बापू की 10 बातें जिन्होंने उन्हें राष्ट्रपिता बनाया
अपनी जिद पर अडिग रहगर भारत को आजादी दिलाने वाले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की कुर्बानियों को कोई कभी नहीं भूल सकता। अगर वो नहीं होते तो शायद आज हम अपने घरों में आसानी से जीवन यापन नहीं कर पाते। हमारे सभी प्रकार के सुख चैन महात्मा गांधी की ही देन हैं। वह अपने जीवन में कुछ मूल दस बातों को पालन किया करते थे।आओ, गांधीजी के जन्मदिन पर जानते हैं बापू के बचपन की कुछ ऐसी बातें, जिन्होंने बापू को इतनी ताकत दी और बड़े होकर उन्होंने देश को आजाद कराया और हमने उन्हें राष्ट्रपिता माना।
एक नाटक देखकर सत्य बोलने की ठान ली
बापू का पूरा नाम तो तुम्हें मालूम ही है, मोहनदास करमचंद गांधी। बचपन में ज्यादातर लोग उन्हें मोहनदास कहते थे। मोहनदास को म्यूजिकल इंस्ट्रुंमेंट कांसेरटीना बजाने का शोक था और नाटक देखना बहुत पसंद था। लेकिन एक नाटक उनकी जिन्दगी इस तरह बदल देगा, उन्हें कहां मालूम था। उनके घर के पास एक नाटक कंपनी आई थी और नाटक देखने की उन्हें इजाजत भी मिल गई।
बापू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि हरिश्चंद्र नामक उस नाटक को देखकर वे थकते नहीं थे। बार-बार देखते। हरिश्चंद्र पर जैसी विपत्तियां पड़ीं, वैसी विपत्तियों को भोगना और सत्य का पालन करते रहना ही वास्तविक सत्य है। बापू ने मान लिया कि वैसी विपत्तियां हरिश्चंद्र पर पड़ी होंगी। उसका स्मरण करके वे काफी रोए। उनके मन पर इसका काफी गहरा असर पड़ा और बालक मोहनदास ने निश्चय कर लिया कि सत्य के लिए वह भी हरिश्चंद्र के समान सब कुछ न्योछावर कर देगा।
कर्तव्य को याद रखना
एक बार वे रेल-यात्रा कर रहे थे। रेलगाड़ी में बैठे एक व्यक्ति ने डिब्बे में ही थूक दिया। गांधीजी को यह पसंद नहीं आया, लेकिन उन्होंने कुछ कहा नहीं। कागज के टुकड़े से उस गंदगी को साफ कर दिया। उस व्यक्ति ने सोचा कि यह व्यक्ति उन्हें नीचा दिखाना चाहता है, इसलिए उसने फिर थूक दिया। गांधीजी ने फिर साफ कर दिया। यह सिलसिला पूरी यात्रा में चलता रहा। जब गाड़ी स्टेशन पर पहुंची तो लोगों की भीड़ गांधीजी की जय करते उसी डिब्बे की ओर बढ़ी, जिस डिब्बे में गांधीजी थे। थूकने वाले व्यक्ति ने देखा कि जो व्यक्ति थूक साफ कर रहा था, वही गांधी है और लोग उन्हीं की जय-जयकार कर रहे हैं। उसे काफी ग्लानि हुई और वह गांधी के चरणों में गिरकर मांफी मांगने लगा। गांधी ने उस व्यक्ति से कहा-मैंने तो केवल अपने कर्तव्य का पालन किया है। तुम्हारे साथ भी कभी ऐसी स्थिति आए तो अपने कर्तव्य को याद रखना।
श्रवणकुमार से सीखी मातृ-पितृभक्ति
बचपन में मोहनदास को श्रवण की मातृ-पितृ भक्ति की कथा जानने का अवसर मिला। उन्हें स्कूल की किताबों के अलावा कोई और किताब पसंद नहीं आती थी, लेकिन एक दिन पिताजी एक नाटक की किताब ले आए, जिसका नाम था श्रवण-पितृभक्ति नाटक। वे बड़े चाव से उस नाटक को पढ़ गए। फिर कहीं उन्हें वह तस्वीर भी दिख गई, जिसमें श्रवणकुमार अपने माता-पिता को कांवर में बैठाकर यात्रा पर ले जा रहे थे। इन दोनों बातों ने उनके बाल मन पर ऐसा असर डाला कि वे भी माता-पिता के भक्त बन गए और उनकी सेवा अधिक करने लगे।
