मोदीछाप नीतीश सियासत
संजय सक्सेना
उत्तर प्रदेश में अपने पांव पसारने के लिये हाथ-पैर चला रहे जनता दल युनाइटेड के नेताओं को लगता है कि जिस तरह से नीतीश कुमार ने बिहार में बीजेपी को चारो खाने चित कर दिया,उसी तरह अगर यूपी में भी बीजेपी को पटकनी दे दी जाये तो देश की सियासत में नया मोड़ आ सकता है। अभी तक जो दल और नेता नीतीश कुमार को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं, वह यूपी फतह के बाद नीतीश के पीछे चलने को मजबूर हो सकते हैं। बताते चलें कि पीएम की कुर्सी की चाहत ने ही नीतीश कुमार को राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन(एनडीए) से जुदा कर दिया था। नीतीश की महत्वाकांक्षा के चलते ही बिहार में भाजपा-जदयू की संयुक्त सरकार में दरार पड़ गई। भाजपा ने नीतीश सरकार से समर्थन वापस लिया तो नीतीश ने अपने धुर विरोधी लालू यादव का दामन थाम लिया। दरअसल, नीतीश चाहते थे कि एनडीए 2014 के लोकसभा चुनाव में उनको प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर चुनाव लड़े,जबकि बीजेपी ने नरेन्द्र मोदी पर दांव लगा रखा था। यह बात नीतीश हजम नहीं कर पाये और एनडीए से अलग हो गये थे।
2019 के लोकसभा चुनाव की तैयारी में जुटे नीतीश पूरे देश की सियासत पर छा जाने को बेचैन हैं। वह अपने पीछे सभी दलों को एकजुट देखना चाहते हैं तो दूसरी तरफ वह स्वयं मोदी की शैली से प्रभावित नजर आ रहे हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव के समय गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी रहे मोदी ने प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने के लिये जो रास्ता चुना था, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव में जीत हासिल करने के लिये उसी राह पर थोड़े से फेरबदल के बाद आगे बढ़ते दिख रहे हैं। मोदी ने जहां गुजरात मॉडल को आगे बढ़ाते हुए ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का नारा दिया था, वहीं नीतीश कुमार ‘संघ मुक्त भारत, शराब मुक्त समाज’ की बात कर रहे हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव के समय पूरे देश में मोदी और उनके गुजरात मॉडल की चर्चा छिड़ी थी, जिसका मोदी को खूब फायदा मिला था। 2019 में नीतीश कुमार मोदी की तर्ज पर ही बिहार में शराबबंदी से हो रही उनकी सरकार की वाहवाही को देशव्यापी मुद्दा बनाना चाहते हैं। 2014 में मोदी गुजरात के सोमनाथ मंदिर का काशी विश्वनाथ मंदिर और गंगा से रिश्ता जोड़ कर वाराणसी से चुनाव लड़े थे, वहीं 2019 के लिये नीतीश भी गंगा मईया, बाबा विश्वनाथ के सहारे वाराणसी को नाप रहे हैं। मोदी ने वाराणसी पहुुंच कर कहा था कि मुझे मॉ गंगा ने बुलाया है। नीतीश भी अपनी यात्रा के दूसरे दिन मॉ गंगा का आशीर्वाद लेने पहुंचे, परंतु मोदी से अलग दिखने की चाह में उन्होंने इसके उलट कहा,‘ मां गंगा ने मुझे बुलाया नहीं है, खुद आशीर्वाद लेने आया हॅू।’ मोदी ने जब स्वच्छ भारत अभियान चलाया तो वह जनता को बताने से नहीं भूले की महात्मा गांधी से प्रेरित होकर वह स्वच्छता अभियान को आगे बढ़ा रहे है। इसी तरह नीतीश ने जब बिहार में शराबबंदी कानून बनाया तो वह भी लोंगो को बताने से नहीं चूके की गांधी जी शराब को देश और समाज के पतन का कारण मानते थे। मोदी वाराणसी से पूरे प्रदेश को संदेश देना चाहते थे। नीतीश भी ऐसा ही कर रहे हैं। मोदी जब वाराणसी से चुनाव लड़ने आये थे तो उन्हें यहां बसे गुजरात वोटरों पर काफी भरोसा था। वहीं नीतीश कुमार को अपनी बिरादरी के कुर्मी वोट लुभा रहे हैं। लब्बोलुआब यह है कि जनता दल युनाइटेड के अध्यक्ष और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपनी सियासत को मोदी की शैली में आगे बढ़ा रहे हैं।
