मोदी केन्द्रित रहा यूपी चुनाव
उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनावी संग्राम समाप्त हो चुका है। अब नतीजों को लेकर सुगबुगाहट है तो चर्चा इस बात की भी चल रही है किस तरह से पूरे प्रचार के दौरान तमाम सियासी दल और धुरंधर सियासतदार जनता के मुद्दों को हासिये पर डाल कर अपने बनाये मुद्दों को हवा में उछालते रहे। सात चरणों में मतदान हुआ और हर चरण में ठीक वैसे ही मुद्दे बदलते रहे, जैसे ‘कोस-कोस पर पानी बदले, चार कोस पर वाणी।’ मुद्दे ही नहीं बदल रहे थे, हर चरण में प्रचार करने वाले चेहरों में भी बदलाव देखने को मिला। पश्चिमी यूपी में जब प्रचार हुआ तो तमाम दलों के जाट और मुस्लिम नेता बड़ी संख्या में प्रचार में जुटे थे, वहीं जब रूहेलखंड होते हुए प्रचार मध्य उत्तर प्रदेश में पहुंचा तो यहां ब्राह्मण, क्षत्रिय, दलित-पिछड़ा वर्ग के नेताओं की संख्या बढ़ गई। अवध से जब चुनावी सफर बुंदेलखंड और उससे सटे इलाकों के अलावा इलाहाबाद पट्टी की तरफ पहुंचा तो भी इसी तरह का बदलाव देखने को मिला। यह सिलसिला अंमित पड़ाव में वाराणसी और उसके आसपास के जिलों में भी देखने को मिला।
पश्चिमी उप्र से चुनावी बयार चली और आखिरी चरण में पूर्वी उप्र पहुंचते-पहुंचते पूरी तरह से यह धर्म और जातिवाद पर आकर सिमट गई। न अखिलेश का विकास का मुद्दा चला, न केन्द्र के कामों की ओर किसी ने ध्यान दिया। बसपा सुप्रीमो मायावती बार-बार कसम खाती रहीं कि उनकी सरकार बनी तो गुंडे जेलोें में होंगे, परंतु जब इससे बात नहीं बनी तो वह भी दलित-मुस्लिम का राग अलापने लगीं। पूरे प्रचार के दौरान मायावती ने दलितों को आरक्षण छिन जाने का खूब हौवा दिखाया। चुनावी मौसम में कब्रिस्तान, श्मशान, गधे, गैंडे सब चर्चा में आ गये। कहा जाता है कि एक झूठ को सौ बार बोला जाये तो वह भी सच नजर आने लगता है। यह तमाशा भी खूब देखने को मिला। लखनऊ में आज तक मेट्रो चली नहीं, लेकिन अखिलेश सरकार की उपलब्धियों वाले विज्ञापन में मेट्रो तीव्र गति से दौड़ती नजर आई। बीजेपी ने जब मेट्रो नहीं चलने का ढिढोरा पीटा तो सीएम अखिलेश टीम कहने लगी, केन्द्र एनओसी दे दे मेट्रो चल जायेगी। इसी प्रकार आगरा एक्सप्रेस वे पर भी अभी तक काम अधूरा है, लेकिन अखिलेश का गुणगान करने वाले विज्ञापनों में आगरा एक्सप्रेस वे की कथित खूबसूरती देखने लायक थी। आगरा वे का काम अधूरा है, इस बात की ताकीद इसी से हो जाती है कि राष्ट्रीय मार्ग का काम पूरा नहीं होने की वजह से अभी तक इस मार्ग पर यात्रियों से टोल टैक्स नहीं वसूला जा रहा है।
