अद्धयात्म

भक्ति में रखेंगे इन बातों का ध्यान तो हर कामना पूर्ण करेंगे भगवान

दस्तक टाइम्स एजेन्सी/ krishna-1446718758 (1)भक्ति शब्द भज धातु से बना है। इसका अर्थ सेवा करना है। भज भजन अर्थात् आराधना के अर्थ में भी है। जब भक्त सेवा या आराधना के द्वारा भगवान से साक्षात संबंध स्थापित कर लेता है तो इसे ही गीता में भक्तियोग कहा गया है। 
नारद के अनुसार भगवान के प्रति उत्कट प्रेम ही भक्ति है। शांडिल्य के अनुसार परमात्मा की सर्वोच्च अभिलाषा ही भक्ति है। नारद के अनुसार भगवान के प्रति उत्कट प्रेम होने पर भक्त भगवान के रंग में ही रंग जाते हैं। वह प्रेम में इतना मदमस्त हो जाता है कि उसे भगवान के अतिरिक्त कुछ दिखाई ही नहीं पड़ता है। 
भगवान के प्रति उसका अनुराग इतना तीव्रतम होता है कि उसे यत्र-तत्र-सर्वत्र भगवान ही नजर आते हैं। भक्ति से भक्त अपने आपको परमात्मा में विलीन कर लेता है। परमात्मा के सिवा उसे कुछ भी दिखाई नहीं देता है। 
स्वयं भगवान कहते हैं- मैं न तो योगियों के हृदय में वास करता हूं और न ही स्वर्ग में रहता हूं अपितु मैं वहीं रहता हूं जहां मेरे भक्त मेरा गुणगान करते हैं। इसीलिए रामानुज जैसे आचार्य भक्तियोग को ही श्रेष्ठ मानते हैं।  
उनके अनुसार गीता का उपक्रम और उपसंहार अर्थात् आदि और अन्त दोनों ही भक्ति योग है। अत: गीता का एकमात्र श्रेष्ठ मार्ग भक्ति योग ही है ऐसा रामानुज मानते हैं। अत: गीता का मुख्य तात्पर्य भक्त का भगवान की शरण में चले जाना है। 
गीता में भगवान के उपदेश का प्रारम्भ तब होता है जब अर्जुन भगवान से कहते हैं, मैं मोह में आकंठ डूब गया हूं, मेरा मन भ्रम के भंवर में जकड़ गया है और मुझे अपने हित का आभास नहीं हो रहा है। आप मेरे बन्धु, गुरु, सखा और सर्वस्व इष्ट देव हैं। मुझे शिक्षा दें, मैं आपकी शरण में हूं।
गीता में दो प्रकार की भक्ति का उल्लेेख है- निर्गुण भक्ति एवं सगुण भक्ति। निर्गुण भक्ति में निर्विशेष ब्रह्म का ध्यान किया जाता है जबकि सगुण भक्ति में भक्त अपनी सम्पूर्ण शक्ति का नियोजन ईश्वर की सेवा में करता है।  
यहां पर अर्जुन कृष्ण से प्रश्न करते हैं कि इन दोनों भक्तियों में कौनसी भक्ति श्रेष्ठ है? भगवद् गीता के द्वितीय अध्याय में बताया गया है कि जीव भौतिक शरीर नहीं है, वह परमसत्य परमपूर्ण है। सातवें अध्याय में उन्होंने जीव को परमपूर्ण का अंश बताते हुए पूर्ण पर ध्यान लगाने की सलाह दी है।  
पुन: आठवें अध्याय में कहा है कि जो मनुष्य भौतिक शरीर का त्याग करते समय कृष्ण का ध्यान करता है वह कृष्ण के धाम तक पहुंच जाता है। छठे अध्याय के अंत में भगवान स्पष्ट कहते हैं कि योगियों में जो भी अपने अन्त:करण से कृष्ण का निरन्तर चिन्तन करता है वही परमसिद्धि को प्राप्त करता है। सार यही है कि मनुष्य कृष्ण के सगुण रूप के प्रति अनुरक्त होकर चरम आनंद प्राप्त करे। 
मनुष्य जब तक किसी ध्येय या  वस्तु के प्रति श्रद्धानिष्ठ नहीं होगा तब तक सफल नहीं हो सकता। यही बात गीता के परम शुभ तत्त्व आत्मसिद्धि, आत्मलाभ या आत्मसाक्षात्कार के विषय में भी लागू होती है। इसी प्रकार जब तक हम ईश्वर के प्रति श्रद्धावान नहीं होंगे तब तक उसमें हमारी निष्ठा नहीं हो सकती।
परमपिता की भक्ति भी परमपिता के प्रति श्रद्धा या आस्था से ही हो सकती है। यह भी कहा जा सकता है कि श्रद्धा साधन है तो भक्ति साध्य है। भागवत में कहा गया है, सत्वं विशुद्धं वसुदेव – शब्दितम् अर्थात् जब व्यक्ति सतोगुणी होता है तो वह वासुदेव की पूजा करता है। 
तात्पर्य यह है कि जो लोग गुणों से पूर्णतया शुद्ध हो चुके हैं और दिव्य पद को प्राप्त होते हैं वे ही भगवान की पूजा कर सकते हैं तथा सर्वसिद्धि प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन जो श्रद्धा के बिना यज्ञ, दान, तप आदि करते हैं वह नश्वर हैं और इस जन्म तथा अगले जन्म दोनों को ही व्यर्थ करते हैं। 
जैसे भक्त के लिए सबसे प्रिय भगवान होते हैं, वह सर्वात्मना भगवान का ध्यान एवं पूजा करता है वैसे ही भगवान के लिए भक्त भी प्रिय होता है। जो द्वेष नहीं करता, सभी जीवों का दयालु मित्र है, जो अपने को स्वामी नहीं मानता और मिथ्या अहंकार से मुक्त है, जो सुख-दुख में समभाव रहता है, सहिष्णु है, सदैव आत्मतुष्ट रहता है, आत्मसंयमी है वही भक्त भगवान के लिए अत्यन्त प्रिय है।
भगवान का भजन, अर्चना, उपासना, ध्यान आदि करना ही भगवान की भक्ति है। भक्त भगवान के सगुण रूप में ही अनुरक्त रहता है, निर्गुण रूप में नहीं। वह साकार ईश्वर की उपासना करता है, निराकार की नहीं। भगवान असीम तथा भक्त सीमित है। 
जब भक्त अपना सब कुछ भगवान के प्रति अर्पित कर देता है तो वह अपूर्ण का पूर्ण के प्रति अथवा ससीम का असीम के प्रति समर्पण कहलाता है। भक्ति योग का तात्पर्य है अनन्यता, परमपूज्य परमात्मा के अतिरिक्त किसी दूसरे का भाव मन में न लाना ही अनन्य भाव कहलाता है। गीता में कहा गया है कि अनन्य भाव से ही परमात्मा की प्राप्ति होती है। 
जिस परमात्मा के अन्तर्गत सर्वभूत है और जिस सच्चिदानन्दधन परमात्मा से यह समस्त जगत परिपूर्ण है, वह सनातन, अव्यक्त परमपुरूष तो अनन्य भक्ति से ही प्राप्त होने योग्य है। 
 

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