बलात्कार : भारतीय समाज का कलंक
हम भारतवासी कभी-कभी तो स्वयं को अत्यंत सांस्कृतिकवादी, राष्ट्रवादी, अति सभ्य, सुशील, ज्ञान-वान, कोमल तथा योग्य बताने की हदें पार करने लग जाते हैं और स्वयं को गौरवान्वित होता हुआ भी महसूस करने लगते हैं। परंतु आडंबर और दिखावा तो लगता है हमारी नस-नस में समा चुका है। अन्यथा क्या वजह है कि जिन त्रीरूपी देवियों के समक्ष हम प्रतिदिन नतमस्तक होते हैं जिन देवियों के हम चरण छूते हैं और उनकी पूजा-अर्चना करते हैं, जिन बालिकाओं को हम कंजक के रूप में बिठाकर पूजते हैं यहां तक कि सरकारी स्तर पर भी बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ जैसा अभियान चलाकर सैकड़ों करोड़ रुपये इस अभियान के प्रचार-प्रसार में झोंक देते हैं, कन्या भ्रूण हत्या और दहेज प्रथा के विरुद्ध हम अकुशल ही सही परंतु इससे संबंधित कानून बनातें हैं। यदा-कदा कई राज्यों में महिलाओं को विशेष रूप से शिक्षित करने हेतु उन्हें प्रोत्साहन देने के लिए साईकल आबंटन जैसी कई और आकर्षक योजनाएं चलाई जाती हैं। जिन महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने की झूठी ही सही परंतु ऐसी मनोकामना लेकर हम उनके 33 प्रतिशत आरक्षण की बातें भी करते सुनाई देते हैं, क्या वजह है कि वही नारी समाज आज इसी पुरुष समाज की आंखों की किरकिरी बना रहता है?
आज हमारे देश में ‘ज्ञान-वान प्रवचन कर्ताओं’, ‘उपदेशकों’ तथा ‘धर्मगुरुओं’ की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। एक से बढ़कर एक आकर्षक व्यक्तित्व वाले तेजस्वी उपदेशक देश में चारों ओर जनता के मध्य अपना ज्ञान बांटते दिखाई देते हैं। इनके भक्तों में अथवा श्रोताओं व दर्शनकर्ताओं में अधिक संख्या महिलाओं की ही होती है। आखिर यह ‘धर्म उपदेशक व अध्यात्मवादी समाज अपने भक्तों, अनुयाईयों, शिष्यों को इस बात के लिए पाबंद क्यों नहीं करता कि वे स्वयं भी प्रत्येक नारी को सम्मान व आदर की नज़रों से देखें तथा अपने बच्चों व परिवार के सभी सदस्यों को भी ऐसी ही शिक्षा दें’। परंतु संतों द्वारा ऐसी मुहिम चलाने जैसी खबरें तो न जाने भारत में कब सुनाई देंगी फिलहाल तो हमें आसाराम बापू, गुरमीत सिंह राम रहीम तथा नित्यानंद जैसे दर्जनों ‘महात्माओं’ से जुड़े इनकी अय्याशी व दुराचार के किस्से ज़रूर सुनाई दे रहे हैं। हमें ऐसे प्रभावशाली पाखंडी स्वयंभू संतों से जुड़ी घटनाओं को केवल इनके अकेले व्यक्तित्व से जोड़कर नहीं देखना चाहिए बल्कि निश्चित रूप से यह मानकर चलना चाहिए कि इन सबकी ‘कारगुज़ारियां’ इनके भक्तों पर भी नकारात्मक प्रभाव ज़रूर डालती हैं। यदि हम यह मानकर चलते हैं कि सत्संग में जाने से गुरु महाराज के सद्वचनों तथा उनकी कार्यशैली व स्वभाव से भक्तजन कुछ सीख लेते हैं और उनसे प्रभावित होते हैं तो क्या इन ढोंगी व पाखंडी ‘महापुरुषों’ के काले कारनामों से इनके शिष्य व भक्तजन ‘प्रेरणा नहीं लेते होंगे?