इसी तरह से बीजेपी वाले नोटबंदी से लेकर देश की अर्थव्यवस्था, सर्जिकल स्ट्राइक, किसानों की मदद आदि के नाम पर अपनी पीठ ठोंकते नजर आये तो लैपटॉप बांटने के लिये सपा की आलोचना करने वाली बीजेपी के नेता भी चुनाव जीतने पर लैपटॉप बांटने और मुफ्त शिक्षा, किसानों की कर्जमाफी जैसे वायदे करने लगे। दादरी से लेकर बाबरी तक और मुजफ्फरनगर से लेकर कैराना तक का दंगा और हिन्दुओं के पलायन का मसला भी खूब उठाया गया। राम लला तो हर चुनाव में आ ही जाते हैं। इस बार भी कुछ ऐसा ही देखने को मिला। गंगा-यमुना की बदहाली, बुलंदशहर में हाईवे पर मॉ-बेटी के साथ गैंग रेप, आजम खान और साक्षी महाराज जैसे नेता तो बदजुबानी के लिये कुख्यात हैं ही, लेकिन इस बार इन नेताओं से आगे निकलने के लिये भी कई नेताओं में होड़ लगी रही। सपा के प्रवक्ता और मंत्री राजेन्द्र चौधरी ने तो मोदी तथा अमित शाह को आतंकवादी तक कह दिया। यह सब चुनाव आयोग की नाक के नीचे होता रहा, लेकिन इस बार चुनाव आयोग सभी दलों के नेताओं के लिये थोड़ा नरम नजर आया।
खैर, सभी दलों के धुरंधर नेताओं ने बयानबाजी और नारे तो खूब उछाले, लेकिन चुनाव का एजेंडा सेट करने में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अव्वल रहे। पूरे प्रचार के दौरान तमाम दलों के नेता मोदी पर ही हमलावर रहे। इस वजह से यह चुनाव मोदी बनाम अन्य हो गया। सीएम अखिलेश यादव, कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी, बसपा सुप्रीमो मायावती, प्रियंका वाड्रा गांधी, सीएम की पत्नी ंिडंपल यादव हों या फिर राष्ट्रीय लोकदल के चौधरी अजित से लेकर ओवैसी तक, सभी पूरे प्रचार के दौरान ‘मोदी-मोदी’ करते नजर आये। यहां तक की बिहार से आये लालू भी मोदी के खौफ से निकल नहीं पाये और इस चक्कर में मर्यादा भी लांघ गये। मोदी एक जनसभा में कोई बयान देते तो पूरे दिन उनके खिलाफ विरोधी पलटवार करते रहते। नेता तो बोलते ही बोलते, प्रिंट से लेकर इलेक्ट्रानिक मीडिया तक भी मोदी के बयानों पर बहस के कार्यक्रम चलते रहते। इस चक्कर में कई बार मोदी विरोधी दलों की रणनीति भी छिन्न-भिन्न होती दिखी। यह सब तब हुआ जबकि कांग्रेस और अखिलेश के बीच गठबंधन होने के बाद दोंनों दलों के रणनीतिकारों ने काफी माथापच्ची करके तय कर लिया था कि अखिलेश और राहुल का विरोधियों पर ‘लाइन ऑफ अटैक’ क्या होगा और किन मुद्दों पर कौन नेता क्या और कितना बोलेंगे। इस पर पूरी रणनीति बनी थी और प्रत्येक रैली से कुछ घंटे पहले ताजा जानकारी के साथ तमाम बातें एक-दूसरे के बीच शेयर की जाती थीं,लेकिन यह तानाबाना कई बार टूटता रहा।
बात प्रथम चरण की करी जाये तो पीएम मोदी अखिलेश सरकार पर हमला कर रहे थे तो अखिलेश उसका बहुत सलीके के साथ पलटकर करके जवाब दे रहे थे। इन सवालों और जवाबों के बीच प्रदेश में राजनीति का एजेंडा सेट हो रहा था। बताते हैं कि अखिलेश मोदी के भाषणों पर कैसे और किस तरह हमला करेंगे और कौन सा मुद्दा किस तरह सामने लाएंगे, इसके लिए प्रशांत किशोर की अगुवाई में पूरी टीम लगी हुई थी। मगर चुनाव में प्रशांत ही अकेले रणनीतिकार नहीं थे। इसी वजह से शुरुआत में ही सपा और कांग्रेस के बीच तालमेल का अभाव साफ-साफ नजर आया। कई जगह दोंनो ही दलों के प्रत्याशी ताल ठोंकते नजर आये। इस बात को बीजेपी ने खूब हवा दी। गठबंधन पर सवाल खड़े किये।
