ब्राण्ड-मोदी की प्रचण्ड विजय में खतरे के संकेत भी
नवीन जोशी
उत्तराखण्ड और उत्तर प्रदेश में भाजपा की प्रचण्ड जीत बताती है कि नरेंद्र मोदी का जादू जनता के सिर चढ़कर बोला है। वे कुशल मदारी या बाबाओं की तरह हमारे अधकचरे लोकतंत्र के लोक को सम्मोहित करने में खूब कामयाब हुए हैं। इस सम्मोहन की पोल खोलने या उन्हें चुनौती देने की स्थिति में फिलहाल कोई नेता दिखाई नहीं देता। मणिपुर और गोवा में कांग्रेस के बड़ी पार्टी बनने के बावजूद उसे सरकार बनाने का पहला न्योता न देकर सत्ता पर भाजपाई कब्जा कतई शुभ संकेत नहीं।
उत्तर प्रदेश में मण्डल-वाद की राजनीति में सपा और बसपा का उदय हुआ था। सपा ने समाजवाद के नाम पर कतिपय पिछड़ी जातियों को राजनैतिक-सामाजिक ताकत दी तो बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद मुसलमानों के संरक्षण के बहाने ताकतवर राजनैतिक विकल्प बनाया। बसपा ने दलित और अतिशय पिछड़ी जातियों के राजनैतिक सशक्तीकरण का जरूरी काम किया, लेकिन इन्हीं जातीय गोलबंदियों में घिरे रहना, इन्हें वोट-बैंक की तरह इस्तेमाल करना और वास्तविक विकास की उपेक्षा करना इन दोनों दलों की कमजोरी भी बना। इसी कमजोरी को मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा ने बड़ी चालाकी से अपनी ताकत में बदला।
मुसलमानों को किसी भी कीमत में खुश रख कर उनके वोट हथियाने की बसपा और खासकर सपा की कोशिशों एवं तथाकथित मुस्लिम नेताओं की सौदेबाजी से उपजे ‘तुष्टीकरण-असंतोष’ को भाजपा ने अपने हिंदू और राष्ट्रवादी एजेण्डे से खूब हवा दी। संघ के प्रचारक से गुजरात के मुख्यमंत्री और फिर आडवाणी जैसे दिग्गजों को किनारे कर भाजपा पर कब्जा कर लेने वाले नरेंद्र मोदी का तेजी से उभार कट्टर हिंदू राष्ट्रवाद की लहरों पर ही हुआ। इसी का नतीजा है कि लोक सभा चुनाव और हाल के विधान सभा चुनावों में हिदू मतों का ध्रुवीकरण हुआ।
उधर, दलित सशक्तीकरण की राजनीति से आगे विकास की मुख्य धारा में आने की उम्मीद पाल रही दलितों की नई पीढ़ी मायावती की राजनैतिक गुलाम बनी रहने को तैयार न थी, इसीलिए गैर-यादव पिछड़ी जातियों और गैर जाटव दलित जातियों के वोटों के लिए चतुर व्यूह रचना भाजपा ने तैयार की, जिसमें बिहार में हुई भूलें सुधार दी गईं। गरीब जनता की भावनाओं को समझते हुए नरेंद्र मोदी ने काले धन और भ्रष्टाचार के खिलाफ ‘निर्णायक युद्ध’ का ऐलान किया। अपने को ‘चाय बेचने वाले’ और ‘पिछड़ी’ जाति के गरीब परिवार का बेटा बताने वाले प्रधानमंत्री के भ्रष्ट अमीरों के खिलाग जंग के ऐलान ने इंदिरा गांधी के ‘गरीबी हटाओ’ नारे की तरह गरीब-गुरबों पर जादू किया, जो नोटबन्दी गरीबों के लिए कष्टकारी और बेरोजगारी लाने वाली बनी, आम जनता उसे नरेंद्र मोदी के जादू में काले धन के खिलाफ युद्ध में आवश्यक आहुति मान रही थी। ऊपर से उनके आक्रामक और नाटकीय भाषण एक सम्मोहन रच रहे थे। मीडिया अपनी जिम्मेदारी भूल कर मोदी के फुलाए गुब्बारे में हवा भर रहा था। विपक्ष में ऐसा कोई प्रभावशाली, विश्वसनीय नेता नहीं था जो इस गुब्बारे की हवा निकाल सके। ऐसे में पिटे हुए नेताओं की मोदी की निंदा-आलोचना ने उनकी लोकप्रियता ही बढ़ाई।
