भाव और विचार एक नहीं होते
भाव का केन्द्र हृदय है और ज्ञान का केन्द्र बुद्धि। बुद्धि का आधार स्मृति है। हम प्रत्यक्ष जगत का विवेचन करते समय स्मृति को ही आधार बनाते हैं। स्मृति में कार्य और कारण की श्रृंखला होती है। विज्ञान और दर्शन के अध्ययन में कार्य कारण की विशेष महत्ता है लेकिन भाव जगत् में कार्य कारण और नित्यानित्य विवेक की महत्ता नहीं है। हम प्रकृति के तमाम रूप देखते हैं। वे भावोत्तेजन करते हैं। ऐसा सबके साथ नहीं होता। भावना एक जैसी नहीं होती। जाकी रही भावना जैसी/प्रभु मूरति देखी तिन तैसी। हम सूर्योदय देखकर आनंदित हो सकते हैं, नहीं भी हो सकते। यहां कार्यकारण की श्रृंखला नहीं है। सूर्योदय ही कारण होता तो सूर्योदय देखकर सबको आनंद आता। महाभारत की कथा के संजय विद्वान हैं, विवेकशील हैं। दूरदर्शी भी हैं। वे ही अंधे राजा धृतराष्ट्र को युद्ध भूमि का विवरण सुनाते हैं। उन्होंने ही धृतराष्ट्र को पूरी गीता सुनाई थी। गीता का पूरा विवरण सुनाने के बाद उन्होंने युद्ध का परिणाम भी घोषित कर दिया था। हालांकि युद्ध अभी शेष था।
पूर्वघोषित युद्ध परिणाम उनका आंकलन था। यह एक बौद्धिक कार्रवाई थी। धृतराष्ट्र ने उनसे परिणाम का आंकलन पूछा भी नहीं था लेकिन उन्होंने गीता प्रबोधन का विवरण सुनाने के बाद कहा “जिस ओर योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं और जिधर धनुर्धर पार्थ हैं। मेरे मतानुसार-मतिर्मम वहीं श्री, विजय, कल्याण और नीति होगी” यहां कार्यकारण की श्रृंखला है। उनके मत में विजय के दो प्रमुख कारण हैं। श्रीकृष्ण योगेश्वर हैं। अर्जुन धर्नुधर हैं। योगेश्वर की बुद्धि युक्ति और रणनीति व धनुर्धर अर्जुन का योद्धापन विजय के कारण हैं। यहां संजय ने विजय अनुमान के कारण भी बताए थे। संजय विद्वान थे और विद्वान प्रायः भावुक नहीं होते। लेकिन संजय इसी विजय आंकलन के ठीक पहले गहन रूप में भावुक भी हुए थे। उन्होंने धृतराष्ट्र को बताया “मैंने श्रीकृष्ण और अर्जुन के आश्चर्यजनक संवाद को सुना है। मैं रोमांचित हूं। व्यास की अनुकम्पा से मैंने इस रहस्यपूर्ण योगज्ञान को साक्षात योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा उपदेश देते सुना है। मैं इस संवाद को स्मरण करते हुए आनंदित पुलकित हूं। मैं श्रीकृष्ण के आश्चर्यजनक रूप को याद करता हूं। मैं बार-बार पुलकित होता हूं।” यहां संजय बहुत गहरे स्तर तक भावुक हैं – रोमांचित हैं, पुलकित भी हैं। भाव जगत् का ऐसा उत्तेजन स्वयं लिया गया बौद्धिक निर्णय नहीं है।
भाव और विचार एक नहीं होते। विचार की काया में तर्क प्रतितर्क भी होते हैं। लेकिन भाव अतक्र्य होते हैं। भावुकता सकारण हो सकती है और अकारण भी। प्रकृति का कोई रूप या गीत काव्य की कोई पंक्ति भी हमको भावुक कर सकती है। हम ऐसे किसी कारण के अभाव में भी भावुक हो सकते। महाभारत के संजय विद्वान हैं। उनके जैसे विद्वान की भावुकता का कारण नहीं पकड़ में आता। वैसे भी भावुकता का मूल केन्द्र कहां पता लगता है? दर्शन में भाव को कोई भाव नहीं देता। भारतीय दर्शन में भी आत्म दर्शन की कार्रवाई चित्त रूपांतरण तक ज्ञान यात्रा है। इसके बाद भाव रस का महासागर है। फिर आनंद लोक की ही चर्चा है और आनंद लोक का कोई भौतिक या बौद्धिक अस्तित्व नहीं। आनंद बौद्धिक उपलब्धि नहीं है। संजय की भावुकता ध्यान देने योग्य है। वे धृतराष्ट्र को युद्ध भूमि का देखा सुना विवरण सुना रहे थे और स्वयं भावुक हो गए। संभव है कि गहन भावुकता के कारण उनसे कई महत्वपूर्ण विवरण छूट भी गए हों। स्वयं उनके अनुसार वे युद्ध भूमि के दो महत्वपूर्ण नायकों श्रीकृष्ण व अर्जुन के बतरस में ही डूब गए। वे रोमांचित हुए। हर्षित हुए। एक बार नहीं बार-बार। कई बार। भाव की अपनी महत्ता है। गीता में ज्ञान और योग का विवरण ज्यादा है। भाव का कम है। लेकिन विराट रूप दर्शन जैसे प्रसंगों में ज्ञान के साथ भाव भी है। गीता का पुनर्पाठ करते समय ऐसी सारी संभावनाओं का विचार किया जाना चाहिए।
