भाजपा का विजय रथ रोकने की तैयारी
कहा जाता है कि देश में सरकार बनाने का रास्ता उत्तर प्रदेश से ही होकर जाता है। यही वजह है कि देश को अब तक सबसे ज्यादा प्रधानमंत्री भी इसी प्रदेश ने दिए हैं। साल 2014 में गुजरात प्रांत का होने के बावजूद नरेन्द्र मोदी ने उप्र की वाराणसी सीट से चुनावी ताल ठोंकी और फिर ऐसी ‘मोदी लहर’ चली कि भाजपा ने अपने सहयोगियों के साथ उप्र की 80 लोकसभा सीटों में से 73 पर कब्जा जमाते हुए केन्द्र में सरकार बनायी। अपने जन्म के बाद पहली बार साल 2014 में ही भाजपा ने केन्द्र में अपने दम पर पूर्ण बहुमत हासिल किया था। उप्र में भाजपा की इस प्रचण्ड जीत में जहां बहुजन समाज पार्टी के सामने अस्तित्व का संकट पैदा किया तो वहीं कांग्रेस और समाजवादी पार्टी को अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करने को बाध्य कर दिया। अब नरेन्द्र मोदी सरकार का कार्यकाल पूरा होने को है और लोकसभा चुनाव की फिर से रणभेरी बजने वाली है। ठीक इससे पहले ढाई दशक बाद एक बार फिर बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी के बीच गठबन्धन पर सहमति बन गयी है। दोनों के बीच यह भी तय हो गया है कि कौन कितनी सीटों पर लड़ेगा। इस गठबंधन में फिलहाल कांग्रेस को जगह नहीं मिली है। लोकसभा चुनाव के परिणाम भले ही कुछ आयें लेकिन इस गठबंधन ने भाजपा की पेशानी पर बल तो डाल ही दिया है। अब से पहले साल 1993 में तत्कालीन सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव और बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम के बीच गठबंधन हुआ था। मंदिर आन्दोलन की तेज हवाओं के बावजूद इस गठबंधन ने उप्र में सत्ता में काबिज हुई। 1993 में राम मंदिर आंदोलन पर सवार भाजपा को हराने वाली मुलायम-कांशीराम की जोड़ी की तरह मोदी लहर पर सवार पार्टी को हराने के लिए अखिलेश-मायावती की जोड़ी बन रही है।
हालांकि 1993 का राजनैतिक परिदृश्य अलग था और 2019 का अलग। यही वजह है कि माया-अखिलेश वाले इस गठबंधन के लिए 25 साल पहले जैसे नतीजे दोहराना बड़ी चुनौती माना जा रहा है। अखिलेश यादव और मायावती कांग्रेस को अलग रखकर सूबे में गठबंधन किया है। हालांकि यह भी ऐलान किया गया है कि अमेठी और रायबरेली सीट पर गठबंधन अपने उम्मीदवार नहीं उतारेगा और दोनों 38-38 सीटों पर चुनावी ताल ठोकेंगे। दो और सीटें अभी खाली रखी गयीं हैं। माना जा रहा है कि जिस तरह कांग्रेस के मां-बेटे के लिए सीट छोड़ी गयी है वैसे ही दो सीटें राष्ट्रीय लोकदल के नेता एवं पिता-पुत्र चौधरी अजित सिंह और जयंत चौधरी के लिए छोड़ी गयी हैं। राजनीति के जानकारों का साफ मानना है कि सपा-बसपा के गठबंधन के बाद भाजपा के लिए सूबे की राह आसान नहीं होगी। हालांकि अब से 25 साल पहले जब सपा-बसपा ने हाथ मिलाया था तब कमण्डल की राजनीति के जवाब में मण्डल राजनीति सामने आयी थी। मण्डल के कारण ही देश के पिछड़ों को एक छतरी के नीचे लाकर खड़ा कर दिया था। तब मुलायम सिंह यादव ओबीसी के बड़े नेता बनकर उभरे थे और राम मंदिर आंदोलन के चलते मुस्लिम मतदाता भी उनके साथ एकजुट था। इसके अलावा कांशीराम भी दलित और ओबीसी जातियों के नेता बनकर उभरे थे। ऐसे में जब दोनों ने हाथ मिलाया तो सामाजिक न्याय की उम्मीद जगी थी।
