अद्धयात्म
मन के मंदिर में ऐसे मिलेंगे भगवान
एकाग्रे मन: सन्निवेशन योगनिरोधवा ध्यान अर्थात् एक आलम्बन पर मन को टिकाना अथवा मन, वचन और शरीर की प्रवृति का निरोध करना ध्यान है। ध्यान की यह परिभाषा जितनी सरल लगती है उतनी ही प्रायोगिक रूप में जटिल प्रतीत होती है।
गहराई से जाना जाए, देखा जाए तो यह न तो अत्यंत सरल है और न ही इतनी जटिल कि व्यक्ति इस ओर प्रेरित भी न हो सके। इस ध्यान की प्रक्रिया का सेतु है व्यक्ति का सहज संतुलन। बिना संतुलन के ध्यान की प्रक्रिया का शुभारम्भ भी नहीं माना जा सकता है।
जो व्यक्ति ध्यान करना चाहता है, ध्यान की गहराई में उतरकर साधना का सोपान छूना चाहता है, उसे अपने मन को एक आलम्बन पर केन्द्रित करना पड़ेगा।
जीवन का आवश्यक अंग है ध्यान
ध्यान ऐसी शक्ति है, जिसके बिना व्यक्ति न तो अपने व्यक्तित्व की पहचान बना पाता है न साधना का रहस्य जान पाता है। आध्यात्मिक दृष्टि से विश्लेषण कर चिंतन किया जाए तो ध्यान जीवन का आवश्यक अंग है। ध्यान की इस प्रक्रिया से व्यक्ति अपने जीवन को नई दिशा दे सकता है।
जागरूक चेतना के प्रतीक ध्यान की आवश्यकता हमें अंतर में तो महसूस होती है लेकिन हम चाहकर भी ध्यान रूपी इस अमृत से अछूते रह जाते हैं। ध्यान न तो दिखावे की वस्तु है और न ही वैचारिक क्रांति का उपक्रम।
बल्कि ध्यान है-जीवन में घटित होने वाली सहज अनुभव सिद्ध प्रक्रिया। ध्यान को प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को इस अनुभव की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। साधना में रत व्यक्ति जीवन में कुछ पाना चाहता है तो वह है-आध्यात्मिक विकास।
साधना की गहराई
ध्यान धर्म की विशुद्ध प्रक्रिया, न कि सम्प्रदाय का लबादा। ध्यानी, योगी इस प्रयोग से उस भूमिका को स्पर्श कर सकता है जहां सम्प्रदाय या परम्परा का भेद गौण हो जाता है। यह साधना की गहराई का परिचायक है। ध्यान प्रक्रिया से पूर्व मन की विशुद्धि आवश्यक है।
जब तक मन की विकृति या उपशम का विलय नहीं होता, ध्यान की गहराई तक नहीं पहुंचा जा सकता है। इस विलय के बाद ही मानसिक संतुलन का अनुभव किया जा सकता है। प्रेक्षा पद्धति के प्रणेता आचार्य महाप्रज्ञ का मत है कि ध्यान अपने आप में शक्ति है, विद्युत है।
विद्युत को आप चाहें तो प्रकाश के रूप में काम में ले सकते हैं और आप चाहें तो आग के रूप में काम ले सकते हैं। सचमुच ध्यान के कुशल शिल्पी के लिए विवेक का होना नितांत आवश्यक है। बिना विवेक के कुशल ध्यानी भी अपने साथ न्याय नहीं कर सकता है।
ध्यान से उपजी चेतना, ऊर्जा का उपयोग किस प्रकार हो यह जानना आवश्यक है, जिस पर चलकर व्यक्ति ध्यान के माध्यम से साधना के साथ साथ जीवन के परम आनंद की अनुभूति भी कर सकता है। ध्यान जीवन साधना का वह पथ है जिस पर चलकर व्यक्ति अपने मन की संत्रांस, भय, घुटन व तनाव से मुक्ति पा सकता है।
सांसारिक दुर्गुणों से परे
ध्यान की शक्ति अपरिमित होती है। ध्यान की आनंदमयी चेतना में पहुंचकर व्यक्ति प्रियता और अप्रियता से परे सहज चेतना में प्रतिष्ठित हो जाता है। ध्यान का विशिष्ट पहलू है हिंसा और घृणा की चेतना से ऊपर उठना।
जिस साधक ने जीवन में ध्यान का अभ्यास किया है, उसने चेतना पर चढ़ी हिंसा एवं घृणा रूपी चादर को उतार कर सहिष्णुता की उज्जवल चादर का वरण किया है। ध्यान की ऊर्जा में जीवन ज्योतिर्मय बन सकता है लेकिन आवश्यकता इस बात कि है कि हम ध्यान की प्रक्रिया की साधना से गुजरें, तभी हम जीवन में बिखरे रंग-बिरंगे आनंद के सूक्ष्म कणों को अपने में शामिल कर सकते हैं।
आत्मरमण की प्रक्रिया
मानसिक अशांति कलह की परिचायक है। यह एक विशुद्ध सत्य है ध्यान की साधना से व्यक्ति मानसिक शांति का विकास कर मैत्री, भाईचारा, नैतिकता को परिवार समाज में प्रतिष्ठित कर स्वयं को आत्मरमण की प्रक्रिया से गुजारकर दूसरों को लाभान्वित कर सकता है।
जीवन में जिन मूल्यों को महत्वपूर्ण माना जाता है वह है सात्विकता। जिस जीवन में सात्विकता हो वह जीवन सहज, सरल बन जाता है। विचारों का उन्नत होना सात्विकता का परिचायक है। सात्विकता प्राप्त होती है ध्यान की गहराई से। ध्यान को प्राप्त कर ही जीवन को सात्विकता से परिपूर्ण बनाया जा सकता है।
सहिष्णुता, अनुशासन बढ़ाता है ध्यान
ध्यान की साधना अध्यात्म की महत्वपूर्ण कड़ी है। ध्यान से जीवन में विनम्रता, सहिष्णुता, अनुशासन का विकास हो जाता है। ध्यान से जीवन में आध्यात्मिक शक्ति का प्रस्फुटन विविध रूपों में होना निश्चित है।
ध्यान की साधना करने वाले साधक की बुद्धि निसंदेह विस्तारित हो जाती है। जहां उसकी परिष्कृत होकर विस्तार पाती है वहीं जीवन आध्यात्मिक एवं नैतिक मूल्यों के प्रति भी चेतना का प्रस्फुटन हो जाता है। व्यक्ति अपने पराए का बोध भूल आत्मस्मरण की प्रक्रिया में अपनी चेतना का उपयोग करता है।
साधना का सोपान
ध्यान में उतरने के लिए आवश्यक है – शरीर की शिथिलता, वाणी का मौन और अंतर में मन का स्मरण करना। बिना इस प्रयोग के न तो ध्यान जीवन का हिस्सा बन सकता है और न साधना का उपक्रम। इसके लिए जरूरी है कि साधक इस गहराई को जाने।
ध्यान की प्रक्रिया को समझे ही नहीं बल्कि जीवन में भी उतारे। ध्यान की प्रक्रिया में जहां विचारों की भटकन को रोकना पड़ता है वहीं आत्म विश्लेषण की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। इस अवस्था को प्राप्त साधक जीवन में ध्यान का विकास कर सकता है।