यहाँ सब ठीक है
कहानी
पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार के अंचल में नई-नई तरक्की का दौर है, अब वाराणसी से सत्यकाम के गाँव सीहर तक बस जाने लगी है, लेकिन आखिरी बस अपराह्न दो बजे होती है। उत्तर प्रदेश की बस राज्य की सीमा तक जाती है सवारियों को वहाँ से आगे ले जाने के लिए अब बिहार की अपनी बसें हैं, लेकिन शाम पाँच बजे के बाद कोई बस नहीं जाती। सड़क काफी टूट चुकी है और लंबी-लंबी दूरियों तक कच्ची सड़क का रूप ले चुकी है। दोनों ओर छोटे-छोटे गाँवों के बीच धान के खेत फैले हुए हैं। सूर्यास्ती के साथ-साथ इस समूचे अंचल में एक सन्नाटा भरा अंधकार घिरने लगता है और हवा के चलने से एक पोशीदा आवाज सुनाई पड़ने लगती है। पास के कस्बे से होकर गाँव में बिजली के तार अब खिंच गए हैं, लेकिन बिजली खास इनायत की तरह कभी-कदास ही आती है, और तब गाँव के नौजवानों और बच्चों की जिंदगी में इससे रोशनी के कुछ रंग बनने लगते हैं और माहौल उत्सव जैसा हो जाता है। बाकी वक्त में जब सारा आलम मायूस अंधेरे की गिरफ्त में होता है, दिन जल्दी खत्म हो जाते हैं और ढिबरियों और लालटेनों की पीली रोशनी में रातें बेहद बीमार और कमजोर नजर आने लगती हैं।
गावों की सड़कें जो कि अब इस अंचल के संचारतंत्र की खास धमनी की तरह गाँवों से लगी हुई हैं, गाँवों के साझे और रोजमर्रा के जीवन से भी अभिन्न रूप से जुड़ी है, और अब गलियारों, चौपाल और कुछ हद तक आँगनों का भी काफी हिस्सा गाँवों से लगी हुई सड़क के फैलाव, कगारों और पुलियों में जज्ब हो चुका है।
सत्यकाम बंबई से इस बार बच्चों की छुट्टियों में सपरिवार गाँव आए तो काफी बदलाव नजर आया। सुबह बच्चों को लेकर सड़क पर निकले। मालूम हुआ कि तड़के भोर से बिजली भी आ चुकी है। सड़क की दूसरी ओर धान के खेतों के बीच एक द्वीप बनाता निझावन सिंह का ट्यूबवेल है जिसके गिर्द मौसमी सब्जी की क्याारियाँ हैं, ट्यूबवेल अपनी रफ्तार में था और कई लोग धरती की कोख से निकलते ताजे गुनगुने जल में स्नान का आनंद ले रहे थे। सत्यकाम ने भी यहीं नहाने धोने का कार्यक्रम बनाया। बच्चे खुश हो गए।
ट्यूबवेल तक जाने में उनकी कुछ लोगों के साथ दुआ-सलाम हुई। वली सिंह उधर से ही लौट रहे थे, उन्हें रोक कर राम-राम की, बोले- सुना, आप रात में आए, सब ठीक तो है? आप तो गाँव को भूल ही गए? ऐसे भी कोई अपनों पर नाराज होता है? सत्यकाम ने कुशल बताई। वली सिंह ने फिर टोह ली – अब तो तरक्की, हो गई है? सुना है पे कमीसन में सैलरी में काफी इजाफा हो गया है?
