मोदी : जनविश्वास पर खरा उतरने की चुनौती
जिस दौर में राजनीति और राजनेताओं के प्रति अनास्था अपने चरम पर हो, उसमें नरेंद्र मोदी का उदय हमें आश्वस्त करता है। नोटबंदी, कैसलेश जैसी तमाम नादानियों के बाद भी नरेंद्र मोदी लोगों के दुलारे बने हुए हैं, तो यह मामला गंभीर हो जाता है। आखिर वे क्या कारण हैं जिसके चलते नरेंद्र मोदी अपनी सत्ता के तीन साल पूरे करने के बाद भी लोकप्रियता के चरम पर हैं। उनका जादू चुनाव दर चुनाव जारी है और वे हैं कि देश-विदेश को मथे जा रहे हैं। इस मंथन से कितना विष और कितना अमृत निकलेगा यह तो वक्त बताएगा, पर यह कहने में संकोच नहीं करना चाहिए वे उम्मीदों को जगाने वाले नेता साबित हुए हैं। नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व का विश्लेषण करते हुए चार बातें सामने आती हैं- एक तो उनकी प्रामाणिकता अंसदिग्ध है, यानी उनकी नीयत पर आम जनता का भरोसा कायम है। दूसरा उन-सा अथक परिश्रम और पूर्णकालिक राजनेता अभी राष्ट्रीय परिदृश्य पर कोई और नहीं है। तीसरा ताबड़तोड़ और बड़े फैसले लेकर उन्होंने सबको यह बता दिया है कि सरकार क्या सकती है। इसमें लालबत्ती हटाने, सर्जिकल स्ट्राइक, नोटबंदी, कैशलेस अभियान और जीएसटी को जोड़ सकते हैं। चौथी सबसे बड़ी बात उन्होंने एक सोए हुए और अवसादग्रस्त देश में उम्मीदों का ज्वार खड़ा कर दिया है। आकांक्षाओं को जगाने वाले राजनेता होने के नाते उनसे लोग जुड़ते ही जा रहे हैं। ‘अच्छे दिन’ भले ही एक जुमले के रूप में याद किया जाए पर मोदी हैं कि देश के युवाओं के लिए अभी भी उम्मीदों का चेहरा है। यह सब इसके बाद भी कि लोग महंगाई से बेहाल हैं, बैंक अपनी दादागिरी पर आमादा हैं। हर ट्रांजिक्शन आप पर भारी पड़ रहा है। यानी आम लोग मुसीबतें सहकर, कष्ट में रहकर भी मोदी-मोदी कर रहे हैं तो इस जादू को समझना जरूरी है। अगर राजनीति ही निर्णायक है और चुनावी परिणाम ही सब कुछ कहते हैं तो मोदी पर सवाल उठाने में हमें जल्दी नहीं करनी चाहिए।
नोटबंदी के बाद उत्तर प्रदेश एक अग्निपरीक्षा सरीखा था, जिसमें नरेंद्र मोदी और उनकी टीम ने ऐतिहासिक प्रदर्शन किया है। ऐसे में आखिर क्या है जो मोदी को खास बनाता है। अपने कष्टों को भूल कर, बलिदानों को भूलकर भी हमें मोदी ही उम्मीद का चेहरा दिख रहे हैं। आप देखें तो आर्थिक मोर्चे पर हालात बदतर हैं। चीजों के दाम आसमान पर हैं। भरोसा न हो तो किसी भी शहर में सिर्फ टमाटर के दाम पूछ लीजिए। काश्मीर के मोर्चे पर हम लगातार पिट रहे हैं। सीमा पर भी अशांति है। पाक सीमा के साथ अब चीन सीमा पर भी हालात बुरे हैं। सरकार के मानवसंसाधन मंत्रालय का हाल बुरा है। तीन साल से नई शिक्षा नीति लाते-लाते अब उन्होंने कस्तूरीरंगन जी की अध्यक्षता में एक समिति बनाई है। जाहिर है हीलाहवाली और कामों की प्राथमिकता में इस सरकार का अन्य सरकारों जैसा बुरा है। दूसरा नौकरशाही पर अतिशय निर्भरता और अपने काडर और राजनीतिक तंत्र पर अविश्वास इस सरकार की दूसरी विशेषता है। लोगों को बेईमान मानकर बनाई जा रही नीतियां आर्थिक क्षेत्र में साफ दिखती हैं। जिसका परिणाम छोटे व्यापारियों और आम आदमी पर पड़ रहा है। बैंक और छोटी जमा पर घटती ब्याज दरें इसका उदाहरण हैं। यहां तक कि सुकन्या समृद्धि और किसान बचत पत्र भी इस सरकार की आंख में चुभ रहे हैं। आम आदमी के भरोसे और विश्वास पर चढ़कर आई सरकार की नीतियां आश्चर्य चकित करती हैं। विश्व की मंदी के दौर में भी हमारे सामान्य जनों की बचत ने इस देश की अर्थव्यवस्था को बचाए रखा, आज हालात यह हैं कि हमारी बचत की आदतों को हतोत्साहित करने और एक उपभोक्तावादी समाज बनाने के रास्ते पर सरकार की आर्थिक नीतियां हैं। आखिर छोटी बचत को हतोत्साहित कर, बैकों को सामान्य सेवाओं के लिए भी उपभोक्ताओ से पैसे लेने की बढ़ती प्रवृत्ति खतरनाक ही कही जाएगी। आज हालात यह हैं कि लोगों को अपने बैंक में जमा पैसे पर भी भरोसा नहीं रहा। इस बढ़ते अविश्वास के लिए निश्चित ही सरकार ही जिम्मेदार है।