मिशन 2019 पर निकले नीतीश के उत्तर प्रदेश पहुंच कर तेवर काफी बदले-बदले नजर आये। वाराणसी में भीड़ और उसके हौसले को देखकर उनके मंच से यह घोषणा तक कर दी जाती है कि महागठबंधन यूपी में अपने दम पर चुनाव लड़ेगा, लेकिन ऐसा स्वभाविक नहीं है। पूर्वांचल के एक मात्र सम्मेलन में जुटी भीड़ को देखकर सियासत की जमीनी हकीकत नहीं पहचानी जा सकती है। नीतीश को अच्छी तरह से पता है कि पूर्वांचल में उनकी बिरादरी के कुर्मियों का अच्छा खासा वोट बैक है। यह लोग संगठित तरीके से वोटिंग करते हैं, लेकिन वह किसके साथ जायेंगे इसके बारे में कोई राय नहीं बनाई जा सकती है। इसके अलावा कुर्मी वोटरों की पूरे प्रदेश में एक जैसी ताकत नहीं है। पूर्वांचल में कुर्मी वोट बैंक की ताकत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इन्हीं वोटरों के चक्कर में अपना दल के सोने लाल पटेल (अब मृत) ने पूर्वांवल में अपनी सियासी पारी खेली थी, जबकि वह मूल रूप से पूर्वांचल के बाहर के नेता थे। उनका जन्म कन्नौज में तो शिक्षा-दीक्षा कानपुर में हुई थी। सोने लाल ने अपना राजनैतिक कैरियर पूर्वांचल से आगे बढ़ाया था। सोने लाल पटेल की मौत के बाद उनकी बेटी सुप्रिया पटेल भी पूर्वांचल से ही अपनी ताकत में इजाफा करने में जुटी हैं। कुर्मी वोटर सभी दलों के लिये काफी अहम हैं। कभी यह वोट बैंक जनसंघ का हुआ करता था। आज की तारीख में यह बिखरा हुआ है। इस समय प्रदेश में कुर्मियों का कोई ऐसा नेता भी नहीं है जिसके पीछे सभी कुर्मी एकजुट हो सकें। सपा कुर्मी वोट बैंक को बचाये रखने के लिये काफी बेचैन है। वह इन्हें खोना नहीं चाहती है। इसीलिये मुलायम अपने नाराज मित्र और सपा छोड़कर कांग्रेस में गये बेनी प्रसाद वर्मा को मना करके एक बार फिर अपने पाले में ले आये है। मुलायम को जी भरकर कोसने वाले बेनी की तारीफ में कसीदे पढ़े जा रहे हैं।
मुद्दे पर आया जाये। नीतीश ने काफी सोच-विचार के बाद वाराणसी में अपनी पहली सभा रखी थी, ताकि जनता और उनके प्रतिद्वंदियों को उनकी ताकत का अहसास हो सके। वाराणसी में कुर्मियों की बड़ी आबादी तो है ही इसके अलावा बिहार से सटा जिला होने के कारण वाराणसी हमेशा बिहार के करीब रहता है। बिहारियों की भी यहां अच्छी खासी जनसख्ंया है। इन्हीं लोंगो ने नीतीश के कार्यक्रम की सफलता में चार चांद लगाये। नीतीश ने मोदी की तरह ही सभा में हिस्सा लेने आये लोंगो से शराबबंदी के मसले पर हाथ उठाकर सहमति देने को कहा। अपने भाषण के दौरान नीतीश ने कहा कि क्या यूपी के लोग नहीं चाहते कि यहां भी शराब बंदी हो। इसके लिए उन्होंने हाथ उठवाकर हामी भरवाई। बोले, मैं किसी बात को थोपना नहीं चाहता। शराबबंदी के फायदे भी गिनवाए, कहा जो नहीं पीते वे खुश हैं, महिलाएं खुश हैं। अब एक माह की बंदी के बाद जो पीने के आदी थे, वे भी खुश रहने लगे हैं कि चलो बंद हो गई। शराब बंदी का ढिंढोरा पीट कर नीतीश देश की आधी आबादी (महिलाओं) को वैसे ही लुभाना चाहते हैं जैसे मोदी ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसी योजनाओं के सहारे आधी आबादी को खुश कर रहे हैं।