सत्यकाम को काफी अटपटा लगा, प्रसंग बदलते हुए बताया कि किस तरह शहरों में महंगाई ने हालत खराब कर रखी है। उनका छोटा बेटा उँगली पकड़ कर खड़ा था, कौतूहल से उनकी बातें सुन रहा था। वली सिंह उसके सिर पर हाथ फेरने लगे, बोले यहाँ से तो अच्छा ही है। कम से कम चैन की नींद तो है। यहाँ तो सुनेंगे कि आप महीने का इतना पाते हैं, तो आपके बच्चे को ही उठा ले जाएँगे। बहुत खराब हालत है।
बेटे ने अपनी कलाई पर पिता के पंजों का कसाव महसूस किया और हाथ छुड़ाना चाहा। वली सिंह कोई धुन छेड़ते आगे बढ़ गए थे। सत्यकाम कुछ देर अवाक खड़े रहे। सत्यकाम ट्यूबवेल पर पहुँचे तो चर्चा गर्म थी। उनसे भी हाल-चाल होने लगी। बेचन पांडे एक तरफ बैठे थे। खसखसी दाढ़ी और लाल आँखों में कुछ अशांत लगे, खैनी ठोंकते हुए बोले भैया, हम लोगों का भी कुछ वसीला शहर में ही लगवा देते तो अच्छा रहता। यहाँ क्या है? न पानी है, न खेती है। ऊपर से कब जान-जिंदगी पर बन जाए ये अलग?
सत्यकाम ने पूछा – क्यों, किसी से अदावत चल रही है क्या? बेचन पांडे ने दाँतों की जड़ में खैनी जमाते हुए तल्खी से देखा। दो क्षण रुक कर थोड़ा सहज हुए, बोले – अब भैया, आपको भी ख्याल खबर होगी, जुगों बाद तो आपके दर्शन भये हैं गाँव में? जान-जोखिम के लिए जाती दुश्मनी वाली बातें अब पुरानी हो गईं हैं। अब तो बस जात चिन्हा दो और जान से जाओ। हे शंकर हे शंकऱ.़ कहते हुए पांडे जी उद्विग्नता से घुटनों पर हाथ रख कर उठ खड़े हुए और कछारों की ओर चल दिए।
उनके कुछ दूर निकल जाने के बाद घुरऊ सिंह ने सन्नाटा तोड़ा, पांडे जी की ओर तिरछी नजर से देखा, आवाज नीची कर बोले- थोड़ा सनक गए हैं। दो महीने हो गए, बेटे का अपहरण हो गया है। हाकिम से लेकर मिनिस्टर तक दौड़-धूप में परेशान हैं बिचारे। सत्यकाम का कलेजा जैसे हलक में फँस गया, बोले, बेटा?
सयाना बेटा है? घुरऊ सिंह ने बताया। शादी-ब्याह की बातचीत चल रही थी, सरे-साँझ कछार के पास जीप में कुछ लोग आए, जबरदस्ती उठा कर ले गए। इनका सूद-वूद पर भी तो काफी पैसा चलता है इधर दो-चार गाँवों में।
मुन्ना शुकुल लुंगी में साबुन लगा रहे थे, कान इधर ही थे, हाथ रोककर बोले – इधर नई लहर चली है। जात-कुजात, ऊंच-नीच का सब पैमाना ही उल्टा हो रहा है। बड़ा टेंशन है। रात-बिरात सड़क पर कोई नहीं निकलता, न किसी के पूछने पर कोई जात बताता है।
मड़ई में खाट पड़ी थी। निझावन सिंह का भतीजा वहां बैठा इनकी बातों का मजा ले रहा था, उसने कंबल हटा कर बंदूक दिखाई, बोला – हर घड़ी बड़े इंतजाम से रहना पड़ता है, चाचा। सत्यकाम बच्चों सहित यथाशीघ्र स्नान निपटा कर घर आ गए। सारे दिन उनका मन बहुत उचाट बना रहा। शाम को उन्हें चौधरी लोगों की देहरी पर मिलने जाना था, उसे मुल्तवी कर दिया। छत के ऊपर चहलकदमी करते रहे। सुखरंजन भैया खलिहान से लौटे, तो यह जानकार कि सत्यकाम छत पर हैं, वही आ गए। पूछा- तबियत कुछ ठीक नहीं है क्या?