अब सवाल यह उठता है कि इतना सारा कुछ जनविरोधी तंत्र होने के बाद भी मोदी की जय-जयकार क्यों लग रही है। इसके लिए हमें इतिहास की वीथिकाओं में जाना होगा जहां लोग अपने ताकतवर नेता पर भरोसा करते हैं और उससे जुड़ना चाहते हैं। आज अगर नरेंद्र मोदी की तुलना इंदिरा गांधी से हो रही है तो कुछ गलत नहीं है। क्योंकि उनकी तुलना मनमोहन सिंह से नहीं हो सकती। किंतु मनमोहन सिंह के दस साल को गफलत और गलतियों भरे समय ने ही नरेंद्र मोदी को यह अवसर दिया है। मनमोहन सिंह ने देश को यह अहसास कराया कि देश को एक ताकतवर नेता की जरूरत है जो कड़े और त्वरित फैसले ले सके। उस समय अपने व्यापक संगठन आधार और गुजरात की सरकार के कार्यकाल के आधार पर नरेंद्र मोदी ही सर्वोच्च विकल्प थे। यह मनमोहन मार्का राजनीति से ऊब थी जिसने मोदी को एक बड़ा आकाश दिया। यह अलग बात है कि नरेंद्र मोदी अब प्रशासनिक स्तर पर जो भी कर रहे हों पर राजनीतिक फैसले बहुत सोच-समझ कर ले रहे हैं। उप्र में योगी आदित्यनाथ की ताजपोशी से लेकर राष्ट्रपति चयन तक उनकी दूरदर्शिता और राजनीति केंद्रित निर्णय सबके सामने हैं।
जाहिर तौर पर मोदी इस समय की राजनीति का प्रश्न और उत्तर दोनों हैं। वे संकटकाल से उपजे नेता हैं और उन्हें समाधान कारक नेता होना चाहिए। जैसे बेरोजगारी के विकराल प्रश्न पर, सरकार की बेबसी साफ दिखती है। प्रचार, इवेंट्स और नारों से अलग इस सरकार के रिपोर्ट कार्ड का आकलन जब भी होगा, उससे वे सारे सवाल पूछे जाएंगें, जो बाकी सत्ताधीशों से पूछे गए। भावनात्मक भाषणों, राष्ट्रवादी विचारों से आगे एक लंबी जिंदगी भी है जो हमेशा अपने लिए सुखों, सुविधाओं और सुरक्षा की मांग करती है। आक्रामक गौरक्षक, काश्मीर घाटी के पत्थरबाज, नक्सली आतंकी एक सवाल की तरह हमारे सामने हैं। आकांक्षाएं जगाने के साथ आकांक्षाओं को संबोधित करना भी जरूरी है। नरेंद्र मोदी के लिए आने वाला समय इस अर्थ में सरल है कि विपक्ष उनके लिए कोई चुनौती पेश नहीं कर पा रहा है, पर इस अर्थ में उनकी चुनौती बहुत कठिन है कि वे उम्मीदों को जगाने वाले नेता हैं और उम्मीदें तोड़ नहीं सकते। अब नरेंद्र मोदी की जंग दरअसल खुद नरेंद्र मोदी से है। वे ही स्वयं के प्रतिद्वंद्वी हैं। 2014 के चुनाव अभियान में गूंजती उनकी आवाज “मैं देश नहीं झुकने दूंगा”, लोगों के कानों में गूंज रही है। आज के प्रधानमंत्री के लिए ये आवाजें एक चुनौती की तरह हैं, क्योंकि उसने देशवासियों से अच्छे दिन लाने के वादे पर वोट लिए थे। लोग भी आपको वोट करते रहेगें जब उन्हें भरोसा ना हो जाए कि 2014 का आपका सारा चुनाव अभियान और उसके नारे एक ‘जुमले’ की तरह थे। ‘कांग्रेसमुक्त भारत’ के लिए देश ने आपको वोट नहीं दिए थे। कांग्रेस की सरकार से ज्यादा मानवीय, ज्यादा जनधर्मी, ज्यादा संवेदनशील शासन के लिए लोगों ने आपको चुना था, ‘साहेब’ भी शायद इस भावना को समझ रहे होगें।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)