भारतीयता का गौरव बोध कराने वाली होनी चाहिए नयी शिक्षा नीति
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समग्र शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होनी चाहिए
बृजनन्दन राजू : देश को आजादी मिलने के बाद जिनके हाथ में सत्ता की बागडोर आयी। उनके मन और दिलो दिमाग में भtविष्य के भारत को लेकर कोई कल्पना नहीं थी। वह भारत को इंग्लैण्ड और अमेरिका जैसा बनाना चाह रहे थे लेकिन भारत को भारत जैसा नहीं। हर देश की अपनी अलग —अलग प्रकृति संस्कृति और भौगोलिक स्थितियां होती हैं। इसलिए भारत को भारत के विचार संस्कार और परम्परा के आधार पर खड़ा करना होगा।
अंग्रेजों के आने से पहले भारत की शिक्षा का स्तर काफी उच्च था। गांव— गांव में गुरूकुल चलते थे। गुरूकुल आवासीय होते थे और वह भी नि:शुल्क चलते थे। तक्षशिला और नालंदा जैसे विश्वविद्यालय भारत में थे। पूरे विश्व के विद्यार्थी अध्ययन के लिए भारत आते थे। इसलिए अंग्रेंजों ने भारत आने पर सबसे पहले यहां की शिक्षा व्यवस्था को छिन्न् भिन्न किया। आजादी के बाद सबसे पहला और प्रमुख कार्य शिक्षा पर होना चाहिए था जो नहीं हुआ। देश की सभी समस्याओं की जड़ में हमारी शिक्षा व्यवस्था है। मौजूदा समय में जो शिक्षा भारत के विद्यालयों में दी जा रही है, उसका उद्देश्य ही स्पष्ट नहीं है और जब शिक्षा का उद्देश्य ही स्पष्ट नहीं होगा तो वह शिक्षा हमारे राष्ट्र जीवन में बदलाव कैसे ला सकती है। भारत को विश्वगुरू बनाना है तो शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन करना होगा। इसी उद्देश्य को लेकर केन्द्र सरकार नयी शिक्षानीति बना रही है। सरकार का यह निर्णय स्वागत योग्य है। स्वतंत्र भारत में इसके पूर्व दो बार शिक्षा नीति बनाई गयी लेकिन राजनैतिक इच्छाशक्ति के अभाव में पूर्ववर्ती सरकारों ने इसका क्रियान्वयन किया। पहली बार नयी शिक्षानीति पर सरकार ने देश की आम जनता की राय जानने की कोशिश की है। देश के शिक्षाविदों ने अपनी राय से अवगत भी कराया।
शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास ने शिक्षा में भारतीयता को लेकर काम शुरू किया था। आज उसके सकारात्मक परिणाम शिक्षाक्षेेत्र में दिख रहा है। शिक्षा में पाठ्यक्रम के बदलाव को लेकर शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास ने काम शुरू किया था। शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के राष्ट्रीय सचिव अतुल कोठारी के मुताबिक 11 निर्णय सरकार के विरोध में आये। इसके बाद शिक्षा का पाठ्यक्रम चर्चा में आया। शिक्षा में विकृतियां विसंगतियां थी लेकिन उसको दूर करने के अलावा विकल्प भी चाहिए। इस दिशा में भी संगठन ने काम प्रारम्भ किया। देश की आवश्यकता के अनुसार शिक्षा क्षेत्र में बदलाव होना चाहिए इसलिए देश भर के विद्वानों की राय ली गयी। दिल्ली में शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास द्वारा आयोजित तीन दिवसीए’ज्ञानोत्सव’ में 500 से अधिक देश के मूर्धन्य शिक्षाविद महाविद्यालयों के प्राचार्य प्रोफेसर व विश्वविद्यालयों के कुलपति ने प्रतिभाग किया। सभी सत्रों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डा. मोहन राव भागवत मंच पर उपस्थित रहे। सरसंघचालक ने कहा कि भारतीयता का गौरव बोध कराने वाली हमारी शिक्षा होनी चाहिए।
भारत की शिक्षा वास्तविक शिक्षा हो परिणामकारी शिक्षा हो उचित शिक्षा हो। सरसंघचालक ने कहा कि शिक्षा से ऐसा व्यक्ति तैयार होना चाहिए जो स्वगौरव व स्वावलम्बी बन सके उसके अंदर स्वातंत्रय का भाव होना चाहिए। उन्होंने कहा कि शिक्षा में भारतीयता की बात पहले महत्व की है। शिक्षा यानी केवल साक्षरता नहीं है। शिक्षा से साक्षता और विद्या से ज्ञान की प्राप्ति कर सकते हैं। भारत को छोड़कर भारतीयता की कल्पना नहीं की जा सकती। भारत की भाषा भूूषा भजन भवन भोजन भ्रमण का ज्ञान जिस शिक्षा में नहीं है तो उस शिक्षा में भारतीयता कहां है। त्याग पूर्वक उपभोग हमारी संस्कृति है। सदविचार सदाचार सदव्यवहार इसी को कहते हैं आध्यात्मिकता। इसका पुट जिसमें नहीं है वह शिक्षा किस काम की। स्वतंत्र स्वावलम्बी बनाने वाली शिक्षा को भारतीय विचार की शिक्षा कहा जायेगा। इसलिए जो भी शिक्षानीति बनी है उसके पीछे यही भाव है।