सत्यकाम का ध्यान भंग हुआ, बोले – ऐसा कुछ नहीं। चौधरी लोगों के यहाँ हो आना चाहता था, सोचा, कल सुबह हो आऊँगा। सुखरंजन सिर झुका कर बोले- अब वहाँ कौन है? पिछले साल बड़े चौधरी को गोली मार दी गई। दोनों छोटे भाई अब पटना में बस गए हैं, प्रापर्टी बिजनेस का काम शुरू कर दिया है। खेती-बाड़ी सब धीरे-धीरे खत्म हो रही है। सत्यकाम हैरत में हो कर सुनते रहे। भाभी शाम का कलेवा लेकर आईं। दोनों के लिए कलेवा लगा कर पंखा झलते हुए बोलीं – बबुआ जी, पुरानी बातें जी से निकाल दीजिए और अब थोड़ी बहुत यहाँ की सुधबुध लीजिए। एक बार मेहमान की तरह आ कर चले जाने से काम नहीं चलेगा बबुआ जी। महीने-दो महीने की छुट्टी लेकर आइए, कुछ खेती-गृहस्थी में भी हाथ बटाइए। आपके भैया अकेले दम हलकान होते रहते हैं। आपका थोड़ा सहारा हो, तो इनके लिए बहुत हो।
सुखरंजन सिर झुकाकर खाने में लगे थे, हाथ रोककर बोले- रामाशीश राय के घर की हालत तुमने देखी ही थी। कल उनके यहाँ होकर आना। जबसे भाइयों ने मिल कर नया ट्रैक्टर खरीदा है, खेती और घर की दशा बिल्कुल बदल गई है। अगर एक जेट ट्रैक्टर यहाँ अपने पास हो जाए, तो हमारे खेत उनसे बीस साबित हों। लड़कों का मन पढ़ने-लिखने में बिल्कुल नहीं है। ट्रैक्टर हो, तो ऑफ-सीजन में ईंटों वगैरह के काम में बहुत आमदनी है।
सत्यकाम कलेवा पहले ही खत्म कर चुके थे। मुंडेर से लगे, शून्य में देखते रहे। नीचे दूर तक गाँव एक आँगन की तरह फैला हुआ था। रात को सोने से पहले सुमन दूध का ग्लास देने आई, तो पास बैठ कर बोली- आज दिन भर कई घरों की औरतें आती-जाती रहीं। आपने यहाँ के हाल-चाल सुने? हमें तो बेहद डर लगने लगा है। इन छुट्टियों में यहाँ आने की बजाय बच्चों को वहीं कंप्यूटर कोर्स ही करवा दिया होता। लौटने का कब प्रोग्राम बना रहे हैं?
अगर वाराणसी को इस अंचल का सिर कहें तो मुगलसराय का दर्जा दिल से कम नहीं है। रेलवे जंक्शन होने के कारण इसका खास व्यावसायिक महत्व हो गया है। देश का प्रमुखतम व्यावसायिक मार्ग जीटी रोड इस जंक्शन से होते हुए गुजरता है और इस अंचल की उक्तियों, गीतों, कहानियों और चुटकुलों में समा चुका है कपड़े, फल-सब्जियाँ और गृहस्थी की आम जरूरत की चीजें यहाँ प्रचुर और सस्ती हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार के आसपास के तमाम गाँवों की रोजमर्रा की खरीदारी का प्रमुख बाजार होने के साथ-साथ ब्याह-शादी और तीज-त्यौहार के समेत अवसरों पर इसकी शक्ल में एक निजी सांस्कृतिक रंग चढ़ जाता है और इसकी हाटों और गलियों में रंग-बिरंगे ट्रैक्टरों में भरे नौजवानों और नव-विवाहितों की जोड़ियों की रेलमपेल हो जाती है। इस अंचल का आधुनिकता और नवप्रवृत्तियों का प्रवेश द्वार भी यही है। सजावटी सामानों, इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं और परिधानों का बंबई और दिल्ली का नवीनतम फैशन यहीं से होकर इस अंचल के गाँवों की ओर रुख करता है।
