उत्तराखंडदस्तक-विशेष

बागियों का सहारा लेना पड़ा भारी!

गोपाल सिंह
उत्तराखंड में करीब डेढ़ महीने लंबे प्रचार के बाद चुनाव तो संपन्न हो गए, लेकिन इस बार के विधानसभा चुनाव पिछले चुनावों से काफी अलग हटकर दिखे। खास बात यह रही है कि जो भारतीय जनता पार्टी पूरे पांच साल तक कांग्रेस सरकार के भ्रष्टाचार की बातें करती रही वही अंतिम समय में आकर भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाना ही भूल गयी या फिर उसे मजबूरी में भूलना पड़ा। इसके अलावा भारतीय जनता पार्टी हमेशा से ही पार्टी विद डिफरेंट दिखने की कोशिशें करती थीं, लेकिन उसकी कुछ मजबूरियां ऐसी बनीं कि उसे कहीं पति-पत्नी तो कहीं बाप-बेटे को टिकट देना पड़ा। इससे जहां वे कांग्रेस के परिवारवाद की बातें करती थीं, खुद ही इसका शिकार हो गईं। इसके अलावा उसने अपने कई दिग्गजों को दरकिनार करते हुए बाहर से आए 14 लोगों को टिकट दिया तो उससे भाजपा की खुद की परेशानी बढ़ गईं। इस सबके अलावा एक और खास बात यह भी रही कि भाजपा उत्तराखंड में किसी एक को अपना चेहरा नहीं बना पाई। वे पूरे कैंपेन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे को ही आगे करते रही। वहीं दूसरी ओर कांग्रेस ने न तो किसी परिजन को टिकट दिया और न ही वहां सीएम के चेहरे का झगड़ा। पूरा चुनाव हरीश रावत को सामने रखकर लड़ा गया। अब खैर यह तो आने वाली 11 मार्च को ही पता चलेगा कि जनता ने किसे अपना आशीर्वाद दिया। बहरहाल अब तक जो टे्रंड उत्तराखंड के मतदाताओं का रहा उसके मुताबिक हर बार यहां सत्ता परिवर्तन हुआ। खैर बात प्रचार की करें तो भारतीय जनता पार्टी की ओर से पूरी ताकत झोंक दी गई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद चार बड़ी सभाएं कर प्रदेश की जनता से डबल इंजन की बात कही। इसके अलावा गृहमंत्री राजनाथ सिंह, पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह, केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान, जेपी नड्डा, स्मृति ईरानी, हेमा मालिनी, उप्र के सांसद योगी आदित्यनाथ सरीखे नेताओं ने पार्टी के लिए खूब पसीना बहाया। हर बार उनके निशाने पर हरीश रावत तो रहे, लेकिन पिछले चुनाव के समय जिस प्रकार से भ्रष्टाचार का मुद्दा भाजपा उठाती रही, वो नहीं उठाया गया। इसकी सबसे बड़ी वजह केदारनाथ आपदा घोटाले के समय मुख्यमंत्री रहे विजय बहुगुणा और आपदा प्रबंधन मंत्री रहे यशपाल आर्य, बीज घोटाले के आरोपी हरक रावत, उद्यान विभाग के पॉली फार्म हाउस घोटाले के आरोपी रहीं अमृता रावत भाजपा में शामिल हो गए। ऐसे में भाजपा के नेता जिनका पूरे चार साल तक भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाते रहे वही नेता भाजपा में शामिल हो गए तो फिर पार्टी के नेताओं व कार्यकर्ताओं ने इस मुद्दे को उठाना नामुमकिन था। भाजपा का परिवारवाद का नमूना देखिए उसने देहरादून जिले की दो सीटों