बिना मुंडेर की छत पर जीने की उद्दाम आकांक्षा
पुस्तक समीक्षा- कुमार मंगलम
हिंदी का प्रकाशन जगत अब बदल रहा है ’ इन प्रकाशकों पर बेस्ट सेलर्स का इतना दबाव है कि उसके चक्कर में ये चलताऊ ढंग के पुस्तकों के प्रचार में लगे हैं ’ जब पुस्तकों की विज्ञप्ति हमें निराश करती है तो लेखक के साथ-साथ प्रकाशक की विश्वसनीयता पर संदेह होने लगता है ’ विश्व पुस्तक मेला 2017 में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित शाजी ज़मां का उपन्यास ‘अकबर’, वाणी से प्रकाशित ‘पतनशील पत्नियों के नोट्स’ और अंतिका से प्रकाशित ‘सोनम गुप्ता बेवफा नहीं है’ किताबोंका शोर कुछ ज्यादा ही था लेकिन इन्हें पढ़ने के बाद गहरी निराशा के अलावा हाथ कुछ नहीं आता ’ जबकि इसी पुस्तक मेले में राजकमल से प्रकाशित लगभग 10-12 काव्य संग्रह पूरे समकालीन कविता परिदृश्य को बदलने का माद्दा रखती हैं ’जब इन काव्य संग्रहों से गुजरता हूँ तो राजकमल प्रकाशन अब सिर्फ प्रकाशन नहीं हिंदी साहित्य के प्रकाशकों का सिंडिकेट के विज्ञापन नीति और समझ पर रोना आता है ’ प्रकाशक यह रोना रो सकते हैं कि लोग कविताएँ नहीं पढ़ते लेकिन व्यक्तिगत अनुभवों से कह सकता हूँ कि अब भी हिंदी के गंभीर पाठक बिना हो हल्ला के चुपचाप पढ़ रहें हैं ’ इसी सिलसिले में हिंदी के बेस्ट सेलर्स प्रकाशक(हिन्द युग्म इत्यादि)जो बाज़ार के नए तरीकों से पुस्तकों का प्रचार कर रहें हैं उन पुस्तकों में लुगदी साहित्य का छौंक ही दिखता है ’ आज भी असल में हिंदी का बेस्ट सेलर ‘गुनाहों का देवता’, ‘रागदरबारी’, ‘मुझे चाँद चाहिए’, ‘कुमारजीव’, ‘साये में धूप’, वह भी कोई देश है महाराज’ आदि किताबें ही हैं ’
राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित 10-12 संग्रहों में आर. चेतनक्रांति, दिनेश कुशवाहा, प्रेम रंजन अनिमेष, राकेश रंजन इत्यादि कवियों के संग्रह हैं’ यह हिंदी के नवागत कवि नहीं हैं ’ इन कवियों की कविताओं का रंग अब पक गया है’ असल में समकालीन हिंदी कविता विविधतावादी रही है, इसका कोई मूल स्वर नहीं रहा है’ अपने वैविध्यपूर्ण स्वरों से इसने कविता के रक़बे को बढ़ाया है’ इन संग्रहों में कवियों का स्वर प्रौढ़ हुआ है’ इन संग्रहों में समकालीन हिंदी कविता के परिदृश्य और मुहावरों को बदलने का माद्दा है ’ ऐसे में प्रेम रंजन अनिमेष का यह पाँचवा संग्रह ‘बिना मुंडेर की छत’ उल्लेखनीय है ’ प्रेम रंजन अनिमेष के इस संग्रह को पढ़ते हुए हिंदी की पारम्परिकता और इसके धरातल पर अभिव्यक्त आधुनिकता को रेखांकित किया जा सकता है’ ये कविताएँ समकालीन हिंदी कविता के पाठकों को नयी काव्यात्मक ऊर्जा, नयेपन के आस्वाद के साथ-साथ आज की कविता को दिशा प्रदान तो करती है साथ में आने वाली पीढ़ी के लिए एक चुनौती भी देती है ’ भाषा की अनूठी भंगिमा, शिल्प में लोक की जड़ों में जीवित जीने की उद्दाम आकांक्षा, रोजमर्रा के उद्दात संघर्ष और लोकभाव को फिर-फिर सिरजते हैं’ इन कविताओं के बारे में पुस्तक में सच ही लिखा गया है कि प्रेम के लिए कविताएँ‘लोक-बिम्ब-काव्य प्रविधि मात्र नहीं हैं, वे वैकल्पिक जीवन-दृष्टि के संवाहक हैं’’
