ज्ञान भंडार

यह कैसा ऊर्जा राज्य है?

नीरज जोशी
uttara_1राज्य को बिजली संकट से राहत देने के लिए हाल ही में उत्तराखण्ड विद्युत नियामक आयोग (यूईआरसी) ने लंबी अवधि के दूसरे बिजली खरीद करार को स्वीकृति दी। गामा इंफ्राप्रोप के काशीपुर गैस प्लांट से 20 जनवरी से 25 साल तक उत्तराखण्ड रोजाना 104 मेगावाट बिजली खरीदेगा। इससे पहले प्रदेश ने ग्रीनको कंपनी से 35 साल तक बिजली खरीदने का करार किया था। यह 70 मेगावाट का करार हिमाचल से हुआ था। अभी सिक्किम में स्थित एक हाइड्रोपावर के 110 मैंगावाट की खरीद के लिए सुनवाई चल रही है। कुल मिलाकर पिछले वर्ष तक ऊर्जा प्रदेश उत्तराखण्ड हर साल 1200 करोड़ की बिजली खरीद रहा था। इस बार इसका कुछ ज्यादा खरीद का अनुमान है।
राज्य ने बिजली खरीदने के जो दीर्घकालिक प्लान बनाये हैं इससे यह अनुमान तो सहज ही लग सकता है कि जिस उत्तराखण्ड राज्य में कथित तौर पर 458 छोटी बड़ी जल विद्युत परियोजनाएं बन रही हैं या बनने वाली हैं उस राज्य को अगले 25 से 35 साल तक बाहरी राज्यों से बिजली खरीदनी होगी। हालांकि अलकनंदा और भागीरथी बेसिन की 23 बड़ी हाइड्रो परियोजनाओं को जून 2013 की केदारनाथ त्रासदी के बाद सुप्रीमकोर्ट ने रद्द कर दिया। इतना ही नहीं केन्द्र और राज्य सरकार को हिदायत भी दी है कि बिना उसकी अनुमति भविष्य में राज्य में इस तरह की परियोजनाओं को अनुमति न दी जाय। हालांकि इन परियोजनाओं में कुछ राज्य सरकार की परियोजनाएं भी थीं जिनके चालू होने से थोड़ी सी राहत राज्य को मिल सकती थी। इसके बावजूद राज्य में 400 से अधिक छोटी बड़ी विद्युत परियोजनाएं प्रस्तावित और निर्माणाधीन हैं। लेकिन तय है कि राज्य को 25 साल से पहले बिजली के मोर्चे पर कोई बड़ी राहत नही मिलने वाली है। तो फिर सवाल उठता है जिस राज्य की विद्युत परियोजनाओं को लेकर अदालतों से लेकर अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय मंच पर इतना शोर मचाया जा रहा है उसके प्लांटों की हकीकत क्या है, राज्य को बने 15 साल हो गये हैं। टिहरी डैम को लेकर 1996 से निरंतर विवाद चलता रहा। कथित तौर पर 2400 मेगावाट की प्रस्तावित यह योजना पर्यावरणवादियों के विरोध के चलते अरबों रुपये के अतिरिक्त व्यय के साथ 2005 में कमीशन तो हो गई लेकिन अभी भी बरसात के दिनों में झील लबालब भरने के बाद इससे 1000 मेगावाट बिजली पैदा हो रही है। यह केन्द्र और उत्तर प्रदेश सरकार की योजना है, इसमें राज्य को मात्र 12 प्रतिशत रायल्टी मिलती है। ताज्जुब का विषय तो यह है कि टिहरी बांध के प्रचंड विरोध के बावजूद 2000 में राज्य बनने के बाद भी उत्तराखण्ड के नेताओं ने पानी के दोहन की प्रचुर संभावनाओं के मध्य नजर इसे ऊर्जा राज्य का दर्जा दिया और संभावनाएं जताई गई कि राज्य भविष्य में 27000 मेगावाट बिजली पैदा करेगा।
uttara_2इसमें दो राय नहीं कि निमार्णाधीन और प्रस्तावित योजनाओं के खिलाफ विरोध के स्वर भी लगातार उठते रहे और योजनाएं बिलंबित होती रहीं और उनका व्यय बढ़ता रहा। ले-देकर इन 15 सालों में राज्य के पास मात्र 300 मेगावाट की एक परियोजना मनेरीभाली फेज दो दिखाने को है। इतनी ही क्षमता की कुछ परियोजनाएं निजी क्षेत्र में भी हैं लेकिन उनमें भी राज्य सरकार रायल्टी की हकदार है। राज्य के पास उत्तर प्रदेश के समय में बनी कुछ 60 से 120 मेगावाट की परियोजनाओं के अलावा उत्तराखण्ड जल विद्युत निगम की छोटी परियोजनाएं हैं जो कुछ किलोवाट की ही है। इसके बावजूद साउथ एशिया नेटवर्क आन डैम्स, रिवर्स एंड पीपल (सैनड्रप) का दावा है कि उत्तराखण्ड में 400 से ज्यादा जल विद्युत परियोजनाएं प्रस्तावित और निर्माणाधीन हैं। हालांकि हाल ही में नेशनल ग्रीन ट्रिव्यूनल (एनजीटी) को दिये जा रहे एक जवाब में राज्य सरकार ने माना है कि राज्य में संचालित और निमार्णाधीन हाइड्रोप्रोजेक्ट की संख्या 21 है और इनको एनजीटी के आदेशानुसार सीवेज ट्रीटमैंट प्लांट लगाने का आदेश दिया गया है।
