जीवनशैलीदस्तक-विशेष

बच्चा होगा तो बुलेट में कैरियर लगा लेंगे

-मीनाक्षी जे और जे सुशील

….मीनाक्षी और हरीभरी…. अक्सर ये बातें करते हैं कि पुणे से चेन्नई की यात्रा में कितना मज़ा आया था…. दिल्ली से श्रीनगर में कैसे मीनाक्षी बीमार पड़ी थी। गोवा में कैसे हरीभरी को मैकेनिक के पास ले जाना पड़ा था और कैसे जे ने नालंदा में हाथ खड़े कर दिए थे कि अब वो थक गया है….
कला की एक छोटी सी यात्रा जिसे लोग आर्टोलॉग के नाम से जानते हैं वो हम तीन मिलकर चलाते हैं जे, मीनाक्षी और हरी भरी। हरी भरी हमारी 350 सीसी बुलेट जो हरे रंग की है। परिवार का चौथा साथी केसरिया है नई 500 सीसी बुलेट, ये यात्रा रंगों की है, मुलाकातों की है, दीवारों की है, अनुभव की है, जीवन की है।
Captureये यात्रा हम तीनों की नहीं है, ये यात्रा उन सभी लोगों की है जो किसी न किसी तरह हमसे जुड़े हुए हैं। उन सभी लोगों की जो अपने सपने जीना चाहते हैं किसी न किसी तरह कला से जुड़े रहना चाहते हैं। कला, जो केवल पेंटिंग नहीं है…. जो चित्र बनाए वही कलाकार नहीं है। कलाकार हर वो आदमी है जो संवेदनशील है। हर आदमी कलाकार है। जो महसूस करता है वो कलाकार है। इस यात्रा के मूल में ही ये भावना थी और है कि कला सबके लिए है।
हर आदमी कला समझता है या समझ सकता है। जे का कहना था कि अगर मैं मीनाक्षी के साथ रहकर कला को, कलाकार को समझ सकता हूं तो हर आदमी समझ सकता है। तीन सालों में करीब 100 दिनों की यात्रा में ये बात एक बार नहीं, हम कई बार समझे, समझ कर खुश हुए और फिर आगे बढ़ गए।
निकोलस बोरियाड नामक जाने माने आर्ट क्रिटिक ने नब्बे के दशक में रिलेशनल आर्ट की बात कही थी। रिलेशनल आर्ट यानी ऐसी कला जिसमें सिर्फ पेंटिंग या परफॉर्मेंस ही आर्ट का हिस्सा नहीं है बल्कि उस पेंटिंग, परफॉर्मेंस के घटते समय, उसके परिवेश में, मौजूद लोग उसमें कितना हिस्सा लेते हैं, उसे कितना महसूस करते हैं वो जरूरी है ताकि वो जब वापस जाएं तो उनके जेहन में वो आर्ट बस आए। वो उस आर्ट से रिलेट कर सकें तभी तो ये रिलेशनल आर्ट हुआ। इस सिद्धांत के बारे में हमें अपनी यात्रा के दौरान न्यूयार्क में एक लेख पढ़ते हुए पता चला। होता ही है, आप जो करते हैं प्रकृति उस हिसाब से आपको वो साजो सामान, विश्लेषण उपलब्ध कराती जाती है।
कला के बाजार में बड़ी-बड़ी आर्ट गैलरियों में घुसने से झिझकते और छिड़के हुए रंगों की करोड़ों की कीमत से कांप जाते आम जन बिल्कुल नहीं समझ पाते हैं कि ऐसा क्या है इनमें। इसे समझाने के लिए न तो महंगी किताबों की जरूरत होती है और न ही किसी बड़े आदमी के ज्ञान की। लोगों को उस प्रक्रिया से गुजारिए फिर वो समझेंगे कि कला क्यों जरूरी है, कला एक व्यक्तित्व को कैसे निखार सकती है, कला कैसे एक व्यक्ति को बेहतर आदमी बना देती है….. और अंत में ये भी कि कला क्यों महंगी हो जाती है।