ऐसे में ले-देकर सामाजिक, पारिवारिक, प्रशासनिक तथा कानूनी स्तर पर बलात्कार व महिला उत्पीड़न जैसे कलंक से निपटने की ज़रूरत है। प्रत्येक परिवार के मुखिया व वरिष्ठ लोगों का यह कर्तव्य है कि वे अपने बच्चों को कन्याओं तथा महिलाओं के प्रति सम्मान पूर्ण नज़रिए से देखने की शिक्षा दें। हालांकि दुर्भाग्यवश हमारे इसी समाज से निकल कर ऐसी खबरें भी अक्सर आती रहती हैं जिससे यह पता चलता है कि किस प्रकार आज वासना के भेड़ियों द्वारा पवित्र से पवित्र रिश्तों को भी तार-तार किया जा रहा है। पिता, भाई, चाचा, मामा, जीजा किसी के भी रिश्ते के हाथों महिला सुरक्षित नहीं दिखाई देती। अपराधिक आंकड़ों से पता चलता है कि देश में होने वाली बलात्कार की घटनाओं में 98 प्रतिशत घटनाओं में बलात्कार की शिकार महिला या बच्ची के परिचित अथवा रिश्तेदारों का ही हाथ होता है। ऐसे में ले-देकर कानून का भय ही समाज में कुछ सुधार ला सकता है। उदाहरण के तौर पर नेशनल क्राईम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार 2015 में मध्यप्रदेश देश का ऐसा राज्य था जहां बलात्कार की सबसे अधिक घटनाएं दर्ज की गईं। आखिकार इस कलंक से उबरने का फैस्ला करते हुए मध्य प्रदेश सरकार ने पिछले दिनों एक ऐसा कानून पारित किया जिससे बलात्कारियों में निश्चित रूप से भय पैदा हो सकेगा। मध्यप्रदेश विधानसभा में एक ऐसा दंडविधि(मध्यप्रदेश संशोधन)विधेयक 2017 सर्वानुमति से पारित कर दिया गया है जिसके अंतर्गत् इस राज्य में 12 वर्ष तक कि उम्र की बच्चियों के साथ बलात्कार करने वाले अपराधियों को फांसी की सज़ा दिए जाने तक का प्रावधान है। ऐसा कानून बनाने वाला मध्यप्रदेश देश का पहला राज्य बन गया है।
हमारे देश में फांसी की सज़ा के विरोध में भी तरह-तरह के स्वर उठते सुनाई देते हैं। वैसे भी यदि किसी दुर्दांत अपराधी को किसी मामले में अदालत मृत्यु दंड का फैसला सुना भी देती है तो भी उसे राष्ट्रपति के पास जीवन दान मांगने का अधिकार रहता है। और अदालत द्वारा फांसी की सज़ा सुनाए जाने के बाद भी राष्ट्रपति किसी भी अपराधी को जीवनदान दे भी सकता है। वैसे भी हमारे देश के राजनैतिक क्षेत्र में चलने वाले पक्ष-विपक्ष के आरोपें-प्रतयारोपों के बीच जब कभी कोई सरकार फांसी के पक्ष में अपनी आवाज़ उठाती है तो विपक्ष मानवाधिकार का झंडा उठाकर फांसी की सज़ा के विरुद्ध खड़ा हो जाता है। सवाल यह है कि जो लोग मासूम बच्चियों की मासूमियत, उनकी शारीरिक क्षमताओं तथा उनके पूरे भविष्य व जीवन पर दया नहीं करते और नरभक्षी की तरह उसकी आबरू रेज़ी कर डालते हैं और इनमें कई कलंकधारी लोग मासूम बच्चियों के करीबी रिश्तेदार भी होते हैं क्या वे इस योग्य हैं कि उनके पक्ष में मानवाधिकार के झंडे बुलंद किए जाएं? वैसे भी हमारे देश में मृत्युदंड होने न होने के विषय पर पहले भी राष्ट्रीय स्तर पर एक कवायद पूरी हो चुकी है। और विधि आयोग इस संबंध में अपनी रिपोर्ट भी दे चुका है। विधि आयोग द्वारा 1967 में दी गई अपनी 35वीं रिपोर्ट में यह कहा जा चुका है कि देश के अधिकांश राज्य मौत की सज़ा के पक्ष में हैं। गौरतलब है कि हमारे देश में भारतीय दंड संहिता में मृत्यु दंड सुनाए जाने का प्रावधान 1861 में किया गया था। और 1931 में बिहार विधानसभा में इसे समाप्त करने की कोशिश भी की गई थी जोकि असफल रही।
आज स्थिति इतनी बद्तर हो चुकी है कि क्या शौच के लिए घरों से निकलती महिलाएं , क्या स्कूल व ऑफिस जाने वाली बच्चियां, नौकरीपेशा लड़कियां या अपने परिवार के साथ स्वयं को सुरक्षित महसूस करता हुआ किसी राष्ट्रीय राजमार्ग या एक्सप्रेस वे पर जाता हुआ परिवार कोई भी कहीं भी सुरक्षित दिखाईनहीं दे रहा है। इससे बड़ा दुर्भाग्य और बदनामी का विषय हमारे देश व समाज के लिए और क्या हो सकता है कि भारत में होने वाले बलात्कार की खबरें विदेशी मीडिया में प्रमुख स्थान पाने लगी हैं। और इन खबरों का असर यह होता है कि कई देश भारत आने वाले अपने पर्यट्कों की सुरक्षा के दृष्टिगत् गाईडलाईन जारी कर या तो उन्हें भारत भ्रमण पर जाने से रोकते हैं या उन्हें पूरी सुरक्षा व चौकसी बरतने के निर्देश देते हैं। निश्चित रूप से यह परिस्थितियां ऐसी ही हैं कि इन का मुकाबला पूरी सख्ती खासतौर पर कानूनी तौर पर बरती जाने वाली सख्ती से किया जाना चाहिए। केवल मध्यप्रदेश ही नहीं बल्कि देश के सभी राज्यों में बलात्कार में शामिल लोगों के विरुद्ध फांसी अथवा कठोरतम व सश्रम कारावास की सज़ा का प्रावधान होना ज़रूरी है। संभव है जो दुराचारी सामाजिक मर्यादाओं का लिहाज़ नहीं करते, हो सकता है फांसी के फंदे का भय उन्हें दुष्कर्म हेतु प्रेरित करने से रोक सके।