उत्तर प्रदेशराज्य
मायावती के लिए क्या है यूपी में जीत-हार के मायने?
पिछले लोकसभा चुनाव में एक भी सीट हासिल नहीं कर सकी बहुजन समाज पार्टी के लिए उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव खासे मायने रखते हैं। लोकसभा चुनाव के बाद कई राजनीतिक पंडितों ने पार्टी सुप्रीमो मायावती के राजनीतिक निर्वासन तक की भविष्यवाणी कर दी थी। मगर यह हकीकत है कि बहुजन समाज पार्टी जातिगत और वर्गीय समीकरण में बंटे उत्तर प्रदेश में आज भी एक बड़ी ताकत है।
समाजवादी पार्टी के भीतर लंबे चले नाटकीय घटनाक्रम के खत्म होने और औपचारिक तौर पर उसका कांग्रेस के साथ गठबंधन हो जाने के बाद उत्तर प्रदेश की तस्वीर अब साफ है। यहां सपा-कांग्रेस गठबंधन, भाजपा की अगुआई वाले एनडीए और बसपा के बीच त्रिकोणीय मुकाबला तय है। हालांकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अजित सिंह के लोकदल की मौजूदगी से कहीं कहीं चतुष्कोणीय मुकाबले की स्थिति भी होगी। उनके अलावा छह वाम दलों का गठबंधन भी 80 सीटों पर होगा, लेकिन व्यापक रूप में उत्तर प्रदेश त्रिकोणीय मुकाबले के लिए तैयार है।
सच पूछा जाए तो 2012 के विधानसभा चुनाव के बाद से बसपा बेहद मुश्किल दौर से गुजरी है। हालांकि 2012 में हुए विधानसभा चुनाव से पहले ही बसपा और मायावती की मुश्किलें तभी शुरू हो गई थीं, जब ताज कॉरिडोर और आय से अधिक संपत्ति के मामलों के साथ ही राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) से जुड़ा घोटाला सामने आया और उनकी सरकार के दो प्रभावशाली मंत्रियों बाबू सिंह कुशवाहा और अनंत कुमार को भारी दबाव और सीबीआई जांच के दायरे में आने के बाद इस्तीफा तक देना पड़ा था। हजारों करोड़ के इस घोटाले में खुद मायावती तक जांच की आंच पहुंची थी। अनेक चिकित्सा अधिकारियों और घोटाले से जुड़े लोगों की संदिग्ध परिस्थितियों में हुई मौतों से उनकी सरकार अलोकप्रिय होती चली गई।
समाजवादी पार्टी के भीतर लंबे चले नाटकीय घटनाक्रम के खत्म होने और औपचारिक तौर पर उसका कांग्रेस के साथ गठबंधन हो जाने के बाद उत्तर प्रदेश की तस्वीर अब साफ है। यहां सपा-कांग्रेस गठबंधन, भाजपा की अगुआई वाले एनडीए और बसपा के बीच त्रिकोणीय मुकाबला तय है। हालांकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अजित सिंह के लोकदल की मौजूदगी से कहीं कहीं चतुष्कोणीय मुकाबले की स्थिति भी होगी। उनके अलावा छह वाम दलों का गठबंधन भी 80 सीटों पर होगा, लेकिन व्यापक रूप में उत्तर प्रदेश त्रिकोणीय मुकाबले के लिए तैयार है।
सच पूछा जाए तो 2012 के विधानसभा चुनाव के बाद से बसपा बेहद मुश्किल दौर से गुजरी है। हालांकि 2012 में हुए विधानसभा चुनाव से पहले ही बसपा और मायावती की मुश्किलें तभी शुरू हो गई थीं, जब ताज कॉरिडोर और आय से अधिक संपत्ति के मामलों के साथ ही राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) से जुड़ा घोटाला सामने आया और उनकी सरकार के दो प्रभावशाली मंत्रियों बाबू सिंह कुशवाहा और अनंत कुमार को भारी दबाव और सीबीआई जांच के दायरे में आने के बाद इस्तीफा तक देना पड़ा था। हजारों करोड़ के इस घोटाले में खुद मायावती तक जांच की आंच पहुंची थी। अनेक चिकित्सा अधिकारियों और घोटाले से जुड़े लोगों की संदिग्ध परिस्थितियों में हुई मौतों से उनकी सरकार अलोकप्रिय होती चली गई।