अखिलेश के रणनीतिकारों ने तय किया था कि अखिलेश, पीएम मोदी पर तीखा हमला नहीं करेंगे क्योंकि ऐसा होने पर मोदी टीम पूर्व निर्धारित स्क्रिप्ट के हिसाब से अपना अजेंडा आगे कर सकती थी। शुरू-शुरू में इसका असर भी दिखा। मोदी के सीधे हमले का जवाब अखिलेश द्वारा हल्के-चुटीले अंदाज में दिया गया, लेकिन जब मोदी ने अखिलेश के नारे ‘काम बोलता है’ की खिल्ली उड़ाते हुए प्रदेश के गुंडाराज का खाका खींचते हुए कहना शुरू किया कि अखिलेश जी आपका काम नहीं, कारनामें बोलते हैं तो अलिखेश तिलमिला गये। मोदी ने अखिलेश शासन में बिगड़ी कानून व्यवस्था, लखनऊ की मेट्रो, डायल 100 सेवा, एम्बुलेंस सेवा और आगरा एक्सप्रेस वे की सच्चाई अपने तरीके से जनता के सामने पेश की थी। उधर, अखिलेश की तिलमिलाहट ने मोदी में नई उर्जा भर दी। इसके बाद तो एक जनसभा में पीएम मोदी ने अखिलेश सरकार पर जनता के बीच भेदभाव तक करने का आरोप लगा दिया। इस पर पहले तो अखिलेश और उनकी टीम ने सोशल मीडिया और रैलियों के माध्यम से भेदभाव की बात का खंडन करने की पूरी कोशिश की, लेकिन इसके जबाव में बीजेपी ने आंकड़ों के माध्यम से सच्चाई से पर्दा उठा दिया। अपने को फंसता देख अखिलेश सदी के महानायक अमिताभ बच्चन के बहाने मोदी को अपमानित करने में जुट गये। अखिलेश ने अमिताभ बच्चन को सलाह दी कि वह गुजरात के गधों का प्रचार (विज्ञापन) न करें, लेकिन बीजेपी ने इसका अर्थ यह समझाया कि अखिलेश अपने पीएम को गधा कह रहे हैं। यह बात सच भी लगी। असल में अखिलेश ऐसा कहते समय यह भूल गये कि बच्चन साहब अपने व्यवसायिक हित के तहत प्रचार कर रहे थे और जिन बच्चन साहब को वह नसीहत दे रहे थे उनकी ही मिसेज गुजरे जमाने की फिल्म अभिनेत्री जया भादुड़ी सपा के प्रचार में डिंपल के साथ पसीना बहा रही थीं। वैसे मोदी ने भी गधे वाले अखिलेश के बयान पर कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए अखिलेश को जातिवादी करार दिया और कहा वह जानवरों में भी भेदभाव करते हैं।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और बीजेपी वालों पर अखिलेश द्वारा ही नहीं 105 सीटों पर चुनाव लड़ रही कांग्रेस पार्टी के उपाध्यक्ष राहुल गांधी द्वारा भी हमला किया जा रहा था, लेकिन राहुल को यूपी की जनता ने कभी उतनी गंभीरता से नहीं लिया जितना अखिलेश को लेती है। इसीलिये पीएम अखिलेश की अज्ञानता पर सवाल उठा रहे थे।
