भैया! सही-सही लगाओ
“सस्ता रोये बार बार, मँहगा रोये एक बार” यह कहावत सदियो से (पैदल)चली आ रही है लेकिन इस कहावत से पूंजीवादी होने की बदबू, 1600 CC इंजन वाली गाडी की गति की तरह तेज़ आती है, जो हमारे समाजवादी समाज की नाक में दम और दमा दोनों करने का माद्दा रखती है। इस कहावत को कभी भी हमने ईवीएम या बैलट पेपर से स्पष्ट बहुमत देकर लोकतांत्रिक स्वीकृति और इज़्ज़त नहीं बख्शी। वस्तुओ के मूल्यों को सस्ता करवाने के कीड़े ने, प्रधानमंत्री आवास योजना का लाभ उठाए बिना ही हमारे शरीर में घर बना रखा है,जो मौका मौका चिल्लाते हुए खरीददारी करते समय, शरीर के उचित स्थानों पर सम्मानपूर्वक काटता रहता है। मूल्य सस्ता करवाना या मूल्य सस्ता ना करना दोनों के पीछे सस्ती मानसिकता, दमकल की गाड़ी की तरह लगी होती है। “सस्तानुरागी” लोग अपने परिवार से ज़्यादा अपनापन , ‘सस्तेपन’ से रखते है। “सस्तानुरागी पंथ” के अनुयायी हर चीज़ सस्ती करवाना, अपने पंथ के मूल्यों और सेंसेक्स के स्वास्थ्य और सम्मान के लिए पोलियो टीकाकरण की तरह ज़रूरी समझते है। सस्तानुरागी पंथ की स्थापना किसके करकमलो द्वारा हुई यह ठीक ठीक कहना और सुनना भारत के ओलम्पिक में स्वर्ण पदक जीतने की तरह मुश्किल है। “हड़प्पा” और “हडीप्पा” संस्कृति की जुदाई और फिर जेसीबी मशीन से उनकी खुदाई में आजतक कोई “शिलालेख” या “मुन्नीलेख” नहीं मिला जिससे यह पता चल सके सस्तानुरागी पंथ की स्थापना के पीछे किस जहाँपना की साज़िश थी।
सुई से लेकर तलवार तक, हम हर जगह महंगाई पर वार करने की क्षमता और बेशर्मी, स्टॉक करके रखते है। दुकानों पर टंगे हुए फिक्स रेट के बोर्ड को हम ठीक उसी तरह इग्नोर कर देते है जिस तरह से दीवारो पर लिखे “यहाँ पेशाब ना करे” के संदेश को इग्नोर किया जाता है। सब्ज़ी मार्केट हो या ज्वेलरी मार्केट, किसी भी दुकान में प्रवेश करने पर सबसे पहले हम अपनी चप्पल और मोलभाव करने का अधिकार बाहर निकालते है और फिर ताव खा कर, भाव कम कराने की पूरी कोशिश करते है। भाव भले ही पहले से उचित क्यों ना लेकिन सस्तानुरागी लोग फिर भी उसे कम करवाने का हर अनुचित प्रयास करते है। दुकानदार द्वारा बताई गई कीमत पर कोई वस्तु खरीदना सस्तानुरागी लोगो की खुद्दारी और ईनामदारी के लिए जानलेवा साबित होता है। भाव कम करवाने का सबसे पहला नियम है कि, आपकी आँखों में दुकानदार और उसके द्वारा बेची जाने वाली वस्तु के प्रति आवश्यकतानुसार हिकारत का भाव होना चाहिए, इससे आपके द्वारा, वस्तु के भाव और दुकानदार को अपनी नज़रो में गिराने की संभावना बढ़ जाती है। अगर आपकी हिकारत भरी नज़रे, दुकानदार को शर्मिंदा करने में विफल रहे तो भी आप अपना आपा और ढिठाई ना खोए और मन ही मन में “हम होंगे कामयाब” का गहरा उच्चारण करते रहे।
लगातार आग्रह करने पर भी कई दुकानदार अपना पूर्वाग्रह और माल, कम दाम पर छोड़ने को तैयार नहीं होते है। भाव कम ना करने के पीछे, दुकानदार कई तरह के तर्क और हूल देते है, जैसे इतना तो हमारे घर में ही नहीं पड़ा, इसमें ज़्यादा कमाई नहीं है ,आपसे ज़्यादा तो थोड़े लेंगे, इत्यादि। एक दुकानदार को अपने जीवनकाल में इन सभी तर्कों को टूथपेस्ट की तरह रगड़ रगड़ कर इस्तेमाल कर पड़ता है लेकिन खरीददार इन तर्कों का चीरहरण या अपहरण करते हुए इन्हें एक कान से सुने बिना ही, दूसरे कान से निकाल देता है। दुकानदार की ढिठाई और खरीददार की बेशर्मी के बीच इस जंग में वही जीतता है जो अपने लालच को बिना “लाइफ सपोर्ट सिस्टम” के आखिर तक ज़िंदा रखता है। कभी कभी यह मैच अचानक यूपीए के मनमोहन मॉडल की तर्ज़ पर “तेरी भी चुप, मेरी भी चुप” के रास्ते होते हुए “हमारी पर” पहुँच कर ड्रॉ हो जाता है। इस स्थिति में भाव भी कम हो जाता है और विक्रेता द्वारा उसके सम्मान की रक्षा भी, किसी राजनैतिक गठबंधन को बाहर से समर्थन देने वाले दल के सम्मान की तरह कर ली जाती। वस्तुओ के भाव कम करवाना एक कला है, जिसे (मनो) विज्ञान के माध्यम से अंजाम दिया जाता है और जिसका अंतिम परिणाम गणित रूप में ज़ब्त किया जाता है। मोलभाव, खरीददारी का अभिन्न और अभिनय अंग है क्योंकि बिना बार्गेन किए गेन को दबोचना, संसद सत्र को सुचारू रूप से चलाने की तरह मुश्किल है।