सुखरंजन को त्योहार की कुछ रस्मी खरीदारियाँ निपटानी थीं, सत्यकाम का भी इस अंचल में थोड़ा घूम आने का मन था, तो तय हुआ कि वे और सत्यकाम मुगलसराय हो आएँ। सुबह पाँच बजे की बस से वे चले गए। दोपहर तक खास-खास खरीदारी कर लेने के बाद अभी लगा कि काफी फुटकर चीजें रह गई हैं और वापसी की बस का वक्त हाथ से निकलता जा रहा है। गाँव से कुछ लड़के पढ़ाई-लिखाई के सिलसिले में यहाँ रहते थे, वहाँ रुकने का इंतजाम था, लेकिन सत्यकाम की मनोदशा रुकने की बिलकुल नहीं थी। सुमन और बच्चे गाँव की रवायत से बहुत वाकिफ नहीं थे और उन्हें उनकी जरूरत पड़ सकती थी। अत: तय हुआ कि वे घर लौट जाएँ, सुखरंजन सारी चीजें ले-लिवाकर कल आ जाएँगे।
इस बातचीत में यूपी बार्डर के लिए डेढ़ बजे एक लॉरी मिलते-मिलते टूट गई। कोई पन्द्रह मिनट बाद दूसरी बस आकर लगी। सत्यकाम को जगह मिल गई और वे बैठ गए। पाँच बजे तक बार्डर पहुँच जाने के लिए अभी काफी वक्त था। सत्यकाम ने राहत की सांस ली। दिन भर की थकान से सत्यकाम की देह टूट रही थी। उन्हें झपकी आ गई। बीच-बीच में लगता कि बस चल रही है, कभी रुक जाती है सवारियाँ बुरी तरह ठुँसी हुई थीं और काफी शोरगुल था। शोर एकरस हो तो पाश्र्व संगीत का रूप ले लेता है। सत्यकाम को मजे की नींद आ रही थी। करीब घंटे भर बाद वे चैतन्य हुए। यह जायजा लेने के लिए कि बार्डर कितनी दूर रह गया है, उन्होंने खिड़की से बाहर झाँककर देखा और बुरी तरह घबरा गए। यह तो मुगलसराय ही है। बस जीटी रोड पर थी। आगे जहाँ तक नजर जाती थी, रुकी हुई ट्रकों, बसों और ट्रैक्टरों का कारवाँ था। बस ट्रैफिक-जाम में फँस गई थी। कई खोमचेवाले इर्द-गिर्द जमा हो गए थे और यात्रियों में उनकी चीजें बिक रही थीं। बस देर-देर बाद दो-चार मिनटों के लिए चलती, फिर रुक जाती। जब मुगलसराय की सीमा से वे बाहर निकले तो पाँच बज रहे थे। ट्रैफिक-जाम का प्रभाव अभी तक था। स्वाभाविक आवागमन अभी शुरू नहीं हुआ था। बस काफी धीरे चल रही थी।
कुछ-एक सवारियों ने उनकी परेशानी को भाँपा। एक बुजुर्ग ने पूछा – कहाँ जाना है ? सत्यकाम ने तफसील बताई। यह सुनकर कि उन्हें सीमा के आगे से बिहार की बस पकड़नी है, आगे के कई यात्रियों ने तुरंत पलट कर पीछे देखा। बुजुर्ग ने शंका की- अब तो अबेर हो गई है। बस कहाँ मिलेगी? किसी ने राय दी- अभी मुगलसराय बहुत पीछे नहीं छूटा है, यहीं से वापस लॉरी पकड़ लीजिए। किसी होटल में रुक जाइए। सत्यकाम विचलित होने लगे। सोचा- रुक ही गया होता तो ठीक था। बच्चों का ख्याल आया, मन में दृढ़ता आई। उन्होंने कहा- देखें, कुछ न कुछ साधन तो मिलेगा ही। जाना जरूरी है।
कई लोग उन्हें कौतूहल से देखने लगे। कहीं बाहर से आ रहे हैं? बिहार में रिश्तेदारी है? इधर कहीं गाँव-कस्बे में कोई पहचान है? बार्डर पर कोई जानता है? सत्यकाम प्रश्नों से परेशान होने लगे। बोले, मेरे लिए चिंता की बात नहीं है। यहीं का हूँ। जरूरी हुआ तो पैदल भी जा सकता हूँ। उनके खुद के शब्द उनके कानों में देर तक गूँजते रहे।
बार्डर से पहले पड़ने वाले आखिरी कस्बें को पार करते-करते अंधेरा छाने लगा। आगे बार्डर तक बिल्कुल ग्रामीण अंचल था और खस्ता हाल सड़क थी। सड़क के दोनों ओर गाँवों में सन्नाटा था। फिर भी वे उत्तर प्रदेश की सीमा में थे, यह विचार एक रोशनी की तरह उनके साथ था। वे कस्बे से कोई आठ-दस किलोमीटर आगे आ गए। अचानक बस घरघरा कर रुक गई। यात्रियों में खुसर-पुसर होने लगी। किसी ने कड़ककर कंडक्टर से पूछा – क्यां बात है भाई? बस क्यों रोक दी?