यही वजह थी कि विवादित ढांचा विध्वंस के बाद भी भाजपा सत्ता में वापसी नहीं कर पाई थी। तब उत्तर प्रदेश की 422 विधानसभा सीटों के लिए चुनाव हुए थे। इनमें बसपा और सपा ने गठबंधन करके चुनाव लड़ा था। दोनों ने संयुक्त रूप से 420 सीटों पर अपने-अपने प्रत्याशी उतारे थे। दोनों दलों ने इन चुनावों में 176 सीटों पर जीत दर्ज की थी। इनमें बसपा ने 164 प्रत्याशी उतारे थे, जिनमें से 67 प्रत्याशी जीते थे। वहीं सपा ने इन चुनावों में अपने 256 प्रत्याशी उतारे थे। इनमें से उसके 109 प्रत्याशी जीते थे। हालांकि यह गठबंधन 1995 में टूट गया, जिसके बाद खासतौर पर यादव और दलितों के बीच एक तरह से दुश्मनी सी हो गयी थी। उप्र के जातिगत आंकड़ों पर नजर डाली जाये तो भविष्य में कैसी तस्वीर बनने वाली है। उप्र में 22 फीसदी दलित वोटर हैं, जिनमें 14 फीसदी जाटव और चमार शामिल हैं। ये बसपा का सबसे मजबूत वोट है। जबकि बाकी 8 फीसदी दलित मतदाताओं में पासी, धोबी, खटीक मुसहर, कोली, वाल्मीकि, गोंड, खरवार सहित 60 जातियां हैं। वहीं, 45 फीसदी के करीब ओबीसी मतदाता हैं। इनमें यादव 10 फीसदी, कुर्मी 5 फीसदी, मौर्य 5 फीसदी, लोधी 4 फीसदी और जाट 2 फीसदी हैं। बाकी 19 फीसदी में गुर्जर, राजभर, बिंद, बियार, मल्लाह, निषाद, चौरसिया, प्रजापति, लोहार, कहार, कुम्हार सहित 100 से ज्यादा उपजातियां हैं। 19 फीसदी के करीब मुस्लिम हैं। हालांकि 2014 और 2017 के विधानसभा चुनाव में गैर यादव ओबीसी और गैर जाटव दलितों को भाजपा अपने साथ मिलाने में कामयाब रही थी। यही वजह थी कि पहले लोकसभा और फिर विधानसभा में भाजपा के सामने सपा-बसपा कुछ खास प्रदर्शन नहीं कर पायी।
ऐसे में सपा-बसपा गठबंधन के लिए सबसे बड़ी चुनौती इन दलित और ओबीसी जातियों को अपने साथ जोड़ने की होगी। दरअसल सपा-बसपा पर आरोप लगता रहा है कि वे यादव, मुस्लिम और जाटवों की पार्टी है। जबकि मौजूदा राजनीति में गैर-यादव ओबीसी और गैर जाटव दलितों के अंदर भी राजनीतिक चेतना जागी है, ऐसे में इन्हें साधे बिना बीजेपी को मात देना अखिलेश और मायावती के लिए टेढ़ी खीर होगा। लेकिन जानकारों का यह भी मानना है कि जिन सीटों पर समाजवादी पार्टी लड़ रही है, वहां बसपा का वोट तो ट्रांसफर हो सकता है, लेकिन जिन सीटों पर बसपा लड़ रही है वहां सपा के वोट ट्रांसफर होना मुश्किल हो सकता है। याद हो कि 2014 के लोकसभा चुनाव में यूपी की 80 संसदीय सीटों में से बीजेपी गठबंधन में 73 सीटें जीतने में सफल रही थी और बाकी 7 सीटें विपक्ष को मिली थीं। बीजेपी को 71, अपना दल को 2, कांग्रेस को 2 और सपा