शिक्षकों में दोष ढूंढ़ना ठीक नहीं
बात तब की है, जब गांधी जी दक्षिण अफ्रिका में थे। वहां आश्रम में बच्चों को शिक्षा भी दी जाती थी। एक दिन की बात है। विद्यार्थी गणित के शिक्षक छगनलाल भाई की आलोचना कर रहे थे। एक विद्यार्थी कह रहा था कि गणित को बापू पढ़ाते तो ही अच्छा था। वे पढ़ाते हैं तो एक ही बार में समझ में आ जाता है। उसी समय गांधी जी वहां से गुजर रहे थे। उन्होंने छात्रों की यह बात सुन ली। जब वे कक्षा में गए तो सभी विद्यार्थी सहम गए। कक्षा में बापू गंभीरतापूर्वक बोले, ‘गुरू की निन्दा करने वाला छात्र चाहे जितना भी होशियार हो, उसकी वास्तविक शिक्षा शून्य रह जाएगी। आज तुम्हें छगनलाल भाई से योग्य मैं लगता हूं, कल को गोखले महाराज मुझसे योग्य लगेंगे। तुम्हारा ध्यान केवल पढ़ाई में होना चाहिए, शिक्षकों की योग्यता-अयोग्यता को परखने में नहीं। विनम्रता से ही ज्ञान ग्रहण किया जा सकता है। विनम्र शिक्षार्थी थोड़े को भी बहुत बड़ा कर सकता है। केवल अपने दोष देखो, शिक्षकों में दोष ढूंढ़ना ठीक नहीं।
कसरत के हैं काफी लाभ
जब गांधी जी दिल्ली की हरिजन बस्ती में ठहरे हुए थे तो एक दिन पं. जवाहरलाल नेहरू उनसे मिलने वहां पहुंचे। लेकिन उस समय बापू वायसराय से मिलने गए थे। एक कोने में कूदने वाली रस्सी रखी थी। समय गुजारने के लिए नेहरू जी ने रस्सी उठाई और कूदने लगे। सामने से मनु आई तो उससे बोले, तुम्हें प्रतिदिन सुबह सौ बार रस्सी कूदनी चाहिए और दूध पी लेना चाहिए। ऐसा करने
से तुम्हें बार-बार बुखार और जुकाम नहीं होंगे।
ये बातें हो ही रही थीं कि गांधी जी आ गए। नेहरूजी के हाथ में रस्सी देखकर बापू बोले, ‘दोनों कूदने की होड़ कर रहे हो क्या?’ सब हंसने लगे। नेहरू जी बोले, रस्सीकूदने के फायदे बता रहा था’
गांधी जी ने स्वीकारोक्ति के स्वर में कहा, बिल्कुल सही बात है। इस कसरत के बहुत लाभ हैं। इससे शरीर गर्म भी रहता था और स्वास्थ भी अच्छा रहता है।’
अपना काम स्वयं करना चाहिए
एक दिन गांधी जी आश्रम में सूत कात रहे थे। तभी एक जरूरी काम आ गया और उन्हें कहीं जाना पड़ा। उन्होंने अपने सहयोगी से कहा, ‘इसके तार गिनकर एक ओर रख देना और प्रार्थना के समय से पहले मुझे बता देना।’ सहयोगी ने हामी भर दी। आश्रम के लोग शाम को अपने काते हुए सूत की संख्या बताते थे। उस दिन पहला नाम गांधी जी का पुकारा गया। वे सूतों की संख्या नहीं बता पाए, क्योंकि सहयोगी ने उन्हें नहीं बताया था। प्रार्थना की समाप्ति पर गांधी जी बहुत गंभीर थे। वे बोले, आज मैंने अपना काम किसी के भरोसे छोड़ दिया। मैंने सोचा कि वह मेरा काम कर देंगे, लेकिन मैं मोह में था। मुझे अपना काम स्वयं करना चाहिए था। मैं भविष्य में ऐसी भूल कभी नहीं करूंगा।
मन लगाकर काम करो