प्रेम रंजन अनिमेष की कविताओं में कुछ ऐसी बातें हैं, जो उन्हें अपनी पीढ़ी से एकदम पृथक व्यक्तित्व प्रदान करती है ’ इनकी कविताओं में विन्यस्त उम्मीद और जिजीविषा के स्वर प्रमुख हैं ’ ‘निब’ कविता में वे लिखते हैं-“शिराओं में जब तक रक्त आँखों में नमी/रोशनाई सूखेगी नहीं/कागज कभी ख़त्म नहीं होगा/जब तक पेड़ हैं धरती पर और उनमें पत्ते ’” प्रेम रंजन अनिमेष की कविताओं में गाँव बहुत गहरे पैठा हुआ है’ उसकी स्मृतियाँ नौस्टैल्जिया नहीं हैं’ आज शहर की ओर भागती युवा पीढ़ी के लिए एक बेबस बाप की हूक है जिसे वे ‘एक किसान की शहर में रहनेवाले बेटे के लिए वसीयत’ में लिखते हैं- “पुआल का बिस्तर/छोड़ रहा हूँ तुम्हारे लिए/देह भर उसकी गरमाहट और चुनचुनी/और तलवों में/ गुदगुदी ओस की…/एकअलाव की तरह जलने की/अंतिम इच्छा/छोड़ता तुम्हारे लिए/और सवेरे के चाँद की तरह/उसकी बुझी राख में/कुछ सोंधे पके आलू/और कोई चिनगारी/प्रतीक्षा करती आँखों की कौंध सी…” हिंदी कविता में वसीयत शीर्षक से बहुत कम कविताएँ लिखी गयी हैं ’ समकालीन कविता के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर श्रीप्रकाश शुक्ल की कविता है वसीयत जिसमें वे कहते हैं-“मेरी कविताएँ ही मेरी वसीयत हैं ’” लेकिन प्रेम इस कविता में आगे बढ़ जाते हैं ’ यह वसीयत एक बाप की है, जो अपने अगली पीढ़ी को अपनी परम्परा देना चाहता है ’ प्रेम अपनी कविता में अनछुए विषयों को भी उठाते हैंऔर पारंपरिक बिम्बों को भी, लेकिन उनमें उनका नयापन बोलता है ’ नए का यह आग्रह ‘भवें’ शीर्षक कविता में वे भवों पर कविता तो लिखते हैं पर उसमें समय की कैसी आलोचना करते हैं, उदाहरण द्रष्टव्यहै-“आधुनिकता की खूबी/वह अभावों को भी/संभ्रांत आदतें सौंपती”
‘रिक्शे पर हँसी’ शीर्षक कविता में उन्होंने स्त्री मन की संवेदना और आज की आधुनिक स्त्री का जो बिम्ब खीचा है, वो अलहदा और महत्वपूर्ण है- ‘यहहरी हँसी है हारी हुई नहीं/शायद वे एक दूसरे के प्रेम के बारे में पूछकर लगा रहीं ठहाके/प्रेम को निरीह बोलकर अदना बताकर छौना बुलाकर/किलकतीं कि आज तक प्यार को इतना प्यारा नाम किसी ने नहीं दिया”
अंत में इन कविताओं से गुजरते हुए यह कहा जा सकता है कि इनकी कविताओं में छंदों की वापसी हुई है ’ प्रेम की गद्य कविता भी छंदों की लय में चलती है ’प्रेम ने छंदों को बंधनों में जकड़ कर नहीं उसके उन्मुक्तता में एक नयी भंगिमा के साथ अवतरित किया है ’प्रेम रंजन अनिमेष की ये कविताएँ किसी भी उपलब्धि की तरह आपके साथ रहेंगी ’
(लेखक गुजरात केन्द्रीय विवि. में शोध छात्र हैं।)