को 5 सीटें मिली थीं। बसपा का खाता तक नहीं खुल सका था। हालांकि सूबे की 3 लोकसभा सीटों पर उपचुनाव हुए हैं, जिनमें से 2 पर सपा और एक पर आरएलडी को जीत मिली थी। इस तरह बीजेपी के पास 68 सीटें बची हैं और सपा की 7 सीटें हो गई हैं। इन्हीं उपचुनावों में मिली जीत और भाजपा एवं मोदी के डर ने इस गठबंधन की नींव रखी। दरअसल, 1989 से गोरखपुर सीट पर बीजेपी का कब्जा था, उस सीट पर उपचुनाव में महागठबंधन के प्रत्याशी ने विजयी परचम लहराया था और भाजपा प्रत्याशी को 20,000 से अधिक वोटों से मात दी थी।
गोरखपुर की हाई प्रोफाइल लोकसभा उपचुनाव को अगर आधार माना जाए तो यहां पर अखिलेश यादव ने निषाद पार्टी के साथ समझौता करते हुए निषाद पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष संजय निषाद के बेटे प्रवीण निषाद को सपा से टिकट दिया था। निषाद पार्टी और पीस पार्टी का पहले से समझौता था, यानी दो छोटे दलों के साथ अखिलेश यादव ने समझौता किया था। उपचुनाव में भले ही बसपा ने सपा को समर्थन दिया और छोटे छोटे दल सपा के साथ आ गये थे। इस सीट पर कांग्रेस ने अपना प्रत्याशी मैदान में उतारा था लेकिन वह जमानत तक नहीं बचा पाया। कुल मिलाकर यह गठबंधन जहां बसपा के अस्तित्व के संकट से उबारेगा तो वहीं सपा भी लोकसभा में अपना संख्याबल बढ़ाने में कामयाब होगी। मायावती की पूरी कोशिश लगातार बीएसपी की खो रही जमीन को पुन: हासिल करना है। दिल्ली और यूपी में सत्ता से बेदखल होने के बाद पार्टी को पुनर्जीवित करने के लिए मायावती को उत्तर प्रदेश में अच्छी सीटो की जरूरत है। ऐसे में सपा के साथ गठबंधन से पार्टी को उम्मीद है कि उन्हें फायदा मिल सकता है। मायावती के इस दांव का सीधा प्लान यही है कि एक बार फिर से पार्टी को यूपी में खड़ा किया जा सके। दलित वोटों को बंटने से रोकना 2019 लोकसभा चुनाव में बीएसपी की जीत के लिए मायावती की पूरी कोशिश दलित वोटों को बंटने से रोकना है।
महागठबंधन के जरिए पार्टी अपने वोट बैंक को बिखरने से बचाने की रणनीति पर काम कर रही है। पार्टी यही चाहेगी कि किसी भी तरह से दलितों को अपने साथ जोड़कर रखा जा सके। इसकी वजह भी है क्योंकि 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में बीएसपी को कुल 22 फीसदी वोट मिले थे और इस लिहाज से पार्टी दूसरे नंबर पर थी लेकिन वोट शेयर को सीटों में तब्दील करने के मामले में बीएसपी कामयाब नहीं रही। जिसकी वजह से कम वोट शेयर पाने के बाद भी समाजवादी पार्टी दूसरे नंबर पर रही। इन्हीं आंकड़ों को देखते हुए मायावती इस बार किसी भी तरह की कमी नहीं छोड़ना चाहती हैं। सत्ता में भागीदारी के लिए जितनी संभव ज्यादा से ज्यादा सीटें हासिल करना यूपी की सियासत केंद्र की दशा और दिशा तय करती है। यही वजह है कि इस बार के आम चुनाव में यूपी में मायावती की पार्टी को जितनी सीटें आएंगी बीएसपी का प्रभाव भी केंद्र में उतना ही बढ़ेगा।
- देवव्रत