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मोहम्मद रफी को फकीर से मिली थी संगीत की प्रेरणा

सुरों के जादूगर मोहम्मद रफी को सब प्यार से ‘फीको’ बुलाते थे। आप को ये जानकर हैरानी होगी कि इतने बडे़ आवाज के को संगीत की प्रेरणा एक फकीर से मिली थी। कहते हैं जब रफी छोटे थे तब इनके बड़े भाई की नाई दुकान थी, रफी का ज्यादातर समय वहीं पर गुजरता था। रफी जब सात साल के थे तो वे अपने बड़े भाई की दुकान से होकर गुजरने वाले एक फकीर का पीछा किया करते थे जो उधर से गाते हुए जाया करता था। उसकी आवाज रफी को अच्छी लगती थी और रफी उसकी नकल किया करते थे।मोहम्मद रफी को फकीर से मिली थी संगीत की प्रेरणा

मोहम्मद रफी ने उस्ताद अब्दुल वाहिद खान, पंडित जीवन लाल मट्टू और फिरोज निजामी से शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ली थी। मात्र 13 साल की उम्र में मोहम्मद रफी ने लाहौर में उस जमाने के मशहूर अभिनेता ‘के एल सहगल’ के गानों को गाकर पब्लिक परफॉर्मेंस दी थी। रफी साहब ने सबसे पहले लाहौर में पंजाबी फिल्म ‘गुल बलोच’ के लिए ‘सोनिये नी, हीरिये नी’ गाना गाया था। मोहम्मद रफी ने मुंबई आकर साल 1944 में पहली बार हिंदी फिल्म ‘गांव की गोरी’ के लिए गीत गाया था।

मोहम्मद रफी को सब दयालु सिंगर कह कर पुकारते थे, क्योंकि वो गाने के लिए कभी भी फीस का जिक्र नहीं करते थे और कभी कभी तो 1 रुपये में भी गीत गए दिया करते थे। मोहम्मद रफी ने सबसे ज्यादा डुएट गाने ‘आशा भोसले’ के साथ गाए हैं। रफी साब ने सिंगर किशोर कुमार के लिए भी उनकी दो फिल्मों ‘बड़े सरकार’ और ‘रागिनी’ में आवाज दी थी। मोहम्मद रफी को ‘क्या हुआ तेरा वाद’ गाने के लिए ‘नेशनल अवॉर्ड’ से सम्मानित किया गया था। 1967 में उन्हें भारत सरकार की तरफ से ‘पद्मश्री’ अवॉर्ड से भी सम्मानित किया गया।
मोहम्मद रफी को दिल का दौरा पड़ने की वजह से 31 जुलाई 1980 को देहांत हो गया था।

रफी साहब की गायकी

पूरी दुनिया में आज मोहम्मद रफ़ी की गायिकी के शौकीन उनका 93वां जन्मदिन मना रहे हैं। मोहम्मद रफी अपनी सुरीली और रोमांटिक आवाज़ की वजह से अब तक लोगों के दिल पर राज कर रहे हैं, या यूं कहें कि आगे भी करेंगे।रफ़ी अपने समय के सभी सुपर स्टार्स जैसे कि दिलीप कुमार, भारत भूषण, देवानंद, शम्मी कपूर, राजेश खन्ना और धर्मेंद्र की आवाज़ बने।

रफ़ी जब छोटे थे, तभी उनका परिवार लाहौर से अमृतसर आ गया था। रफी के बड़े भाई की नाई की दुकान थी। रफी ज्यादा समय वहीं बिताया करते थे। कहा जाता है कि एक फकीर हर रोज़ उस दुकान से होकर गुजरा करते थे। सात साल के रफ़ी रोज़ उनके पीछे लग जाते और फकीर के साथ गुनगुनाते रहते। रफ़ी के बड़े भाई मोहम्मद हमीद ने जब देखा की उनकी दिलचस्पी गायन में बढ़ती जा रही है तो उन्होंने उस्ताद अब्दुल वाहिद खान से परंपरागत शिक्षा प्राप्त करने की सलाह दी।

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