विकासनगर और चकराता में पति-पत्नी मुन्ना चौहान और मधु चौहान को टिकट दे दिया। वहीं दूसरी ओर यशपाल आर्य और उनके बेटे संजीव आर्य को भी टिकट दे दिया। संजीव आर्य नैनीताल व यशपाल आर्य बाजपुर से चुनाव मैदान में रहे। इसके अलावा यमकेश्वर सीट से पूर्व सीएम बीसी खंडूड़ी की बेटी रितू खंडूड़ी को टिकट दे दिया। इससे भाजपा की परिवारवाद की छवि दिखाई दी। इसके अलावा कांग्रेस से आए नेता भी भाजपा के गले पड़ गए।
बार-बार हरीश रावत सवाल उठाते रहे कि जिन आरोपियों व घोटालेबाजों को कांग्रेस में तवज्जो नहीं मिली तो पाला बदलकर भाजपा में चले गए। इस दौरान सीएम हरीश रावत ने कई सभाओं में लोगों के पास जाकर कहा था कि यदि उत्तराखंड को बचाना है तो फिर दागी और बागियों को विधानसभा न पहुंचने दें। जाहिर है कि जिन कांग्रेस के बागी नेताओं के सहारे भाजपा ने वैतरणी पार लगाने के सपने देखे वही उनके लिए पूरे चुनाव के दौरान एक प्रकार से सिरदर्द बन गए। इसके अलावा भाजपा में चार-चार पूर्व मुख्यमंत्री होने के बावजूद किसी एक को सीएम के चेहरे के रूप में आगे नहीं कर पाए। इसके अलावा बहुत संभव यह भी है कि प्रदेश में पिछली बार की तरह बराबर या एक या दो सीट आगे पीछे भाजपा कांग्रेस रही तो फिर गठबंधन व निर्दलीयों के सहारे सरकार बनाना भाजपा के लिए आसान नहीं होने वाला। इसकी वजह वहां करीब एक दर्जन नेता सीएम की कतार में लगे हैं। जाहिर है कि निर्दलीय या फिर बागी नेता सभी जीतकर आते हैं तो वे अपने हिसाब से मुख्यमंत्री चाहेंगे। पार्टी को उनके आगे झुकना भाजपा की मजबूरी बन सकती है। इसकी एक वजह यह भी है कि जिन नेताओं ने पूरे जीवनभर कांग्रेस के लिए कार्य किया वे अंतिम समय में पार्टी बदल गए।
ऐसे में जब उनकी मन की नहीं होगी तो फिर वे जब कांग्रेस के नहीं हो सके तो क्या गारंटी होगी कि वे भाजपा के हो जाएंगे।
बहरहाल उत्तराखंड में जिस प्रकार से पूरा प्रचार हुआ उस दौरान एक यह भी गंभीर बात सामने आई कि नेताओं ने आरोप प्रत्यारोप तो खूब एक दूसरे पर मढ़े, लेकिन प्रदेश की मूल भावनाओं को दरकिनार कर दिया। किसी भी नेता ने यहां की मूल समस्याओं को नहीं उठाया। स्थायी राजधानी गैरसैंण, पहाड़ से पलायन को रोकने के लिए कोई ठोस नीति, स्वास्थ्य की सुविधाएं समेत तमाम मुद्दे ऐसे रहे जिन पर किसी भी दल का ध्यान नहीं गया। इससे पता चलता है कि नेताओं के दिल में पहाड़ के लिए कितना सम्मान है। खास बात यह रही कि प्रदेश में पूरे चुनाव के दौरान भाजपा और कांग्रेस एक दूसरे पर महज जवाबी हमले ही बोलते रहे। किसी भी पार्टी ने यहां की समस्याओं पर बात ही नहीं की। खैर प्रचार के बाद मतदान की बात करें तो करीब 65 प्रतिशत मतदान हुआ, जो पिछले बार की अपेक्षा करीब दो प्रतिशत कम है। इससे भी भाजपा और कांग्रेस की चिंता बढ़ गई है। हालांकि दोनों ही पार्टियां इस प्रतिशत को अपने पक्ष में बताने का प्रयास कर रही हैं।

