बच्चे न मिलने से नक्सली संगठन कमजोर!
जगदलपुर : नक्सलवाद के खात्मे को वनवासियों ने मौन क्रांति छेड़ दी है। छत्तीसगढ़ के बस्तर में हजारों वर्ग किलोमीटर फैले घने जंगलों में इसकी आहट सुनाई दे रही है। संगठन में शामिल करने के लिए हर घर से एक बच्चा मांगते आए नक्सलियों को अब बच्चे नहीं मिल रहे हैं। बच्चों को अपनी प्राथमिक इकाई बाल संघम में भर्ती कर नक्सली उन्हें हिंसा के लिए तैयार करते आए हैं। वे धमकी देकर हर घर से किशोर-किशोरियों को ले जाते रहे हैं, लेकिन अब इस पर लगाम लगती दिख रही है। बच्चों को नक्सलियों के हवाले कर देने की जगह वनवासी उन्हें सुदूर शिक्षण केंद्रों में भेज रहे हैं। नक्सलियों की पहुंच से दूर और बेहतर शिक्षा के करीब। यह युक्ति नक्सलियों की संगठन शक्ति पर करारा प्रहार साबित हो सकती है।दंतेवाड़ा स्थित जावंगा एजुकेशन सिटी में ऐसे सैकड़ों बच्चे अध्ययनरत हैं। संभाग मुख्यालय जगदलपुर में वर्ष 2007 से संचालित गायत्री विद्यापीठ के प्रबंधक राज शेखरन पिल्लई बताते हैं कि वनवासियों द्वारा बच्चों को यहां भेजने का मकसद उन्हें नक्सलियों के चंगुल से बचाना और अच्छी तालीम दिलाकर बेहतर नागरिक बनाना होता है। राज्य शिक्षा विभाग के तहत संचालित दंतेवाड़ा का आस्था गुरुकुल एकमात्र शिक्षण केंद्र है, जहां नक्सल हिंसा में परिजनों को खो देने वाले सैकड़ों बच्चे अध्ययन कर रहे हैं। बस्तर संभाग के बीजापुर, नारायणपुर, दंतेवाड़ा, सुकमा व कांकेर जिले के अंदरूनी गांवों में नक्सली 10 से 16 साल तक की उम्र के बच्चों को संगठन में भर्ती करने पर आमादा रहते हैं। लोगों को डरा धमकाकर इसके लिए राजी किया जाता रहा है। गुप्तचर विभाग के मुताबिक नक्सली ब्रेनवाश कर बच्चों को लोकतंत्र के खिलाफ भड़काते हैं। किशोरों से बना स्माल एक्शन नक्सल ग्रुप दर्जनों घटनाओं को अंजाम दे चुका है। बस्तर संभाग में सरकारी पोटा केबिन व आश्रमों की आवासीय शिक्षा व्यवस्था है। निजी आश्रमों व स्कूलों की मॉनीटरिंग शिक्षा विभाग करता है। हालांकि यह प्रणाली बहुत मजबूत नहीं है।
बस्तर संभाग के सात जिलों के कितने बच्चे अब तक गांव छोड़ चुके हैं इसका कोई निश्चित आंकड़ा सरकार के पास नहीं है। ऐसे में गांव छोड़कर बाहर जा रहा हर आदिवासी बच्चा सुरक्षित हाथों में है अथवा नहीं, यह एक बड़ा सवाल है। छत्तीसगढ़ सरकार के पास इसके लिए कोई पुख्ता व्यवस्था नहीं है। एम गीता, सचिव महिला एवं बाल विकास विभाग, छत्तीसगढ़ का कहना है, हर गांव में हमने रोजगार रजिस्टर रखवाया है। ग्राम पंचायत उन बच्चों का आंकड़ा दर्ज करती है जो रोजगार की तलाश में अपने परिजनों के साथ बाहर जाते हैं। हमारे पास राज्य स्तर पर इसका कोई आंकड़ा नहीं है। उधर, बस्तर के बाल अधिकार संरक्षण अधिकारी विजय शर्मा कहते हैं कि सभी पंचायतों में पलायन पंजी रखी गई है लेकिन इंट्री कहीं भी नहीं होती है। नतीजतन, पलायन के आंकड़े मौजूद नहीं हैं। माओवादियों के इरादों को ग्रामीण समझ चुके हैं। यही वजह है कि वे अपने बच्चों को बेहतर शिक्षा दिलाने के लिए आगे आ रहे हैं। अब नक्सलियों को भर्ती के लिए नई पौध नहीं मिल रही है। बस्तर की इस मौन सामाजिक क्रांति के कारण माओवाद अब दम तोड़ता जा रहा है। नक्सली 11 से 16 साल के बच्चों को अपने संगठन में भर्ती करवाने के लिए परिजनों पर दबाव बनाते हैं। पुलिस ने अब तक करीब एक हजार बच्चों को बाहर निकाला है। जो बाहर आ गए हैं वे गांव नहीं जाना चाहते, यहीं पढ़ लिखकर अपना करियर संवारना चाहते हैं। दरअसल मुठभेड़ के दौरान भी नक्सली इन बच्चों को आगे कर देते हैं।