बात सैनड्रप (साउथ एशिया नैटवर्क आन डैम्स) की करें तो उत्तराखण्ड में कुल 3600 मेगावाट क्षमता के छोटे-बड़े 98 हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट हैं। इसमें से 1800 मेगावाट केन्द्र के और 503 मेगावाट निजी योजनाएं हैं। स्पष्ट है कि राज्य के खाते में छोटी-बड़ी योजनाओं से सिर्फ 1297 मेगावाट बिजली आती है। यह तय नहीं है कि अभी तक केन्द्र और निजी बिजली में से जो करीब 250 मेगावाट बिजली राज्य को मिलनी चाहिए वह मिल भी पा रही है या नहीं क्योंकि उत्पादन की अनिश्चितता यह तय करती है। इसके अलावा केन्द्रीय वैकल्पिक ऊर्जा मंत्रालय का दावा है कि वे राज्य में 170 मेगावाट क्षमता की 98 छोटी परियोजनाऐं चला रहा है लेकिन यह तय नहीं है कि ये योजनाएं सुचारू रूप से चल भी रही हैं या नहीं। इस तरह की योजनाओं के ठप होने की शिकायतें आयेदिन ग्रामीण करते रहते हैं।
इसके अलावा वर्तमान में राज्य में 25 परियोजनाओं को निमार्णाधीन बताया जा रहा है जिनकी कुल क्षमता 2378 मेगावाट बताई गई है। इन योजनाओं में राज्य के हिस्से की कई योजनाएं हैं लेकिन जिस गति से इन पर काम हो रहा है, तय है कि राज्य अगले दो दशक बिजली संकट में डूबा रहेगा। पन बिजली परियोजनाओं को लेकर उत्तराखण्ड को जो बदनामी और अदालती बंदिशें झेलनी पड़ रही हैं, उसका सबसे बड़ा कारण राज्य की प्रस्तावित परियोजनाएं हैं। हालांकि एक किलोवाट से नीचे की 200 परियोजनाओं को छोड़ दिया जाय तो भागीरथी, अलकनंदा, यमुना, रामगंगा और शारदा नदियों में छोटी बड़ी 83 योजनाएं प्रस्तावित हैं। सैनड्रप की मानें तो इन परियोजनाओं की कुल क्षमता 21212 मेगावाट मानी गई है। 2013 की आपदा के बाद सुप्रीमकोर्ट ने इनमें से कुछ पन बिजली परियोजनाओं को रद्द किया है तो अधिकांश निजी निवेशक कोर्ट की सख्ती के चलते अब पीछे हट चुके हैं। जो राज्य 2002 से लेकर 2007 तक ऊर्जा राज्य का ढोल पीटते हुए गुटखा, तंबाकू बनाने वाली कंपनियों से लेकर जूते और साइकिल बनाने वाली कंपनियों को पन बिजली परियोजनाएं बांटता रहा, आज बहु संभावनाओं वाले ऊर्जा राज्य के तमगे को उतारने पर आमादा है। राज्य के हाथ न्यायालयों ने पूरी तरह बांध दिये हैं। अब राज्य के पास ग्राम पंचायतों से अति लघु परियोजनाओं के लिए अपील करने के अलावा कोई चारा नहीं बचा है। उत्तराखण्ड का इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा कि 25 साल का बिजली करार करते हुए उत्तराखण्ड विद्युत नियामक आयोग उस किसाऊ परियोजना का जिक्र करता है जिस पर अभी हिमाचल और उत्तराखण्ड के बीच सहमति बनी है। जिसके संभावित विस्थापितों के विरोध के स्वर अभी उठने शुरू हुए हैं। यह बिजली उत्पादन के नाम पर उलजुलूल परियोजनायें निजी और कार्पोरेट को आवंटित करने का ही परिणाम है कि राज्य जी तोड़ दबाव बना कर भी केन्द्रीय कैबिनेट से 400 मेगावाट की लक्ख्वाड़ परियोजना को हरी झंडी नहीं दिलवा पा रहा है। शायद राज्य बनने के बाद उत्तराखण्ड के पानी के समुचित प्रयोग के लिए दुकानदारी के बजाय कोई नियोजित रास्ता चुना गया होता तो राज्य हिमाचल की तरह 1200 करोड़ की बिजली बेच रहा होता न कि पन बिजली परियोजनाओं को लेकर इतने शोर के बावजूद राज्य 1200 करोड़ की बिजली खरीदता। ’

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