बस का चालक दल आपस में बातें करता रहा। पता चला, पेट्रोल खत्म- हो गया है। सत्यकाम ने घड़ी में समय देखा रात के आठ बजने वाले थे। यात्रियों में आपस में पूछताछ चल रही थी। पिछले कस्बे में ही उत्तर प्रदेश का आखिरी पेट्रोल पंप था। वहाँ नाके पर मजिस्ट्रेट चेकिंग चल रही थी। ठसम-ठस सवारियाँ भर लेने के एवज में चालान कट रहे थे। चालक दल उससे बचकर बस को बाईपास से लाया था, इसलिए पेट्रोल नहीं लिया जा सका। अनुमान था कि रिजर्व में बार्डर तक तो पहुँच ही जाएगी। बार्डर अभी लगभग आठ किलोमीटर आगे था। तभी उधर से एक लॉरी आई। कंडक्टर एक खाली पीपा लेकर लरी पर सवार हो गया। दूसरी बस से पेट्रोल लेकर लौटने में उसे घंटा भर लग सकता है। यात्री बस में से बाहर आ गए और गोल बना-बना कर सड़क पर बैठ गए। आधे घंटे यूँ ही बीत गए। तभी कस्बे की तरफ से एक मिनी बस आती दिखाई दी। यात्री गोल तोड़कर उठ खड़े हुए। स्थिति को भाँप कर मिनी बस का कंडक्टर गेट पर खड़े होकर आवाजें लगाने लगा- बीस रुपए सवारी-बीस रुपए सवारी़.़ वह स्थिति का चार गुना फायदा उठाना चाहता था। कुछ यात्री उसमें चले गए। सत्यकाम ने भी उस मिनीबस को गनीमत समझा। नौ बजते-बजते वे बार्डर पहुँच गए। यात्री उतरकर शीघ्रता से अगल-बगल के गाँवों की राह लगे जो चंद कदमों के फासले पर थे।
सर्द मौसम में गाँवों के जीवन में यह खा-पीकर सो जाने वाला समय था। आगे बिहार का बीहड़ था और सत्यकाम को उसमें जाना था। साधन कोई नहीं। बस होती तो कोई घंटे भर में गाँव पहुँच जाते। तेज रफ्तार चलें तो दो-ढाई घंटों में पैदल भी पहुँच सकते हैं। बार्डर पर चंद गुमटियाँ चाय-नाश्ते की हैं, जो लगभग बंद हो चुकी थीं।
एक दुकानवाला दुकान की आखिरी झाड़ू-बुहारी कर चारपाई लगाने की जुगत में था। सत्यकाम ने आगे जाने के साधन के बारे में उससे जायजा लेना चाहा। गाँव का नाम बताया। दुकानवाला हैरत से उन्हें देखने लगा। बोला- परदेशी हैं भैया? कहाँ इस बेला में जाने की बात कर रहे हैं? हम तो कहेंगे, हनुमान जी का नाम लेकर यहीं विश्राम कीजिए, सबेरे की बस से निकल जाइएगा। सत्यकाम ने आग्रह किया- जाना जरूरी है, अगर किसी से एक साइकिल मिल सकती तो मैं सुबह वापस भिजवा देता।
दुकानवाला घबराया, तेजी से सिर हिला कर बोला – इस वक्त साइकिल? जो हो भी, तो कोई क्यों व आपको देकर इल्जाम सिर पर लेगा? हमारी मानें भैया, कैसा भी जरूरी हो इस वक्त जाने लायक नहीं है। सत्यकाम थोड़ा विचलित हुए। लेकिन अब यहाँ तक आकर यहाँ रुक जाने में कोई तुक नहीं था। उनके और बच्चों के बीच अब सिर्फ एक निरीह साधनहीनता का फासला था। अचानक शौर्य की एक तेज प्रकाश किरण उनके हृदय में फूटने लगी। बिजली की तरह एक विचार उनके मन में आया। उन्होंने उस बूढ़े से पूछा- बार्डर पुलिस का कैम्प किधर है? मैं उनसे बात करता हूँ। बूढ़े ने गुमटी से बाहर आकर रास्ता दिखाया – ये पूरब-उत्तर का कोना पकड़ लीजिए। पाँच-सात मिनट में गुमटी मिलेगी। वही है।