मगर 2012 के विधानसभा चुनाव में पराजित होने के बावजूद 80 सीटें जीतकर बसपा सूबे की दूसरी बड़ी पार्टी बनी रही। यदि डेढ़ दशक का इतिहास देखें, तो 2002 के विधानसभा चुनाव में बसपा ने 98 सीटें जीती थीं और उसे 23.06 फीसदी वोट मिले थे। 2007 में 30.4 फीसदी वोट मिले और उसने 206 सीटें जीतकर पूर्ण बहुमत हासिल किया था। इस चुनाव ने दिखाया था कि मायावती बसपा के दिवंगत संस्थापक कांशीराम की छाया से बाहर निकल कर अपनी अलग पहचान बना चुकी हैं। कांशीराम की अक्टूबर 2006 में लंबी बीमारी के बाद मृत्यु हो गई थी, मगर 2007 से पहले के चुनाव में वह बसपा के बड़े रणनीतिकार और मायावती के राजनीतिक संरक्षक के तौर पर उपस्थित रहते ही थे। इसी तरह से 2004 के लोकसभा चुनाव में बसपा को 24.69 फीसदी वोट मिले थे और वह सूबे की 19 सीटें जीतने में सफल रही थी। इसके बाद 2009 के लोकसभा चुनाव में उसका वोट प्रतिशत बढ़कर 27.42 हो गया और वह 20 सीटें जीत गई।
इस तरह देखें तो 2002 से लेकर 2012 के बीच चाहे विधानसभा चुनाव हों या फिर लोकसभा चुनाव बसपा के पास कम से कम 24 फीसदी के करीब वोट रहे ही हैं और वह सूबे की दूसरी बड़ी राजनीतिक ताकत बनी रही है। मगर मई, 2014 के लोकसभा चुनाव ने उसका सारा गणित गड़बड़ा दिया। उसका वोट 20 फीसदी से गिरकर 19.71 फीसदी हो गया और उसे एक भी सीट नहीं मिली! पिछले लोकसभा चुनाव बेशक नरेंद्र मोदी की लहर बनकर आए थे, मगर एक भी सीट नहीं मिलना मायावती के लिए बड़ा झटका साबित हुआ।
यदि राम मनोहर लोहिया ने यह कहा था कि जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी, तो कांशीराम ने भी पिछड़ी और दलित जातियों को जोड़ने पर जोर दिया। बहुजन समाज पार्टी की स्थापना का मूल ही यही है कि बहु जन को जोड़ना। पारंपरिक रूप से दलित, पिछड़ी जातियों और मुस्लिमों के साथ चलने वाली बसपा ने 2007 के विधानसभा चुनाव के समय ब्राह्णणों को साथ लेने के लिए भारतीय राजनीति में एक नए तरह की ‘सोशल इंजीनियरिंग’ ईजाद की और उसके बेहतर नतीजे भी उसे मिले। वरना एक समय था, जब इस पार्टी का नारा हुआ करता था, तिलक तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार।
इस तरह देखें तो 2002 से लेकर 2012 के बीच चाहे विधानसभा चुनाव हों या फिर लोकसभा चुनाव बसपा के पास कम से कम 24 फीसदी के करीब वोट रहे ही हैं और वह सूबे की दूसरी बड़ी राजनीतिक ताकत बनी रही है। मगर मई, 2014 के लोकसभा चुनाव ने उसका सारा गणित गड़बड़ा दिया। उसका वोट 20 फीसदी से गिरकर 19.71 फीसदी हो गया और उसे एक भी सीट नहीं मिली! पिछले लोकसभा चुनाव बेशक नरेंद्र मोदी की लहर बनकर आए थे, मगर एक भी सीट नहीं मिलना मायावती के लिए बड़ा झटका साबित हुआ।
यदि राम मनोहर लोहिया ने यह कहा था कि जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी, तो कांशीराम ने भी पिछड़ी और दलित जातियों को जोड़ने पर जोर दिया। बहुजन समाज पार्टी की स्थापना का मूल ही यही है कि बहु जन को जोड़ना। पारंपरिक रूप से दलित, पिछड़ी जातियों और मुस्लिमों के साथ चलने वाली बसपा ने 2007 के विधानसभा चुनाव के समय ब्राह्णणों को साथ लेने के लिए भारतीय राजनीति में एक नए तरह की ‘सोशल इंजीनियरिंग’ ईजाद की और उसके बेहतर नतीजे भी उसे मिले। वरना एक समय था, जब इस पार्टी का नारा हुआ करता था, तिलक तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार।
एक बार फिर मायावती ने बसपा के पुराने आधार पर भरोसा किया है। बसपा जाटव, बाल्मिकी और पासी के साथ ही अन्य दलित जातियों और यादव को छोड़कर ओबीसी की अन्य जातियों के भरोसे तो है ही, उसने 98 सीटें मुस्लिमों को भी दी हैं।
मायावती संभवतः अकेली ऐसी नेता हैं, जो मुख्यमंत्री बनने के बाद ही विधानसभा का उप चुनाव लड़ती हैं। इसी 15 जनवरी को 61 वर्ष की हो चुकीं मायावती के लिए यह ‘चुनाव करो या मरो’ जैसे हैं। इसके कई कारणों में से एक आठ नवंबर की नोटबंदी को भी माना गया है, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि इससे बसपा के नकद कोष पर असर पड़ा। बची-खुची कसर पार्टी के खातों और मायावती के भाई आनंद कुमार के यहां पड़े छापे ने पूरी कर दी। पर क्या वाकई आर्थिक भ्रष्टाचार उत्तर प्रदेश के चुनाव में कोई बड़ा मुद्दा है?