अब उत्तर प्रदेश की 403 में 325 और उत्तराखण्ड की 70 में 57 सीटें जिताने वाले मोदी देश के ‘अजेय’ और ‘आजादी के बाद के सबसे बड़े नेता’ माने जा रहे हैं। वास्तव में भाजपा की यह जीत जितनी सत्तारूढ़ पार्टियों और उनके मुख्यमंत्रियों की विफलता का नतीजा है उतनी ही मोदी के मायाजाल और भाजपा के उग्र राष्ट्रवाद की। नरेंद्र मोदी का उदय ऐसे समय में हुआ है जब देश के राजनैतिक मंच पर प्रभावशाली नेताओं का अकाल हो गया है। नेहरू-गांधी परिवार पर आश्रित कांग्रेस सोनिया गांधी की सीमित आभा और अपरिपक्व राहुल की नादानियों (या बेवकूफियों) से सिमट रही है। यूपीए के दस साल के शासन के भ्रष्टाचार और निष्क्रिय एवं मौन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कारण राजनैतिक निर्वात पैदा हो गया था। वामपंथी पार्टियां अपने ही अंतर्विरोधों से चुक गईं और क्षेत्रीय दलों के अहंवादी, बूढ़े क्षत्रप एक संयुक्त विकल्प बनाने की स्थिति में नहीं हैं।
ऐसे में आर एस एस पोषित नरेंद्र मोदी का राष्ट्रीय अवतार हुआ। उनकी पीआर टीम ने हर तरह के मीडिया के जरिए मोदी की जो पराक्रमी छवि तैयार की उसने देश के राजनैतिक निर्वात को तेजी से भरना शुरू किया। ‘सत्तर साल की नाकामयाबियों’ एवं ‘परिवारवाद और भ्रष्टाचार’ को जड़ से मिटाने तथा ‘देश को बदल डालने’ के नारे के साथ कट्टर हिंदू राष्ट्रवादी एजेण्डे ने विंध्य पर्वत माला के पार दक्षिण और सुदूर उत्तर-पूर्व भारत तक भाजपा का झण्डा पहुंचा दिया। दिल्ली और बिहार विधान सभाओं ने इस अभियान पर तनिक विराम लगाया था। अब उत्तराखण्ड और उत्तर प्रदेश में उसने और भी आक्रामकता के साथ ब्राण्ड मोदी को स्थापित कर दिया है।
आज देश में विपक्षहीनता की स्थिति बन रही है। कांग्रेस का सिकुड़ना और क्षेत्रीय दलों का हाशिए पर जाना कतई अच्छा नहीं। भाजपा में भी मोदी ने अपने आस-पास किसी नेता को उभरने नहीं दिया है। 2014 से लेकर 2017 तक उनकी निजी जीत के रूप में पेश किए जा रहे हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, संस्थानों की स्वायत्तता, बहुलतावाद और समाज के इंद्रधनुषी ताने-बाने पर इतना खतरा पहले कभी नहीं था। तर्कवादियों की हत्या से लेकर गोहत्या-निषेध के नाम पर देश भर में पिछले साल जो हुआ वह प्रवृत्ति क्या अब और नहीं बढ़ेगी? विहिप, बजरंग दल, गोसेवक समितियों जैसे अपने सहयोगी संगठनों के निरंकुश कार्यकर्ताओं पर भाजपा स्वाभाविक ही नियंत्रण नहीं रख पाएगी। एक बड़ी असहमत आबादी भय में रहेगी। लोकसभा में भारी बहुमत वाली मोदी सरकार को अगले साल तक राज्य सभा में भी बहुमत हासिल हो जाएगा। तब सरकार की मनमानियां भी रोकी नहीं जा सकेंगी।
यह स्थिति लोकतंत्र के लिए अच्छी नहीं। मोदी के भाषणों के ‘मैं’ और ‘मेरी सरकार’ से वैसे भी अहम की गंध आती है। गोया वे मंत्रिपरिषद के सामूहिक उत्तरदायित्व को नकारना चाहते हैं। 1971 में इंदिरा गांधी ने ऐसी ही राजनैतिक ताकत पाई थी जो प्रतिरोध और चुनौती मिलने पर 1975 में तानाशाह और हिंसक हो उठी थीं। आपातकाल और संविधान का निलम्बन इसी अहम की देन था। विखरे विपक्ष को और ब्राण्ड-मोदी की ‘अजेयता’ से खुश होने वालों को भी इस खतरे पर जरूर ध्यान देना चाहिए। ’