हरदा का राजनीतिक भविष्य तय करेंगे यह चुनाव
राज्य निर्माण अब तक का रिकार्ड मतदान होने से भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के नेताओं की नींद उड़ी हुई है। दोनों ही दलों की समझ में यह नहीं आ रहा कि आखिर जनता ने किन मुद्दों पर वोट दिया। हालांकि अभी दोनों ही दल यह दावा कर रहे हैं कि उनकी ही सरकार बनेगी। अब यह तो आने वाले 11 मार्च को ही पता चलेगा, लेकिन इतना तय है कि इस बार कुछ चौंकाने वाले परिणाम जरूर आएंगे। ऐसे में अभी से दोनों ही पार्टियों ने निर्दलीयों की ओर भी देखना शुरू कर दिया है। दोनों को उम्मीद है कि जो भी सबसे बड़ी पार्टी बनेगी उसे ही मौका मिलेगा। हालांकि दोनों दलों की सरकारें राज्य बनने के सोलह साल बाद भी यहां की बुनियादी सुविधाओं को लोगों तक पहुंचाने में नाकाम रही हैं। रोजगार के साधन तो बढ़े लेकिन तराई के इलाकों में पिछले 16 सालों में उत्तराखण्ड में पहाड़ों से मैदानी इलाकों की ओर पलायन भी तेजी से बढ़ा है। उत्तराखंड के इतिहास में साल 2002 से 2007, 2007 से 2012 और अब 2012 से 2017 में हर बार मतदान का प्रतिशत बढ़ा ही है। इसके साथ ही एक रोचक तथ्य यह भी है कि मतदान प्रतिशत बढ़ने के साथ सरकार भी हर बार बदली है। इस बार के चुनाव में निर्वाचन आयोग के अनुसार 68 फीसद मतदान हुआ है। देखना यह होगा कि क्या इस बार फिर पिछले तीन चुनावों की तरह विपक्ष को बहुमत मिलता है या फिर हरीश रावत कांग्रेस सरकार बचाने में सफल रहते है। जब राज्य अलग हुआ तो उस समय यहां भाजपा के पास बहुमत था और पहले नित्यानंद स्वामी व बाद में भगत सिंह कोश्यारी कुछ समय के लिए यहां के मुख्यमंत्री बने। साल 2002 में इस नए नवेले राज्य में पहली बार विधानसभा चुनाव का बिगुल बजा और उत्तराखण्ड की जनता ने कांग्रेस को बहुमत दिया और नारायण दत्त तिवारी के नेतृत्व में कांग्रेस ने यहां पांच साल तक सरकार चलाई। वर्ष 2002 के विधानसभा चुनाव में उत्तराखंड की 54.34 फीसदी जनता ने ही अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया।
कांग्रेस की सरकार पर भ्रष्टाचार और ढेरों लाल बत्तियां बांटने का आरोप लगा। साल 2007 में विधानसभा चुनाव हुए तो उत्तराखण्ड की जनता ने कांग्रेस को बाहर का रास्ता दिखाया और भाजपा को पहाड़ी राज्य की बागडोर थमा दी। इस बार राज्य की जनता ने 63.72 फीसद मतदान किया और भुवन चंद्र खंडूरी राज्य के चौथे मुख्यमंत्री बने। खंडूरी ने दो साल तीन महीने 19 दिन तक उत्तराखण्ड पर राज किया। बाद में पार्टी की अंदरूनी राजनीति के कारण खंडूरी को हटाकर भाजपा ने रमेश पोखरियाल निशंक को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा दिया। निशंक दो साल दो महीने 14 दिन तक इस पद पर रहे। भ्रष्टाचार के आरोपों के बीच एक बार फिर निशंक को हटाकर खंडूरी को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाया गया और इस बार चुनाव तक यानि छह महीने दो दिन वे मुख्यमंत्री की कुर्सी पर रहे। साल 2012 के चुनाव में उत्तराखण्ड की जनता ने एक बार फिर सत्ता में बैठी पार्टी को बाहर का रास्ता दिखा दिया। हालांकि इस बार जनता ने किसी को भी स्पष्ट बहुमत नहीं दिया, लेकिन 66.17 फीसद जनता ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया। कांग्रेस को 32 और भाजपा को 31 सीटें मिली, जबकि सात सीटें अन्य पार्टियों और निर्दलीयों को मिली। असल में सत्ता की कुंजी इन्हीं अन्य विधयकों के पास थी और उन्होंने पीडीएफ नाम से एक संगठन बनाकर कांग्रेस को समर्थन दिया। पीडीएफ के समर्थन से कांग्रेस ने सरकार बनाई और विजय बहुगुणा साल 10 महीने 14 दिन तक राज्य के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर रहे, लेकिन केदारनाथ आपदा के समय राहत बचाव कार्य में अनियमितता क चलते उन्हें अपनी कुर्सी गंवानी पड़ी। बहुगुणा की जगह हरीश रावत को राज्य का मुख्यमंत्री बनाया गया। लेकिन उनकी सरकार भी हिचकोले खाते हुए ही चल पायी। पहले बहुगुणा पार्टी में रहकर ही उनके शासन पर सवाल उठाते रहे और बाद में कांग्रेस के अंदर बगावत हुई तो करीब एक दर्जन नेता एक साथ पार्टी छोड़कर बाहर निकल आए। बाद में इन नेताओं ने भाजपा की सदस्यता भी ले ली। यानि इस बार के चुनाव के बाद हरीश रावत का भी भविष्य तय होना है।

Related Articles

Back to top button