पंचकूला में हमने एक ऐसे परिवार के साथ पेंटिंग की जो हमारे हर आइडिया में अपना इनपुट डालकर आइडिया को और बेहतर कर देता था। डासना जेल में कैदियों ने एब्सट्रैक्ट चिन्ह बनाए तो वो कहीं से भी किसी एब्सट्रैक्ट आर्टिस्ट से कम नहीं थे। बेगूसराय में स्कूल के बच्चों ने (जिन्होंने शायद ही कभी ब्रश पकड़ा हो) जब चूड़ियां खोल कर गोलाकार आकृतियां बनानी शुरू की तो हमारे मुंह से अपने आप ही निकल पड़ा- हर बच्चा कलाकार है।
पुलिस थाने में, मानसिक रूप से अस्थिर बच्चों के एक स्कूल में, नक्सल प्रभावित एक गांव में हम जहां भी गए…… हमें कई ऐसे लोग मिले जिनमें संवेदनाएं बची हैं…. कई ऐसे भी जिन्होंने संवेदनाओं को मार डाला है लेकिन हमसे मिलने के बाद उन्होंने खुद कहा कि आंखें अच्छा देखें तो अच्छा समझने लगती हैं।
कला भी ऐसी ही चीज़ है। आप संवेदनाओं को जगा कर देखेंगे तो दीवार पर बनी आकृति आपको कलात्मक लगेगी। बस कल्पना करने की जरूरत है। जब हम स्कूलों में कहते हैं कि फूल नहीं बनाना है, घर नहीं बनाना है, तिरंगा झंडा नहीं बनाना है, दृश्य नहीं बनाना है, आदमी नहीं बनाना है…… तो हम बच्चों को कुछ बनाने से रोक नहीं रहे होते हैं। हम उन्हें उकसा रहे होते हैं कि वो अपने आसपास देखें और सोचें कि वो और क्या बना सकते हैं।
परिणाम के तौर पर ये बच्चे चेहरे बनाते हैं जिनमें मेंहदी के डिजाइन्स होते हैं, टैटू आर्ट होता है, बंदूक होती है, बैलगाड़ी होती है, पंख वाली कार होती है, एक पहिए वाली साइकिल होती है। मिट्टी होती है जिसे लीपते हुए बच्चे खुद बताते हैं कि उनकी मां भी मिट्टी से लीप कर उस पर डिजाइन बनाती है। हम मुस्कुरा कर कहते हैं कि हम चाहते थे ये बात तुम खुद जानो और मानो कि तुम्हारी मां भी कलाकार है।
हमें इसके बदले में प्यार मिलता है, बेहतरीन भोजन मिलता है। कौन कहता है पाक कला ….कला नहीं है। हम लोगों को सब कल्पनाएं करना सिखाते हैं। जब वो कल्पना में जीते हैं तो वो खुद समझते हैं कि कलाकार का जीवन कितना सुंदर मगर तपस्या का जीवन है…. शायद इसीलिए कला महंगी होती चली जाती है। हम लोगों को सिर्फ सपने देखना सिखा कर आते हैं क्योंकि बिना सपनों के दुनिया कैसी होगी, हम सोचना भी नहीं चाहते।
जे ने एक सपना देखा था.. मीनाक्षी ने एक सपना देखा था…. दोनों इस सपने को जीने की कोशिश कर रहे हैं। इस कोशिश में कला एक रास्ता है। हर कोई उस रास्ते को अपनाए ये जरूरी नहीं लेकिन हां लोगों को ये रास्ता पता चले ये ही क्या कम है। ऐसा भी नहीं है कि जे और मीनाक्षी बस घूमते ही रहते हैं। फक्कड़ घुमक्कड़ हैं। मीनाक्षी का अपना काम है स्टूडियो पेंटिग्स का। वो विजुअल आर्टिस्ट है जो पेंट करती है, इंस्टॉलेशन्स बनाती है, बेचती है। जे नौकरी करता है लेकिन इसी में से समय निकाल कर आर्टोलॉग करता है क्योंकि ये दोनों का सपना है।
