डिफेंस रिसर्च एंड डिवेलपमेंट ऑर्गनाइजेशन (डीआरडीओ) ने पोकरण फायरिंग रेंज में 1000 किलोग्राम वजन के ग्लाइड बम का कामयाब टेस्ट किया। गरुड़ और गरुथमा नाम के बमों को इंडियन एयर फोर्स के फाइटर जेट सुखोई से दागा गया। डीआरडीओ के मुताबिक बमों में ऑन बोर्ड नेविगेशन सिस्टम है जो इसे गाइड करता है। टारगेट को निशाना बनाने से पहले यह 100 किलोमीटर तक हवा में तैरता रहा। इस टेस्ट को इंटिग्रेटेड टेस्ट रेंज पर लगे सिस्टम्स से मॉनिटर किया गया। गरुथमा की रेंज 100 किमी है। इन्हें साल के आखिर में एयरफोर्स में शामिल किया जाएगा। पाकिस्तान का 100 किलोमीटर का इलाका इनकी जद में होगा। जानिए क्या खासियत है इन बमों की…
– इस बम को डीआरडीओ की अलग-अलग लैब्स, DARE बेंगलुरु, ARDE पुणे, TBRL चंडीगढ़ और RCI हैदराबाद में तैयार किया है।
– दिसबंर 2014 और दिसंबर 2015 में उड़ीसा के चांदीपुर रेंज में इनका टेस्ट किया गया था।
– नैविगेशन प्रणाली द्वारा निर्देशित इस बम ने निर्धारित लक्ष्य को सटीकता के साथ बर्बाद कर दिया।
– 1000किलो वजनी गरुथमा ने 100 किमी और गरुड़ ने 30 किमी दूर से टॉरगेट को अपना निशाना बनाया।
क्या होता है ग्लाइड बम
– ग्लाइड बम में किसी प्रकार की मोटर नहीं होती।
– इस कारण इनका संचालन एवं रख-रखाव अपेक्षाकृत सस्ता पड़ता है।
– इस पर लगे स्पेशल कंट्रोलर के जरिए इन्हें कंट्रोल किया जाता है।
– हवाई जहाज या फिर अंतरिक्ष में उड़ रहे सैटेलाइट से कमांड किया जा सकता है।
– इसे मिसाइल की तरह डाटा फीड कर दागा जा सकता है।
– आमतौर पर फाइटर प्लेन को टारगेट के ऊपर उड़ान भरते हुए हमला बोलना पड़ता है।
– इससे दुश्मन की मिसाइलों की जद में आने का खतरा बना रहता है।
– इन ग्लाइड बमों से आसानी से दुश्मनों के ठिकानों को निशाना बनाया जा सकता है।
– ग्लाइड बम की टेक्निक वैसे तो काफी पुरानी है।
– प्रथम विश्व युद्ध के वक्त सीमित दूरी ग्लाइड बमों का इस्तेमाल किया जाता था।
– इन्हें सबसे पहले जर्मनी ने इस्तेमाल किया था।
– इसके बाद ब्रिटेन, अमेरिका, फ्रांस और रूस ने भी इन्हें डेवलप किया।