अद्धयात्म

मां सीता ने दिया इस नदी को शाप आैर बदल गया इसका रास्ता

gaya-558a3f9a5ee83_lगया। वैदिक परंपरा और हिंदू मान्यताओं के अनुसार सनातन काल से श्राद्ध की परंपरा चली आ रही है। माना जाता है प्रत्येक मनुष्य पर देव ऋण, गुरु ऋण और पितृ (माता-पिता) ऋण होते हैं। पितृऋण से मुक्ति तभी मिलती है, जब माता-पिता के मरणोपरांत पितृपक्ष में उनके लिए विधिवत श्राद्ध किया जाए।

आश्विन कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से आश्विन महीने के अमावस्या तक को पितृपक्ष या महालया पक्ष कहा गया है।

मान्यता के अनुसार पिंडदान मोक्ष प्राप्ति का सहज और सरल मार्ग है।

पितरों के लिए खास पितृपक्ष में मोक्षधाम गयाजी आकर पिंडदान एवं तर्पण करने से पितरों को मोक्ष की प्राप्ति होती है और माता-पिता समेत सात पीढ़ियों का उद्धार होता है।

गया को विष्णु का नगर माना गया है। यह मोक्ष की भूमि कहलाती है। विष्णु पुराण और वायु पुराण में भी इसकी चर्चा की गई है। विष्णु पुराण के मुताबिक, गया में पिंडदान करने से पूर्वजों को मोक्ष मिल जाता है और वे स्वर्ग चले जाते हैं। माना जाता है कि स्वयं विष्णु यहां पितृ देवता के रूप में मौजूद है, इसलिए इसे पितृ तीर्थ भी कहा जाता है।

गयावाल पंडा समाज के शिव कुमार पांडे ने बताया कि वायुपुराण में फल्गु नदी की महत्ता का वर्णन करते हुए फल्गु तीर्थ कहा गया है तथा गंगा नदी से भी ज्यादा पवित्र माना गया है।

लोक मान्यता है कि फल्गु नदी के तट पर पिंडदान एवं तर्पण करने से पितरों को सबसे उत्तम गति के साथ मोक्ष की प्राप्ति होती है एवं माता-पिता समेत कुल की सात पीढ़ियों का उद्धार होता है। साथ ही पिंडदानकर्ता स्वयं भी परमगति को प्राप्त करते है। देश में श्राद्घ के लिए 55 स्थानों को महत्वपूर्ण माना गया है जिसमें बिहार के गया का स्थान सर्वोपरि है।

पवित्र फल्गु नदी के तट पर बसे प्राचीन गया शहर की देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी पितृपक्ष और पिंडदान को लेकर अलग पहचान है। पितृपक्ष के साथ साथ तकरीबन पूरे वर्ष लोग अपने पूर्वजों के लिए मोक्ष की कामना लेकर यहां पहुंचते हैं और फल्गु नदी के तट पर पिंडदान और तर्पण आदि करते हैं।

गया शहर के पूर्वी छोर पर पवित्र फल्गु नदी बहती है। माता सीता के शाप के कारण यह नदी अन्य नदियों के तरह नहीं बहकर भूमि के अंदर बहती है, इसलिए इसे अंतः सलिला भी कहते हैं।

विष्णुपद मुहल्ले में रहने वाले पंडा महेश लाल गुप्त बताते हैं कि सर्वप्रथम आदिकाल में जन्मदाता ब्रह्मा और भगवान श्रीराम ने फल्गु नदी में पिंडदान किया था। महाभारत के वनपर्व में भीष्म पितामह और पांडवों द्वारा भी पिंडदान किए जाने का उल्लेख है।

विद्वानों के मुताबिक, किसी वस्तु के गोलाकर रूप को पिंड कहा जाता है। प्रतीकात्मक रूप में शरीर को भी पिंड कहा जाता है। पिंडदान के समय मृतक की आत्मा को अर्पित करने के लिए जौ या चावल के आटे को गूंथकर बनाई गई गोलात्ति को पिंड कहते हैं।

श्राद्ध की मुख्य विधि में मुय रूप से तीन कार्य होते हैं, पिंडदान, तर्पण और ब्राह्मण भोज। दक्षिणाभिमुख होकर आचमन कर जनेऊ को दाएं कंधे पर रखकर चावल, गाय के दूध, घी, शक्कर एवं शहद को मिलाकर बने पिंडों को श्रद्घा भाव के साथ अपने पितरों को अर्पित करना पिंडदान कहलाता है।

जल में काले तिल, जौ, कुशा एवं सफेद फूल मिलाकर उससे विधिपूर्वक तर्पण किया जाता है। मान्यता है कि इससे पितर तृप्त होते हैं। इसके बाद ब्राह्मण भोज कराया जाता है।

शास्त्रों में पितरों का स्थान बहुत ऊंचा बताया गया है। उन्हें चंद्रमा से भी दूर और देवताओं से भी ऊंचे स्थान पर रहने वाला बताया गया है। पितरों की श्रेणी में मृत पूर्वजों, माता, पिता, दादा, दादी, नाना, नानी सहित सभी पूर्वज शामिल होते हैं। व्यापक दृष्टि से मृत गुरु और आचार्य भी पितरों की श्रेणी में आते हैं।

गया के पंडे राजकिशोर कहते हैं कि फल्गु नदी के तट पर पिंडदान सबसे अच्छा माना जाता है। पिंडदान की प्रक्रिया पुनपुन नदी के किनारे से प्रारंभ होती है।

कहा जाता है कि गया में पहले विभिन्न नामों की 360 वेदियां थीं जहां पिंडदान किया जाता था। इनमें से अब 48 ही बची हैं। वैसे कई धार्मिक संस्थाएं उन पुरानी वेदियों की खोज की मांग कर रही हैं। वर्तमान समय में इन्हीं वेदियों पर लोग पितरों का तर्पण और पिंडदान करते हैं।

यहां की वेदियों में विष्णुपद मंदिर, फल्गु नदी के किनारे और अक्षयवट पर पिंडदान करना जरूरी माना जाता है। इसके अतिरिक्त वैतरणी, प्रेतशिला, सीताकुंड, नागकुंड, पांडुशिला, रामशिला, मंगलागौरी, कागबलि आदि भी पिंडदान के लिए प्रमुख हैं।

 

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