लोग पूछते हैं कैसे करते हो ये सब। हम बताते हैं कि आप भी कर सकते हैं। कला के रास्ते पर चलोगे तो जीने का ऑक्सीजन मिलेगा। लोग फिर खुद ही बताते हैं कि वो पहले बांसुरी बजाते थे तो ताज़गी महसूस करते थे, कोई पहले किताबें पढ़ता था, कोई कविताएं लिखता था, कोई कुछ करता था, लेकिन सब छूट गया। हम कहते हैं कि छूटे को पकड़ लो। जो सपना देखा है उसे जियो। ऐसा करने वाला हर आदमी कलाकार है।
हां घुमक्कड़ी के अपने नुकसान हैं। तीन साल के सफर में कुछ परिवार जरूर ऐसे मिले जिनके लिए जीवन का मतलब सिर्फ और सिर्फ पैसा ही था। उन्होंने हमारा इस्तेमाल किया, लेकिन हमने उसका बुरा नहीं माना। हमने ये प्रकृति के हाथ में छोड़ दिया है। हमने सबकुछ रंगों के भरोसे छोड़ दिया है।
बुरे अनुभवों को हमने अनुभव मान लिया है जिसका जिक्र कर जे और मीनाक्षी खूब ठठा कर हंसते हैं। एक परिवार का टॉयलेट इतना गंदा था कि मीनाक्षी बीमार पड़ गई और फिर हम दो दिन पानी बाहर से खरीद कर पीते रहे और उसी परिवार के ड्राइंगरूम में नीचे सोते रहे और खुद पर हंसते रहे, लेकिन बिना पेंट किए भागे नहीं। समझ में आया कि लाइफ में एडजस्ट करना बहुत जरूरी है।
पंद्रह राज्य…. चालीस से अधिक शहर-कस्बे-गांव-स्कूल। पहले लगता था हम लोग कुछ सिखाते हैं लोगों को…. धीरे धीरे समझ में आया हम लोग ही सीखते हैं लोगों से जीवन के बारे में। कला के बारे में। पूर्णिया के एक संथाल गांव में जब उनका माझी थान (भगवान को रखने की जगह-घर का मंदिर समझ लीजिए) देखे तो असल में समझ में आया कि कलाकारी कैसी होती है। मिट्टी की सपाट दीवारें जिस पर घर की बहू ने मिट्टी से ही फूल, पत्ते, लताएं काढ़ी थी। मीनाक्षी के हाथ में मिट्टी देते हुए बोली एक ऐसा ही बना कर दिखाओ तो मीनाक्षी की हालत खराब थी। कांपते हाथों से जब उसने एक फूल और बेल बनाया तो घर की बहू ने कहा तुम्हारा हाथ साफ है अब अपने मन से बनाते जाओ।
दिन भर में दोनों ने मिलकर माझी थान का एक हिस्सा रंग दिया। रंग वो भी घर के बने हुए। कैसे चिपकेंगे, कैसे खिल कर आएंगे रंग, कौन से रंग लगेंगे, उस घर की बहू को सब पता था और उसने सहजता से मीनाक्षी को सबकुछ बता दिया।
और हम कहते फिरते हैं कि आदिवासियों को जीने का तरीका नहीं। हमारी सरकारें उन गांवों में स्कूल खोलकर, उद्योग खोलकर उन्हें जीने का पता नहीं कौन सा तरीका सिखाती हैं। रामकिंकर बैज ने शांति निकेतन में रहने के दौरान इन्हीं आदिवासियों के जीवन से कला का क…. ख…. ग सीखा होगा। ऐसा जे को लगता है।
नालंदा में जब एनकाउंटर से लौट कर आए चार-पांच जवान पुलिसवालों के हाथों में हमने ब्रश दिए तो सब चकित थे। ब्रश पकड़े उन्होंने डीएसपी साहब के हुक्म से, लेकिन जब फूलों को रंगने लगे तो एक के मुंह से सहसा निकला जो हमें याद रह गया…. सर हम लोग तो कार्बाइन पकड़ते हैं, पहली बार ब्रश पकड़े हैं लेकिन रंग ठीक भर लिए हम लोग भी।
