्रकृति से आया है। मनुष्य प्रकृति का एक मात्र प्राणी है जिसके हिस्से तर्क बुद्धि भी आई है। इसलिए उसे अपने अभिव्यक्ति कौशल को गहन प्रेम से सीच कर उदात्त बनाना चाहिए। प्रकृति अपनी अभिव्यक्ति में सत्य के साथ शिव भी है। यह शिवत्व उसे लोकमंगल हितसाधक बनाया है। सत्य में शिव न हों तो सत्य बेमतलब। शिव पर्याप्त हैं, सत्य की अभिव्यक्ति को नाद देने के लिए। फिर जहां सत्य और शिव दोनो साथ साथ है वहां सौन्दर्य होगा ही। शिव की उपस्थिति ही सौन्दर्य की गारंटी है। मनुष्य का अन्तर्भाग सत्य, शिव और सौन्दर्य से भरापूरा है। तरल सरल ढंग से की गई अभिव्यक्ति में तीनों का आनंद एक साथ बहता है। शिव गणों के साथ नाचते हैं। फिर नृत्य से सुंदर अभिव्यक्ति क्या होगी। लेकिन अभिव्यक्ति का अर्थ स्वयं का प्रदर्शन ही नहीं है। प्रकृति की संगति में स्वयं का पुनर्सृजन ही वास्तविक अभिव्यक्ति है।
बोलना या लिखना अभिव्यक्ति का मुख्य भाग है। जीवन के प्रत्येक कर्म में उदात्त रहना भारतीय संस्कृति की मुख्य मर्यादा है। उदात्त होने की प्रथम शर्त है सम्यक श्रोता भाव। बोलने वाले व्यक्ति में गंभीर श्रोता भाव जरूरी है। सुंदर अभिव्यक्ति का मूलस्रोत है विनम्र श्रोता भाव। अच्छा लिखने वाले मित्र अच्छे स्रोता होते हैं और अच्छे विद्यार्थी भी। अच्छे विद्यार्थी का गुण भी अच्छा श्रोता होना है। पढ़ना भी श्रोता भाव का ही दूसरा आयाम है। लेकिन पढ़ने या सुनने मात्र से ही अभिव्यक्ति सुंदर नहीं हो जाती। पढ़े या सुने के पक्ष में आग्रही भाव रखने से उदात फिसल जाता है और उदात्तविहीन अभिव्यक्ति संवेदनतत्व नहीं जगाती। सुनना या पढ़ना स्वयं को तथ्यों या अन्य लोगों की भाव कल्पनाओं से समृद्ध करना ही है। ऐसी समृद्धि पर्याप्त नहीं है। ऐसी समृद्धि के साथ स्वयं की अनुभूति भी जोड़ना जरूरी है। भारतीय ऋत, परंपरा और नित्यानित्य विवेक के अनुसार अभिव्यक्ति करना पूर्वजों ने श्रेय बताया है। प्रेय हमारा है, श्रेय लोकमंगल का साधन सेतु है। अभिव्यक्ति को लोकमंगल का हेतु बनाना ही होगा। लोकमंगल की साधना का यही मार्ग सनातन काल से भारत के लोगों का प्रेय रहा है।
हमारा प्रतिमाह 8 बड़े निबंध लिखना अभिव्यक्ति ही है। मैं स्वाभाविक होकर लिखता हूं। जान पड़ता है कि वैदिक ऋषि अपनी भावनाएं हमारे स्मृति चक्र में डाल देते हैं। अनेक पूर्वज दार्शनिक भी ऐसा ही करते प्रतीत होते हैं। सोचता हूं कि शिव लेखन के समय साथ रहते हैं। सत्य अपने आसन पर और शिव योगासन पर। सौन्दर्य भागा-भागा आता है हमारी ओर। सत्य शिव को सौन्दर्य की दीप्ति से चमकाने के लिए मौजूद रहता ही है। अभिव्यक्ति को रूप शब्द रस की गंध से लहकाकर पूर्ण करने के लिए सौन्दर्य भी भागा भागा आता है। सत्य शिव के बिना अप्रतिम सौन्दर्य को कौन पूछेगा? ऐसी सघन उपस्थिति में जो कुछ लिख गया, स्वयं के सुख के लिए पर्याप्त है। बातों में भी यह गणित लागू है। बात सत्य हो, लोकमंगल का उपकरण हो तो शिव। सत्य शिव बोध हो तो सौन्दर्य की छटा अपने आप। भारत के सुदूर इतिहास में मंत्रों श्लोकों में सुंदर वार्तालाप थे। उनमें लोकहित थे, सौन्दर्य था, ज्ञान गंध थी। शब्द और वाणी नमस्कारों के योग्य थे। लेकिन आज भाषा का अनुशासन तोड़ दिया गया है। शब्द अपशब्द हो रहे हैं। सत्य, शिव और सौन्दर्य की त्रिमूर्ति ही रक्षा कर सकती है।
(रविवार पर विशेष)
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार स्तम्भकार एवं उत्तर प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष है)