खैर, हो सकता है कि शुरुआती चरणों में बसपा के प्रति मतदाताओं के रुझान की खबरों ने अखिलेश को विचलित कर दिया हो या फिर परिवार में जो कुछ चल रहा है उससे वह असहज महसूस कर रहे हों। नेताजी का चुनाव प्रचार से दूरी बनाये रखना अखिलेश के लिये शुभ संकेत नहीं था। उस पर नेताजी ने अपने भाई शिवपाल सिंह और छोटी बहू अपर्णा यादव के पक्ष में जनसभा करके अखिलेश के सामने नई मुसीबतें खड़ी कर दीं। प्रचार के दौरान बाप-चचा अखिलेश से दूरी बनाये रहे, लेकिन जब अखिलेश को लगा कि सपा के गढ़ (मुलायम के गृह जनपद वाली सीटें) में बाप-चचा की वजह से नुकसान हो सकता है तो कन्नौज की रैली में अखिलेश ने चचा शिवपाल का नाम लिये बिना उनपर हमला बोल दिया।
शिवपाल समर्थकों पर पथराव हुआ तो शिवपाल ने प्रशासन और अपने पार्टी विरोधियों को इसके लिये जिम्मेदार ठहरा दिया। शिवपाल ने यहां तक कह दिया कि उनको हरवाने की कोशिश की गई है। परिवार के झगड़े से जूझ रहे अखिलेश बिना वजह बेनी प्रसाद वर्मा पर बरस पड़े। जबकि चुनावी मौसम में एक अनुभवी और परिपक्व नेता इस तरह से विवादोें से बचता है। रही सही कसर सपा के दो विधायकों पर गैंगरेप और हत्या के आरोप लगने से पूरी हो गई। इस बीच प्रदेश का लॉ एंड आर्डर भी पूरी तरह से चरमराता गया। यही वजह थी जो अखिलेश अपनी सरकार के विकास का मुद्दा लेकर चुनाव मैदान में कूदे थे, वह अपनी सरकार का हिसाब देने की बजाये मोदी सरकार का हिसाब लेने में लग गये, जबकि वह (अखिलेश) जानते थे कि चुनाव मोदी सरकार के लिये नहीं हो रहा था।
मुद्दे से भटकने की वजह से अखिलेश के भाषणों की ताजगी जाती रही। अखिलेश सारा ध्यान मोदी के आरोपों की काट करने में निकालते रहे और मोदी एक मुद्दा उछाल कर दूसरे को हवा देते रहे। मोदी के भाषणों से साफ लग रहा था कि वह बीजेपी के पक्ष में वोटों के ध्रुवीकरण के साथ-साथ अखिलेश सरकार की कार्यशैली पर प्रमाण के साथ सवाल उठाकर अखिलेश को घेर रहे थे। यही वजह थी जब अखिलेश ने कहा कि मोदी गंगा की कसम खाकर बतायें कि वाराणसी को 24 घंटे बिजली नहीं मिलती है तो इसके जबाव में केन्द्र ने एक एनजीओ के डेटा और मीडिया रिपोट्र्स का हवाला देकर पूरी तरह से खारिज कर दिया। वाराणसी को 24 घंटे बिजली वाले बयान पर अखिलेश को बसपाई भी घेरने लगे। बसपाई कहते हैं जब पूरे प्रदेश में बिजली संकट है तो मोदी के संसदीय क्षेत्र पर अखिलेश सरकार क्यों मेहरबान है। इससे तो यही लगता है कि सपा-भाजपा वाले मिले हुए हैं।
पश्चिम से होते हुए जब चुनावी बयार पूर्वांचल पहुंची तो यहा बीजेपी ने पीएम नरेंद्र मोदी की अगुवाई में बड़े ही करीने से विकास की सियासत को ध्रुवीकरण की तरफ मोड़ दिया। त्योहारों में बिजली की कटौती सहित अखिलेश सरकार की बहुत सी योजनाओं में धार्मिक भेदभाव के आरोप पहले से ही बीजेपी नेता लगाते रहे थे, चुनावी मौसम में इसमें और भी तेजी आ गई। बीजेपी को उम्मीद थी कि धार्मिक भेदभाव को मुद्दा बनाने से जातीय दीवार तोड़ना उसके लिए आसान हो जायेगा। बीएसपी ने जिस तरह से खुलकर मुस्लिम