किसी ने हमारा कैमरा लिया ये कहकर कि भइया मैं फोटो खींचूं…. हमने ताकीद से कैमरा दिया और पता चला कि उस बच्चे ने कमाल की तस्वीरें ली। खेतड़ी में पेंट करने के दौरान एक सीनियर से लग रहे शख्स बच्चों के साथ इतने घुल मिल गए कि लौटने के बाद बोले…. मैं कुछ ज्यादा ही बच्चा हो गया था ये मेरी छवि के लिए ठीक नहीं।
छवियों की चुनौतियां पता नहीं हम कब तक ढोते रहेंगे। जे कहता है कि उसे किसी सांचे में नहीं ढलना है। वो हवाला देता है अमीन मालूफ की एक किताब आईडेंटिटी का और कहना है कि एक आदमी की कई सारी आईडेंटिटी होती है। एक आदमी पति, बाप, भाई होने के अलावा दोस्त, नौकर (अपनी नौकरी का) और कलाकार हो सकता है। हम सभी अलग-अलग खांचों में जीवन जीते हैं। ये खांचे न हों तो जीवन नीरस हो जाता है। ये यात्रा कब तक चलेगी ये कहना मुश्किल है। अलग तरह की चुनौतियां हैं कई सवाल हैं। लोग सवाल खड़े कर देते हैं चुपके से ये कहकर कि अच्छी नौकरी है , तभी संभव है, जब बच्चे होंगे तब देखेंगे। हम सुनकर भी अनसुना कर देते हैं। कभी-कभी जे पलट कर कह देता है नौकरी तो अच्छी लाखों लोग कर रहे हैं….. लेकिन वो ऐसा नहीं कर रहे हैं। जब बच्चा होगा तो बुलेट में एक कैरियर लगा लेंगे शोले फिल्म की तरह। हम घूमेंगे तो बच्चा भी घूमेगा। बच्चे को जैसा बनाएंगे वैसा ही बनेगा।
असल में लोग डरते हैं सपनों से, कल्पनाओं से। अपनी यात्राओं में हमने पाया कि जिन घरों में लोग टीवी कम देखते हैं वो ज्यादा कल्पनाशील होते हैं। उनकी जिंदगियां ज्यादा भरी और मानीखेज़ होती हैं। उनके पास कहानियां होती हैं.. उनके पास किस्से होते हैं। हमने किस्से सुनना भी छोड़ दिया है। कभी किस्से सुन कर देखिए…. जिंदगी का मज़ा सुनने में भी है।
जे और मीनाक्षी संगीत में रुचि रखते थे, लेकिन समझ कम थी। पुणे में तारा मां (मीनाक्षी उन्हें तारा मां ही बोलती हैं अभी भी) ने कर्नाटक संगीत का जो चस्का लगाया तो हम धीरे-धीरे क्लासिकल सुनने लगे। खेतड़ी और रांची में अमित और प्रशांत ने बेहतरीन क्लासिकल संगीत का खजाना भेंट किया। अब घर में वही बजता है। धीरे-धीरे रागों की समझ आने लगी है। अब यू ट्यूब पर अच्छा संगीत खोज कर सुनना आदत बनती जा रही है।
आर्टोलॉग नहीं होता तो शायद हम कभी संगीत के इतने करीब नहीं आ पाते। पहले करियर को लेकर जे और मीनाक्षी को डर लगता था। अब डर बहुत कम हो गया है। मज़े के लिए शुरू हुआ था…. अब तो इतने लोग हैं कि साल भर घूम सकते हैं पूरे भारत में। कोई कहता है किताब लिखो…. कोई कहता है पैसे लेकर पेंटिंग करो, जे और मीनाक्षी मुस्कुराते हैं और कहते हैं बिन मांगे मोती मिले मांगे मिले न चून। हमें घूमना है, पेंट करना है अपने सपने को जीना है…. पैसा…. किताब…. ये हमारा लक्ष्य कभी नहीं रहा…. हो जाता है तो हो जाए….