वक्त मायावती के हाथ से तेजी से निकलता जा रहा है। लोकसभा चुनाव हारने के बाद उन्होंने पिछले दो वर्षों में पार्टी के भीतर काफी साफ-सफाई की है। संगठन को नए ढंग से चलाने की कोशिश की है। चुनाव के बाद पांच स्थितियां की कल्पना की जा सकती है। पहला यह कि बसपा को बहुमत मिल जाए और वह अपने दम पर सरकार बना ले। दूसरा सपा-कांग्रेस गठबंधन सरकार बना ले और बसपा दूसरे स्थान पर आ जाए। तीसरा भाजपा सरकार बना ले और बसपा दूसरे स्थान पर आ जाए। चौथा विधानसभा में त्रिशुंक स्थिति उभरे और नई सरकार में बसपा की मौजूदगी अपरिहार्य हो जाए। पांचवा सपा-कांग्रेस गठबंधन और भाजपा दोनों में से कोई भी पहले या दूसरे नंबर पर हो और बसपा तीसरे स्थान पर खिसक जाए।यह देखना वाकई दिलचस्प होगा कि क्या बसपा का हाथी इस चुनावी लंबी रेस का घोड़ा साबित होता है!
मायावती संभवतः अकेली ऐसी नेता हैं, जो मुख्यमंत्री बनने के बाद ही विधानसभा का उप चुनाव लड़ती हैं। इसी 15 जनवरी को 61 वर्ष की हो चुकीं मायावती के लिए यह ‘चुनाव करो या मरो’ जैसे हैं। इसके कई कारणों में से एक आठ नवंबर की नोटबंदी को भी माना गया है, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि इससे बसपा के नकद कोष पर असर पड़ा। बची-खुची कसर पार्टी के खातों और मायावती के भाई आनंद कुमार के यहां पड़े छापे ने पूरी कर दी। पर क्या वाकई आर्थिक भ्रष्टाचार उत्तर प्रदेश के चुनाव में कोई बड़ा मुद्दा है?
वक्त मायावती के हाथ से तेजी से निकलता जा रहा है। लोकसभा चुनाव हारने के बाद उन्होंने पिछले दो वर्षों में पार्टी के भीतर काफी साफ-सफाई की है। संगठन को नए ढंग से चलाने की कोशिश की है। चुनाव के बाद पांच स्थितियां की कल्पना की जा सकती है। पहला यह कि बसपा को बहुमत मिल जाए और वह अपने दम पर सरकार बना ले। दूसरा सपा-कांग्रेस गठबंधन सरकार बना ले और बसपा दूसरे स्थान पर आ जाए। तीसरा भाजपा सरकार बना ले और बसपा दूसरे स्थान पर आ जाए। चौथा विधानसभा में त्रिशुंक स्थिति उभरे और नई सरकार में बसपा की मौजूदगी अपरिहार्य हो जाए। पांचवा सपा-कांग्रेस गठबंधन और भाजपा दोनों में से कोई भी पहले या दूसरे नंबर पर हो और बसपा तीसरे स्थान पर खिसक जाए।यह देखना वाकई दिलचस्प होगा कि क्या बसपा का हाथी इस चुनावी लंबी रेस का घोड़ा साबित होता है!