गांधी जी यरवदा जेल में थे। अपना काम स्वयं करते थे। उन्हें लापरवाही से काम करना पसंद नहीं था। उनके साथी शंकरलाल बैंकर भी उनके साथ थे। उन्हें यह अच्छा नहीं लगा कि गांधी जी काम करें, इसलिए उन्होंने प्रार्थना की कि उन्हें भी सेवा का अवसर दें। गांधी जी ने कहा, ‘तुम कमरे की सफाई कर लिया करो, मैं कपड़े साफ कर देता हूं।’ दो-तीन दिन बाद गांधी जी ने शंकरलाल से कहा, ‘मेरा मानना, तुम ठीक तरह से सफाई नहीं करते। यह देखो, कमरे के कोनों में कितना कचरा है! तुम कपड़े धो लिया करो, सफाई मैं कर दुंगा।’ बेचारे शंकरलाल क्या कहते, ‘कपड़े धोने लगे।’ कुछ दिनों बाद गांधी जी ने कहा, ‘शायद, तुम कपड़े ठीक तरह से नहीं धोते। साबुन ज्यादा खर्च होता है और कपड़े भी ठीक तरह से साफ नहीं होते। अब मैं सारा काम स्वयं किया करूंगा।’ शंकरलाल ने एक बात गांठ बांध ली कि कोई भी काम पूरा मन लगाकर करना चाहिए।
दुरुपयोग पसंद नहीं
एक बार सेवाग्राम आश्रम में बापू के जन्मदिन के अवसर पर उनकी पत्नी कस्तूरबा गांधी ने घी का दीया जला दिया। इस अवसर पर आश्रमवासियों के साथ-साथ काफी संख्या में आसपास के गांव के लोग जुटे हुए थे। सब इस इंतजार में थे कि बापू कुछ बोलेंगे, लेकिन बापू चुप बैठे दीये को ध्यान से देख रहे थे। फिर थोड़ी देर बाद बोले अड़ोस-पड़ोस में मैं रोज अनगिनत गरीब लोगों को देखता हूं। उनके पास खाने का टुकड़ा तक नहीं होता और यहां आश्रम में घी से भरा दीया जलाया जाता है’। आज अगर मेरा जन्मदिन है तो क्या हुआ? इस दिन अच्छे कार्य करने चाहिए। हमें ऐसी किसी भी वस्तु का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए, जिसके लिए देश के गरीब किसान संघर्ष करते रह जाते हैं।’
चालीस करोड़ है भाई-बहन
एक बार गांधी जी एक स्कूल में गए। उन दिनों वे केवल लंगोटी पहनते थे। एक बच्चे ने उन्हें देखकर कुछ पूछना चाहा, लेकिन उसके शिक्षक ने उसे चुप करा दिया। गांधी जी ने शिक्षक को ऐसा करते देख लिया। वे उस लड़के के पास पहुंचे और पूछा, ‘कुछ कहना चाहते तुम’ बच्चों ने कहा, आपने कुरता क्यों नहीं पहना? मैं अपनी मम्मी से आपके लिए कुरता सिलवा दूंगा। आप पहनेंगे ना।’ बापू ने कहा, ‘जरूर पहनूंगा बेटे, लेकिन मैं अकेला नहीं हूं।’ बच्चे ने फिर कहा, ‘तो मैं दो कुरते सिलवा दुंगा। बापू ने कहा, ‘अरे नहीं, मेरे चालीस करोड़ भाई-बहन हैं। क्या इतने कुरते सिल सकती हैं तुम्हारी मां’ दरअसल उस समय अपने देश की आबादी ४० करोड़ थी। गांधी जी बच्चों की पीठ थपथपाकर आगे बढ़ गए।
सच्च आभूषण है त्याग
केरल यात्रा के दौरान एक सभा में गांधीजी दान ग्रहण कर रहे थे। दान में प्राप्त वस्तुओं को वहीं पर नीलाम कर दिया जाता था। नीलामी चल रही थी। इसी बीच एक १६ वर्ष की बच्ची कौमुदी गांधीजी के पास पहुंची और अपनी एक चूड़ी उतारकर गांधीजी को देते हुए बोली, ‘क्या, आप मुझे हस्ताक्षर देंगे।’ बापू हस्ताक्षर करने लगे तभी उसने दूसरी चूड़ी भी उतार दी। बापू बोले, ‘चूड़ी की जरूरत नहीं, मैं एक चूड़ी में ही हस्ताक्षर देता हूं।’ लेकिन उनकी बात की ओर ध्यान न दे रही उस लड़की ने गले का स्वर्णहार और अपने अन्य आभूषण भी उतारकर बापू के हाथ पर रख दिए। बापू ने पूछा, ‘तुमने अपने माता-पिता से इसकी अनुमति ली थी।’ कौमुदी कुछ कहती, इसके पहले ही किसी ने बापू को बताया कि वस्तुओं की नीलामी करने वाला इसका पिता ही तो है, जो आपकी सहायता कर रहा है। गांधीजी ने अपने हस्ताक्षर के बाद लिखा, ‘इन आभूषणों की अपेक्षा तेरा त्याग ही सच्चा आभूषण है।’