अपने आप को डा0 राम मनोहर लोहिया का अनुयायी बताने वाले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जब शराब बंदी के लिये लोंगों से हाथ उठाकर सहमति मांगी तो अनायास ही अखिलेश सरकार और डा0 लोहिया के ही एक और अनुयायी सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव की याद ताजा हो गईं। एक तरफ नीतीश यूपी में भी शराब बंदी की बात कर रहे हैं तो दूसरी तरफ मुलायम की पार्टी 2012 के विधानसभा चुनाव इस शर्त पर जीतकर आई थी कि अगर उसकी सरकार बनेगी तो शाम की दवा (शराब) सस्ती कर दी जायेगी। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने यह कर भी दिखाया। अपनी सरकार के चौथे साल में उन्होंने शराब के दामों में भारी कटौती करके पियक्कड़ो का दिल जीत लिया था। डा0लोहिया के चेलों मुलायम-नीतीश में एक विरोधाभास और है। डा0 लोहिया की सियासत जहां कांग्रेस के विरोध पर टिकी थी, वहीं नीतीश कुमार पिछले दो वर्षों से कांग्रेस की जगह संघ मुक्त भारत की बात कर रहे हैं।
यूपी की सियासत को गरमाने आये नीतीश अपने पहले सफल दौरे से काफी खुश दिखे। वाराणसी के पिंडरा में आयोजित जनता दल युनाइटेड के कार्यकर्ता सम्मेलन में भीड़ तो खूब थी, लेकिन इसमें बिहार की भी गाड़ियों की अच्छी खासी तादात थीं। गाजियाबाद से लेकर गाजीपुर तक के वाहनों से कार्यकर्ताओं की जुटान भी। शहर से करीब 25 किलोमीटर दूर हुए सम्मेलन में शहर के भी कई चेहरे थे। भीड़ का जो आलम था, वह अपने आप में बहुत कुछ कह रहा था।
आमतौर पर जदयू का कोई खास अस्तित्व न तो बनारस में अब से पहले दिख रहा था, न ही आसपास के जिलों या सूबे के अन्य क्षेत्र में, लेकिन सच्चाई यह भी है कि पड़ोसी राज्य बिहार में अपना वर्चस्व रखने वाली इस पार्टी के लोगों का पूर्वांचल, खासकर बनारस से काफी जुड़ाव नीतीश ने जब मोदी के खोखले वादों की बात की तब भी तालियां बटोरीं और संघ का नाम लिया तब भी समर्थन मिला। 45 मिनट के भाषण में जब-जब शराबबंदी की बात आई, आधी आबादी ने दिल खोलकर तालियां बजाई। इसके साथ ही यह भी तय हो गया कि यूपी में नीतीश अपनी ताकत बढ़ाने के लिये बिहार में शराबबंदी को मजबूत हथियार बनायेंगे, लेकिन इस मुद्दे पर उन्हें मोदी सरकार को घेरना आसान नहीं होगा। गुजरात में पिछले 55 वर्षों से शराबबंदी चल रही है। वैसे भी शराब बंदी केन्द्र नहीं राज्य सरकारों के विवेक का मसला है।
बहरहाल, अच्छा होता अगर नीतीश शराब बंदी के अलावा यूपी-बिहार की समस्याओं पर भी खुल कर बोलते। बुंदेलखंड का सूखा, यूपी की बिगड़ी कानून व्यवस्था, बिहार में बढ़ते अपराधों के कारण यूपी में छूमिल होती अपनी छविं, प्रधानमंत्री बनने के उनके (नीतीश कुमार) अभियान को लेकर महागठबंधन के पार्टनर राष्ट्रीय जनता दल की बेरुखी, यूपी में महागठबंधन किससे हाथ मिलायेगा, यूपी में कौन होगा जदयू का चेहरा, मोदी सरकार पर हमला और सपा-बसपा के बारे में चुप्पी जेसे तमाम मुद्दे थे जिस पर जनता उनसे बहुत कुछ जानना चाहती थी, लेकिन वह मोदी की आलोचना और अपना गुणगान करने में ही उलझे रहे।=