सत्यकाम थोड़ी देर चले ही थे कि पीछे से एक मोटरसाइकिल आती दिखी। उन्हें आशा बँधी। लिफ्ट देने के लिए इशारा किया। उसने दूर से ही उन पर तेज ताड़ती हुई नजर डाली और रफ्तार बढ़ा कर सर्र से निकल गया। वे हैरान रह गए। बार्डर पुलिस की गुमटी के पास सुनसान छाया हुआ था। उन्होंने नजदीक पहुँच कर आवाज दी – यहाँ ड्यूटी पर कौन है? सुनकर एक व्यक्ति बनियान और लुंगी पहने बाहर आया। सत्यकाम की ओर सावधान भाँपती सी नजर डालते हुए बोला – सुस्वागतम, आया जाय। सत्यकाम ने पूछा – आप ही यहाँ इंचार्ज हैं?
सत्यकाम के लहजे से वह प्रभावित लगा। उसने उन्हें अंदर आने का इशारा किया, बोला – इंचार्ज भी मिल जाएँगे, आएँ, पहले बैठा जाए। फिर किसी को चाय के लिए आवाज दी।
बगल की गुमटी से राइफल और टार्च लिए दो जवान बाहर निकले। एक आकर वहाँ खड़ा हो गया और दूसरा आदेश-पालन के लिए दूसरी ओर चला गया जिधर शायद कोई दुकान थी। अंदर दो-तीन लकड़ी की कुर्सियाँ पड़ी थीं। एक पर खाकी कमीज और लुंगी में गोरे से एक व्यक्ति बैठे हुए थे। उन्हें लगा, शायद यही इन्चार्ज हैं। सत्यकाम ने अपने गाँव का नाम-पता बताकर परिचय दिया। परिचय पत्र हमेशा कमीज की जेब में रखने की आदत थी, उसे निकाल कर दिखाया, कहा- चाय की तकलीफ न करें। इस समय कोई साधन नहीं है, न मिलने की उम्मीद है, अत: मुझे पैदल ही प्रस्थान करना होगा। मेरा फर्ज था, आपको रिपोर्ट कर दूँ।
इन्चार्ज उठ कर खड़े हो गए। उनकी ओर एक कुर्सी खींच कर बोले- जरा भी चिंता न किया जाए। हम लोग किसलिए हैं? आपको सुरक्षित गाँव पहुँचाया जाएगा। चाय पिया जाय। चाय आ गई थी और दोने में बर्फी के टुकड़े। उनकी चिंता यथावत बनी हुई थी, बोले – साधन तो कोई है नहीं, मुझे पैदल ही निकलना पड़ेगा। जितना रुकूँगा उतनी ही देर होगी। इन्चार्ज के सहयोगी हवलदार ने पीछे दीवार से टिकी मोटरसाइकिल की ओर इंगित कर सत्यकाम से कहा- यह देख रहे हैं ? सत्यकाम ने कहा – जी हाँ, मोटरसाइकिल है। वे हिसाब लगाकर बोले – कोई दस किलोमीटर आपका गाँव है और कोई साधन न हुआ तो इस फटफटिया से आपको छोड़कर आएँगे। एक लीटर तेल की तो बात है। ये लिया जाए। उन्होंने आश्वस्त करते हुए बर्फी का दोना आगे बढ़ाया।