अतुल कोठारी जी ने कहा कि मां मातृभूमि और मातृभाषा का कोई विकल्प नहीं हो सकता। समग्र शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होनी चाहिए। यह वैज्ञानिक भी है। पूर्व राष्ट्रपति डा. एपीजे अब्दुल कलाम ने अपने अनुभव के आधार पर कहा था कि मैं अच्छा वैज्ञानिक इसलिए बना कि मेरी गणित व विज्ञान की शिक्षा मातृभाषा में हुई। शिक्षा समाज परिवर्तन का सशक्त माध्यम है। जैसी शिक्षा होगी वैसा देश बनेगा। इसलिए शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास ने कहा कि देश को बदलना है तो शिक्षा को बदलो। शिक्षा मात्र सरकार का विषय नहीं है। जनसहभागिता जरूरी है। क्योंकि हमारे यहां शिक्षा व्यवसाय नहीं थी। आज शिक्षा में व्यावसायिकता हावी है। इसलिए शिक्षा में पुराना एवं आधुनिक तथा आध्यात्मिक एवं वैज्ञानिकता में भी समन्वय जरूरी है। शिक्षा के परिवर्तन में सबसे बड़ी बाधा भाषा का विषय है। भाषा की समस्या की वजह से बहुत से प्रतिभाशाली बच्चे आगे नहीं बढ़ पाते हैं। क्योंकि आगे पढ़ाई करनी है तो अंग्रेजी आनी चाहिए। इस संस्कृति को बदलना पड़ेगा। उच्च शिक्षा भी भारतीय भाषाओं में उपलब्ध हो ऐसी नीति बनाने के साथ ही पाठ्यक्रम भी तैयार करना करना होगा। अभियांत्रिकी, चिकित्सा जैसे व्यावसायिक पाठ्यक्रमों सहित सभी पाठ्यक्रमों में भारतीय भाषाओं का विकल्प उपलब्ध कराना जरूरी है तभी भारतीय मेधाशक्ति का सही से उपयोग हो सकेगा। इससे जहां भारतीय भाषाओं का महत्व बढ़ेगा वहीं युवाओं को अवसर भी अधिक मिलेंगे।
नई शिक्षा नीति में भारतीय इतिहास संस्कृति व वैदिक गणित के साथ—साथ भारत के मुख्यग्रन्थ रामायण महाभारत और उपनिषदों के सार को भी पाठ्यक्रम में जोड़ा जायेगा। नई शिक्षा नीति भारतीय संस्कृति और विचारों के अनुरूप होनी चाहिए। इसलिए महापुरूषों को अपमानित करने वाले प्रसंगों को हटाया जायेगा और भारतीयता का बोध कराने वाले प्रसंगों को शामिल किया जायेगा।
भारत में ज्ञान के क्षेत्र में कभी सीमाओं का निर्धारण नहीं किया गया। क्योंकि सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामय: और वसुधैव कुटुम्बकम को हम मानने वाले हैं। कृष्णवन्तो विश्वमार्यम’ विश्व को आर्य अर्थात श्रेष्ठ बनाने के संकल्प को लेकर हमारे शिक्षक सारे विश्व में शिक्षा प्रदान करते रहे हैं। दुनिया के तमाम देशों के विद्यार्थी भारतीय विश्वविद्यालयों में आकर ज्ञान प्राप्त करते रहे हैं| विदेशी शासन के बाद इस स्थिति में परिवर्तन हुआ और हम अपने राजनैतिक सीमाओं में सिमट गए| वर्तमान में भारतीय विश्वविद्यालयों को विदेशों में शिक्षा देने का अधिकार नहीं है। विदेशी छात्रों के प्रवेश की भी अत्यंत सीमित संभावना अभी भारत के विश्वविद्यालय में है। इस नीति में भी बदलाव की जरूरत है।
ज्ञानोत्सव में आये शिक्षाविदों ने अपनी राय व्यक्त करते हुए कहा कि आज भी न्याय प्रक्रिया, उच्च शिक्षा, सरकारी कामकाज, प्रतियोगात्मक परीक्षाओं आदि में हिन्दी भाषा का इस्तेमाल नहीं किया जाता है। इससे देशभर में भ्रम के वातावरण का निर्माण होता है कि अंग्रेजी के बिना कुछ नहीं हो सकता है। जबकि दुनिया के कई देश ऐसे हैं, जिन्होंने अंग्रेजी को तो अपनाया, लेकिन अपनी मातृ भाषा को सबसे ऊपर रखा है। अन्य देशों की तरह हमें भी अपनी मातृ भाषा को बचाने के लिए अंग्रेजी की अनिर्वायता को समाप्त करना होगा। हमें पढ़ाई जाने वाली किताबों में ऐसी-ऐसी बातें हैं, जिनका हकीकत से दूर-दूर तक नाता नहीं है। इस प्रकार की शिक्षा पर रोक लगाने के लिए सभी प्रकाशन विभागों की मॉनीट्रिंग होनी चाहिए।
केन्द्रीय मानव संसाधन व विकास मंत्री डा.रमेश पोखरियाल निशंक ने कहा कि गुरु-शिष्य की परंपरा के साथ आधुनिक अनुसंधान के बाद जो भी नयी चीज सुझाव में आयेगी उसे शिक्षानीति में शामिल किया जायेगा। उन्होंने कहा कि रैंकिंग सुधारने का भी काम किया जा रहा है। नए पाठ्यक्रमों का सृजन हो रहा है और परामर्श दीक्षा सहित कई योजनाओं को शुरू किया गया है। पौधारोपण को नई शिक्षा नीति में जोड़ने का भी प्रयास किया जायेगा।
(लेखक पत्रकार हैं और प्रेरणा शोध संस्थान नोएडा से जुड़े हैं)