भारतीय दर्शन का ध्येय दुख मुक्ति है। ज्ञान की प्राप्ति से दुख दूर होते हैं। ऐसा विद्यार्थी जीवन से ही पढ़ता सुनता आया हूं। पढ़ा है कि दुख का कारण अज्ञान है। प्रश्न उठता है कि तब अज्ञान का कारण क्या है? गीता सहित संपूर्ण भारतीय दर्शन कथनों के अनुसार अज्ञान का कारण माया है। बुद्ध के अनुसार यहां होना ही दुख का कारण है। कारण खोजने की इसी व्यथा में एक और बड़ा प्रश्न चुनौती बनकर सामने आता है कि यह माया हैं क्यों? क्या गीता दर्शन परिपूर्ण है। यहां विश्वदर्शन के सभी उपकरण एक साथ हैं। लेकिन गीताकार की समझ और हमारी समझ की दूरी बहुत बड़ी है। गीता का मुख्य प्रश्नकर्ता अर्जुन है। उसके प्रश्न हमारे मन में उठने वाले प्रश्नों जैसे हो सकते हैं लेकिन उसके गहन विषाद का कारण युद्ध को तत्पर सामने खड़े परिजन हैं। वह परिजनों को मारकर राज्य संपदा नहीं चाहता। योद्धा होकर भी युद्ध नहीं लड़ना चाहता। उसकी दृष्टि में संपदा तुच्छ है। तुच्छ संपदा के लिए वह परिजनो का वध करने के लिए तैयार नहीं है।
आधुनिक काल का मन भिन्न तल पर है। यह संपदा के लिए परिजनों से भी युद्धरत रहने का काल है। गीता का दर्शन अस्तित्व और मानव चेतना की गहराई का अध्ययन है। यहां मानव व्यक्तित्व के तमाम तलों का विश्लेषण है। ऐसा विश्लेषण सभी अवसरों के लिए उपयोगी है। यह कालवाह्य नहीं हो सकता। सर्वकालिक है यह। लेकिन हम सब काल के भीतर हैं। इसलिए गीता का पाठ करते समय कालसंगति में रहना हम सबकी विवशता है। गीता मंे ज्ञान भी योग है, कर्म तो योग है ही। भक्ति भी योग है। प्रेम भक्ति को भी योग बनाना गीताकार के आश्चर्यजनक ज्ञान योग का परिणाम है। गीता में भक्ति है लेकिन भावरस का वैसा प्रवाह नहीं जैसा श्रीमद्भागवत में है। मनुष्य अपनी मूल प्रकृति से भावुक प्राणी है। भावुक प्राणी का ज्ञान के रूखे क्षेत्र से जुड़ना आसान नहीं। इसलिए गीता के पुनर्पाठ में बुद्धि के साथ भाव जोड़ना या छोड़ना भी एक विचारणीय विषय है। किसी कार्य का संकल्प बुद्धि नहीं भावजगत की ही कार्रवाई है। प्रगाढ़ भाव से ही हठयोग संभव होता है। प्रगाढ़ भाव के आच्छादन में योग और ज्ञान भी बेकार लग सकता है।
गीता का अर्थ समझने के लिए प्रशांत चित्त पहली शर्त है। लेकिन हमारी कठिनाई है कि हम सब जल्दी में हैं। वर्तमान में भविष्य की जबर्दस्ती है। इसलिए सबको गीता का अपना अर्थ ही प्रेय होना चाहिए। शंकराचार्य जी ने गीता से ज्ञान संन्यास का मर्म निकाला था और तिलक ने कर्मयोग का सार। भक्ति क्षेत्र के विद्वानों ने इसमें भक्तिरस पाया। भक्ति में द्वैत स्वाभाविक है और ज्ञान में अद्वैत। लेकिन स्वामी प्रभुपाद ने इसमें भक्ति वेदांत का रस पाया। गीता पढ़ते समय बार-बार लगता है कि इसमें कहीं कुछ छूट गया है। लेकिन छूटा हुआ जान पड़ता यह भाग गीताकार से नहीं छूटा, यह हमारे मन की ही अपूर्णता है कि संपूर्णता भी अपूर्ण ही दिखाई पड़ती है। मैं स्वयं गीता में मन की गहन दुखदशा का पर्याप्त विवरण नहीं पा सका। यहां योग की परिभाषा है। ‘दुख संयोग से वियोग’ को योग कहा गया है। अन्यत्र कर्म की कुशलता को ही योग कहा गया है। थोड़ा कुछ दुख का परिचय भी है लेकिन पर्याप्त नहीं जान पड़ता। स्वयं से स्वयं की हरेक भेंट दुखदायी है। प्रश्न अनेक हैं। दुख क्यों है? इसका स्रोत क्या है? इसका जन्म कब हुआ? क्या यह भी अस्तित्व की तरह सदा से है? क्या यह भी परमात्मा/परमसत्ता या प्रकृति का ही भाग है? गीता में थोड़े कुछ संकेत हैं। संभव है कि वे पूरे भी हो, हम ही दुख आच्छादित प्रभावित होने के कारण उन्हें न देख पाते हों। इसलिए गीता का पुनर्पाठ जरूरी लगता है। प्रसन्न मन में जटिल विषय भी सरल तरल प्रतीत होते हैं और दुखी मन में सरल भी जटिल हो जाते हैं।
-हृदयनारायण दीक्षित
(रविवार पर विशेष)