सत्यकाम ने एक टुकड़ा उठाया, चखा। सोंधे गुड़ में पगे खोये का खुशबूदार जायका नथनों में भर गया। चाय की चुस्की ली। इस बीच इन्चार्ज के इशारे पर दोनों जवान राइफल कंधों से लटकाए हाथों में जलती टार्चें लेकर बीच सड़क पर खड़े हो गए। थोड़ी देर में एक स्कूटर गुजरा। दो सवारियाँ थीं, उन्हें जाने दिया। एक मारुति वैन आई। उन्होंने टार्च का सिग्नल देकर रोका। वैन के ड्राइवर से कुछ बातें की। इन्चार्ज सत्यकाम के पास आकर बोले – आपके गाँव के पड़ोस की गाड़ी है। साथ में चले जाएँ। उनको आपके घर तक छोड़ने के लिए कह दिया गया है।
सत्यकाम उनको धन्यवाद देकर उस वैन में आ गए। वैन में चार लोग थे। दो उतर कर पीछे चले गए। ड्राइवर गाड़ी का मालिक था। उसने बगल में जगह बनाई। दूसरा व्यक्ति खिड़की से लगा बैठा रहा। उनके बैठते ही गाड़ी चल पड़ी। पाँच-सात मिनटों तक कोई कुछ नहीं बोला। सत्यकाम ने बातचीत शुरू की। पूछा – इतनी रात को कैसे लौट रहे हैं?
वे बोले – सुबह खेतों पर काम लगाना है। खाद लेकर लौटते में देरी हो गई है। सत्यकाम ने अपने देर से लौटने की तफसील बताई। प्रसंगवश मोटरसाइकिल वाले व्यक्ति का उल्लेख किया, जो हाथ देने पर भी उनके लिए नहीं रुका था। वैन के चालक ने तुरंत गाड़ी की रफ्तार बढ़ा दी, बोला – हम भी नहीं रुकते, अगर दरोगा जी न रोकते। आपको शायद कुछ मालूम नहीं। यहाँ इस बेला में किसी को हाथ दीजिएगा तो वो बिल्कुल न रुकेगा। अभी परसों दो गाड़ियाँ लुट चुकी हैं इसी मोड़ पऱ.साथ के व्यक्ति ने टार्च की रोशनी के साथ-साथ सड़क के दोनों किनारों पर खोजती हुई नजर दौड़ाई। गाड़ीवाले का सचेत पाँव एक्सीलरेटर पर बना रहा।
चाँदनी की दूधिया रोशनी में लम्हे, गाँव और खेत हवाओं के सर्द शरारों को चीरते हुए पीछे भागते रहे। काफी वक्त यूँ ही बीत गया। अब गाड़ीवाले के गाँव का मोड़ सामने था। यह गाँव आस-पास कई गाँवों में जाने वाले कच्चे रास्तों का जंक्शन है। इसमें अब कहीं-कहीं से एक कस्बे की शक्ल निकलने लगी है। कुछ चाय और पान की गुमटियाँ, कुछ ताजी सब्जी की दुकानें सड़क के दोनों ओर हैं जो इस वक्त बंद थीं। एक-दो आवारा कुत्ते इधर-उधर फिर रहे थे। यहाँ से सत्यकाम का गाँव बस दो-ढाई किलोमीटर था। चालक ने गाड़ी रोकी और सत्यकाम से मुखातिब होकर बोला- आपको गाँव तक छोड़ देते, लेकिन अभी जाकर खाद की कूरियाँ लगवानी हैं। वैसे भी आपका गाँव सामने है और आपका ही इलाका है।