पहली बार जब आर्टोलॉग की रिपोर्ट छपी तो अच्छा ही लगा था। अखबार में अपनी फोटो, लेकिन अब पत्रकारों से बात करने में अटपटा सा लगता है। बहुत कम रिपोर्टों में लोगों ने वो लिखा जो हमने कहा। लोग अपने हिसाब से समझते हैं.. अब हम समझाते भी नहीं। कोई पत्रकार आता है तो हम बस इतना कहते हैं। दिनभर रहिए हमारे साथ। जो समझ में आता है लिखिए…. लिख लें तो जहां छपे वो लिंक भेज दीजिए…. बस यही मूल्य है इन रिपोर्टों का।
हमारी चुनौती होती है कुछ नया करने की। तीन साल में पहला शो किया आर्टोलॉग ने दिल्ली के हैबिटेट सेंटर में। मीनाक्षी के लिए बड़ी बात थी आर्टिस्ट के लिए प्रदर्शनी एक मौका होता है अपना काम दिखाने का लेकिन सिर्फ पेंटिंग की तस्वीरें नहीं थी। प्रदर्शनी में लोगों को मौका दिया हमने पेंट करने का। पचास फीट के कैनवास पर 1600 लोगों ने हाथ आजमाए ….पेंट किया। आम लोगों ने, प्रदर्शनी देखने आए लोगों ने। मुझे नहीं पता भारत में किसी कलाकार ने कभी आम लोगों को ये मौका दिया है या नहीं।
आम लोग ही थे। शायद संवेदनशील होंगे। किसी ने पेंट करने के बाद आकर कहा- क्या मैं आप दोनों के गले लग सकता हूं। किसी ने डबडबाई आंखों से कहा- तुम लोग बहुत अच्छा काम कर रहे हो। एक व्यक्ति करीब ढाई घंटे तक प्रदर्शनी में रहा और आकर बोला- मैं जानता हूं तुमने अपने पैसे खर्च किए हैं। पैसों की दिक्कत भी होती होगी, लेकिन गजब का काम है, बंद मत करना। एक आदमी अड़ गया कि मैं कुछ पैसे देना चाहता हूं। हमने मना किया कि कुछ बेचना ही नहीं पैसा किस बात का लें। ये कोई आर्ट क्यूरेटर, कलाकार, क्रिटिक नहीं थे आम लोग थे।
प्रदर्शनी में ढेर सारा वो सामान भी था जो लोगों से हमने मांगा था जब हम उनके घरों में गए थे रहने। ऐसा सामान जिससे उनकी यादें जुड़ी हों। जिसका अब वो इस्तेमाल न कर रहे हों।
हमारे पास एक 40 साल पुरानी बांसुरी है जिसने नेपाल से जमशेदपुर होते हुए होसूर तक का सफर तय किया है। एक पुराने शौकीन ज़मींदार का कैमरा है सत्तर के दशक का। फणीश्वरनाथ रेणु के घर की मिट्टी है। एक मछली पकड़ने का जाल है उस घर से जिसके बाहर अब नदी नहीं है। आदिवासी घर की झाड़ू है जो रंगने के बाद झाड़ू लगती नहीं है। एक अनाथालय के कूड़े के ढेर में पड़ी सुंदर सी मूर्ति है। वो सारे कागज़ के प्लेट्स हैं जिनमें रंग रखे थे हमने बच्चों के साथ पेंट करने के दौरान। ये सामान कब हमारा हिस्सा बन गया हमें पता नहीं चला… मीनाक्षी कब पेंटर से इंस्टालेशन आर्टिस्ट बन गई और जे को भी इसका हिस्सा बना लिया ये किसी को नहीं पता।
कब हरी भरी एक महीने चली इस प्रदर्शनी का मुख्य आकर्षण बन गई, कोई समझ नहीं पाया। यात्राएं यही सिखाती हैं। ये आपको कब मैच्योर करती हैं, जीवन में आगे बढ़ा देती हैं कम लोग समझ पाते हैं। हमने जिया है तो शायद थोड़ा सा समझ पाए हैं। आर्टोलॉग की यात्रा एक गरीब नक्सल प्रभावित गांव से दिल्ली के सबसे पॉश ला मैरिडियन होटल तक की भी है जहां एक विवाह में पेंट करने का मौका दिया गया। आर्टोलॉग डासना जेल में कैदियों के साथ दीवार रंगने से लेकर नालंदा के पुलिस स्टेशन में पुलिसवालों के साथ फूल बनाने की यात्रा भी है। ये सपनों को जीने की यात्रा है। ये एक अंतहीन कहानी है सपनों की जो कैसे पूरी होगी ये इस समय न तो जे को पता है न मीनाक्षी को।
हां जब ये लिखा जा रहा है तो बाहर अहाते में खड़ी हरी भरी मुस्कुरा रही है और केसरिया चकित है कि ये क्या हो रहा है। केसरिया को अपनी पहली यात्रा पर निकलना है जल्दी ही। तब उसे भी पता चलेगा आखिर जे मीनाक्षी और हरी भरी अक्सर क्या बातें करते हैं।

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