भगोरिया में चुनावी पॉलिटिक्स के ढोल बजा रहे हैं सियासत के खिलाड़ी
पश्चिम मध्य प्रदेश में आदिवासियों के उल्लास और उमंग के पर्व का आगाज भगोरिया अंचल में 14 मार्च से शुरू हो गया है.एक सप्ताह तक चलने वाला यह भगोरिया उत्सव होलिका दहन के साथ ही 20 मार्च को समाप्त होगा. इस बार लोकसभा चुनाव होने से मेले में सियासत भी हावी हो रही है.
झाबुआ और अलीराजपुर जिले में कुल 58 भगोरिया मेले एक सप्ताह तक लगेंगे. तहसील मुख्यालयों के बड़े भगोरिया मेलों मे सियासतदान भी इस भीड़ को अपना वोट बैंक मानते हुए पहुंच रहे हैं. वे ढोल – नगाड़ों के साथ राजनीतिक गेर (रैली) निकालते हैं और खुद को आदिवासियों के सबसे करीबी जताने की कवायद करते हैं.
कांग्रेस और बीजेपी दोनों दलों के नेता इन भगोरिया मेलों मे शामिल होते हैं और गेर निकालते हैं. चूंकि इस बार लोकसभा चुनाव हैं और पश्चिम मध्य प्रदेश मे 19 मई को मतदान का ऐलान हो चुका है. लिहाजा राजनीतिज्ञ इन मेलों मे जुटी आदिवासियों की भीड़ को अपने वोट बैंक में बदलने की कवायद में जुट गए हैं. वालपुर में कांग्रेस सांसद और आदिवासी नेता कांतिलाल भूरिया इसमें शामिल हुए.
यूं तो भगोरिया मेले झाबुआ – अलीराजपुर के अलावा धार, बड़वानी, खरगोन और रतलाम ग्रामीण में भी होते हैं लेकिन मुख्य तौर पर झाबुआ और अलीराजपुर के मेले देश-विदेश में चर्चित हैं. झाबुआ का राणापुर और अलीराजपुर का वालपुर एवं बखतगढ़ मेला काफी लोकप्रिय है.
अभी तक भगोरिया मेले का मतलब बाहरी दुनिया आदिवासियों का वेलेंटाइन वीक मानती आई है. इसमें यह धारणा चर्चित रही है कि भगोरिया मेला नाम ही इसलिए पड़ा है क्योंकि आदिवासी युवक और युवतियां मेले में सज-धजकर आते हैं. फिर एक दूसरे को पसंद आने पर पान का बीड़ा लड़का, लड़की को देता है. यदि वह पान स्वीकार कर उसे खा लेती है तो माना जाता है कि वह उसे पसंद करती है. फिर लड़का उसे लेकर भाग जाता है. इसी भागने को भगोरिया कहते हैं. बाद में समाज के लोग दोनों को बुलाकर आदिवासी रीति-रिवाज के अनुसार शादी करवा देते हैं. कुछ लोग इसे आदिवासियों का कार्निवल भी कहते है.