दांव खेला है, अंसारी बंधुओं को चुनाव मैदान में उतारा है, उससे बीजेपी के लिए इस क्षेत्र में धु्रवीकरण की जमीन तैयार करना कोई मुश्किल काम नहीं था। हिंदुत्व के चेहरे के तौर पर योगी आदित्यनाथ व विहिप से आए प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य की ओर से पहले से उठाए हिन्दुत्व के तमाम सवालों को पीएम ने बहुत सलीके के साथ मजबूती देने का काम किया। लब्बोलुआब यह है कि उत्तर प्रदेश सभा चुनाव मोदी के इर्दगिर्द ही घूमता रहा। जनता ने किसकी बातों पर कितना विश्वास किया, यह देखने वाली बात है।
यह भी हुआ
लखनऊ में प्रेंस कांफ्रेस करके बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने सोची-समझी रणनीति के तहत घोषणा कर दी की जहां भी चुनाव हुआ वहां बीजेपी को सपा-कांग्रेस गठबंधन से नहीं बसपा से चुनौती मिली। यानी गठबंधन तीसरे नंबर पर। बीजेपी ने पूर्वांचल में इस बार गैर यादव ओबीसी और अति पिछड़ा वोटों पर काफी मेहनत की। सवर्ण वोटर भी उसके साथ खड़े दिखाई दे रहे हैं। बसपा सुप्रीमो मायावती अपने कोर दलित वोट बैंक के साथ ही मुस्लिमों को साधने में लगी रहीं। पूर्वांचल में बसपा सुप्रीमो का आत्मविश्वास इसलिए और भी बढ़ा नजर आ रहा है क्योंकि अखिलेश परिवार में हुए विवाद के चलते टिकट नहीं मिलने के कारण कई सपा नेताओं ने बीएसपी का दामन थाम लिया है। ऐसे में बीजेपी की रणनीति सपा को यहां कमजोर बता अपने वोटरों को बीएसपी का डर दिखाने की है। आम धारणा यही है कि गैर यादव पिछड़ा वर्ग और दलित दोनों की ही दूसरी पसंद बीजेपी है। इसलिए जहां एसपी जीतती दिखाई देती है वहां जाटव वोट बीजेपी में और जहां बीएसपी मजबूत है वहां यादव वोट बीजेपी में ट्रांसफर होने की गुंजाइश बनी है। बीजेपी को उम्मीद है कि बसपा को मजबूत बताने से पूर्वांचल में मौजूद 8 से 9 प्रतिशत फीसदी यादव बैंक में वह कुछ सेंध लगाने में कामयाब हो सकेगी। बीजेपी की शुरू से यह रणनीति रही है कि जिस चरण में जो मजबूत दिखे उसको कमजोर बताओ।
सियासी दांवपेंच
पश्चिमी यूपी के पहले चरण में बीएसपी दलित-मुस्लिम गठजोड़ में जुटी थी तो बीजेपी ने सारा दांव सपा पर लगाया जिससे मुस्लिम वोटों को बांटकर राह बनाई जा सके, जिसका असर भी होता दिखा। दूसरा चरण मुस्लिम बहुल क्षेत्र में था, जहां मुस्लिम वोटर अकेले ही निर्णायक थे तो वहां बीजेपी ने अपना दांव बीएसपी पर लगाया जिससे वोटों के बंटवारे की कवायद आगे बढ़ाई जा सके। तीसरा चरण सपा का गढ़ था जिसमें अखिलेश यादव की यादव बेल्ट भी शामिल हैं। बीजेपी ने अपना पूरा फोकस सपा पर बनाये रखा जिससे लॉ एंड ऑर्डर को मुद्दा बनाने के साथ ही गैर यादव वोटरों को भी अखिलेश के घर में बीजेपी के पक्ष में एकजुट किया जा सके। इसी रणनीति के तहत अंतिम चरण आते-आते बीजेपी अपने वोटरों को बसपा का डर दिखाने लगी।