सत्यकाम ने उतरकर गाड़ीवाले का धन्यवाद किया, बोले- आपको पहले ही देर हो चुकी है। अब सामने मेरा गाँव है। मुझे कोई दिक्कत नहीं होगी। मैं चला जाऊँगा। गाड़ी दाहिनी ओर मुड़ी और गाँव में ओझल हो गई। सत्यकाम ने घड़ी देखी, इस वक्त रात के दस बज रहे थे। चाँदनी अपनी पूरी शोभा में थी। वातावरण में ठंड की सिहरन थी। सड़क के दोनों ओर पीपल और इमली के घने पेड़ थे, जिनकी ओट में दाहिनी तरफ से एक बुलेट मोटरसाइकिल भद-भद करती हुई आई और सड़क की दाहिनी कगार पर खड़ी हो गई। इंजन को चालू रखे हुए ही सवार ने उतर कर सीट को थोड़ा दुरुस्त किया और वापस बैठ गया। सत्यकाम को लगा, वह शायद उनके गाँव की तरफ की सड़क से ही जाने वाला है। आवाज देने की कोशिश की- भाई साहब़.़, उसने शायद सुना नहीं, गियर लगाया, एक्सीलरेटर दिया और चला गया। उसी समय बाईं तरफ की ढलान से हाथ में लोटा लिए हुए एक व्यक्ति चुस्त कदमों से नजदीक आया। सत्यकाम से दरियाफ्त कर, कि वे बगल के गाँव में जा रहे हैं, चेहरे पर एक व्यंग्य भरी मुस्कान लाकर बोला – भाई साहब कह कर किसको आवाज दे रहे थे? उन्होंने कहा – जो अभी मोटरसाइकिल से गए। लोटेवाले ने पूछा – उन्हें जानते हैं? सत्यकाम ने नकार में सिर हिलाया। उसने छिपे स्वरों में डाँट पिलाई – परदेसी हैं का? पाँव दबाकर चुपचाप निकल जाइए। रास्ता में बोलारी मत कीजिए किसी से।
सहसा सत्यकाम को ख्याल आया कि उस मोटरसाइकिल वाले ने खूब पी रखी थी और गाड़ी की सीट पर अपनी जाँघों के नीचे वह जिस चीज को दुरुस्त कर रहा था वह एक दुनाली बंदूक थी। उन्होंने तेजी से रास्ता पकड़ा।
वे इस रास्ते को खूब पहचानते हैं। बचपन का बहुत ही प्यारा हिस्सा इससे होते हुए गुजरा है। बाईं ढलान से चंद कदमों के फासले पर वह रहा इमली का झुरमुट। वो आया नहर का पुल। बस अब सामने था उनका गाँव। सड़क से लगी बँसवार, पान की गुमटी, पूर्वी तालाब और श्रीराम मंदिर, गाँव की पगडंडी, बीच का गलियारा और ये उनका घर। तीस-पैंतीस मिनट बचपन की मीठी स्मृतियों से सराबोर कब बीत गए, पता ही न चला। दो-तीन बार द्वार खटखटाने पर सुशांत ने छत पर आकर उन्हें पहचाना, पुकारकर घबराहट से कहा- आप चाचा, इतनी अबेर? अकेले?
उन्होंने कहा – हाँ, देर हो गई। तुम्हारे पापा सामान लेकर कल आएँगे। बाईं ओर शिवजतन कहाँर की मड़ई में दो लोग सोए हुए थे, चौंक कर उठ बैठे, बातें करने लगे। दाहिनी तरफ पोखर से लगे मकान की छत से निझावन सिंह की आवाज आई – क्या है, शिवजतन? उधर सब ठीक तो है? बच्चे सत्यकाम की प्रतीक्षा में सोए नहीं थे, घर का दरवाजा खोलकर दौड़े आए उन्होंने उन्हें अंक में समेट लिया, पोखर की तरफ देखकर आवाज दी – मैं हूँ काका, यहाँ सब ठीक है। सुमन आँगन में रुआँसी खड़ी थी, सत्यकाम पास जा कर उनकी पीठ थपथपा कर बोले – सब ठीक है भाई, बस कल भैया आ जाएँ तो लौट चलते हैं।