दस्तक-विशेष

युवा मुख्यमंत्री की मुश्किलें

Captureऐसे युवा मुख्यमंत्री की कल्पना कीजिए जिनके पिता अक्सर सार्वजनिक मंचों से फटकारने लगते हों कि वे चापलूसों से घिर गए हैं, उनके मंत्री और अफसर नाकारा हैं, अगर आज चुनाव हो जाएं तो वे हार जाएंगे… गरज यह कि उन्हें सरकार चलाना नहीं आता। पिता जो खुद कई बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं, पार्टी के मुखिया और राष्ट्रीय राजनीति के एक बड़े नेता हैं अच्छी तरह जानते हैं कि सरकार की छवि कैसे बनती और बिगड़ती है। इसके लिए बकायदा सूचना एवं जनसंपर्क विभाग होता है जो सरकार की उपलब्धियों को प्रचारित करने का काम करता है। यह विभाग कई सालों में जो कुछ करता है वे उसे एक दिन में कुछ वाक्यों और इशारों से धो डालते हैं क्योंकि वे पार्टी के मुखिया और मुख्यमंत्री के पिता के बीच अपनी सही भूमिका तय नहीं कर पाते। उन्हें लगता है कि सरकार भी उनके परिवार का ही विस्तार है। परिवार में बंद दरवाजों के पीछे जो कुछ कहा सुना जाता है, उसे वे सार्वजनिक मंच पर कह डालते हैं जबकि वे उसके नतीजे अच्छी तरह जानते हैं।
इसी सरकार में एक चाचा हैं जो प्रशासनिक बैठकों में अफसरों से कहते हैं कि वे चोरी करें, डकैती नहीं यानि कम कमीशन खाएं। मानो भ्रष्टाचार कोई अपराध न होकर कोई नाजुक सी कीमती चीज हो जिन्हें संभाल कर बरता जाना है ताकि लंबे समय तक टिकी रह सके। एक और चाचा हैं जो अफसरों से लेकर पार्टी पदाधिकारियों तक के तबादले और निलंबन का अख्तियार रखते हैं, वे सरकारी जांचों को शुरू और बंद करा सकते हैं। एक मंत्री हैं जो विधानसभा जैसी औपचारिक जगह पर मुख्यमंत्री को उनके बचपन के नाम से बुलाते हैं और किसी भी सार्वजनिक मसले को अपने अहं का सवाल बनाकर विद्रोह की मुद्रा अख्तियार कर लेते हैं। कई मंत्री हैं जो कैबिनेट की बैठकों में एक सामूहिक फैसला लेने में हां जी, हां जी करते हुए भागीदारी निभाते हैं, लेकिन बाहर आते ही पार्टी मुखिया के सामने उसी फैसले के खिलाफ विलाप करने लगते हैं और बदलवा भी डालते हैं।
पात्रों के नाम न लिए जाएं तो सुनने में यह सब मुगल काल के आखिरी दिनों के किसी बादशाह के दरबार का किस्सा लगता है जहां सत्ता के कई अधिकार प्राप्त केंद्र हुआ करते थे, कौन किसके खिलाफ साजिश कर रहा है, तब तक पता नहीं लगने पाता था जब तक कि तख्ता पलट नहीं हो जाया करता था। अफसोस की बात है यह कोई इतिहास का नहीं, वर्तमान में देश के सबसे बड़े राज्य की सरकार के रोजमर्रा का यथार्थ है जिसे जनता ने जमाने बाद जाति-धर्म की हदबंदियां ढहाते हुए जबरदस्त बहुमत दिया था। इस सरकार के सामने विपक्ष लगभग था ही नहीं, अगर था भी तो अपनी करनी से साख खोकर हतप्रभ हो चुका था, लेकिन निहित स्वार्थों के संजाल, निजी महत्वाकांक्षाओं और अहं की टकराहटों का ऐसा जादू चला कि सरकार के भीतर ही विपक्ष पैदा हो गया और अब राजकाज की सबसे बड़ी बाधा बन चुका है। विडंबना यह है कि जनता इस सरकार को चुन तो सकती थी, लेकिन चुने गए लोगों को सुधारने के लिए अगले चुनाव के इंतजार के सिवा और कुछ नहीं कर सकती।
जाति-धर्म की दलदल में गले तक धंसे और इसी कारण पिछड़े उत्तर प्रदेश में पिछला चुनाव एक अपवाद जैसा सकारात्मक मौका बन कर आया था। जनता ने जानी पहचानी समाजवादी पार्टी को नहीं अखिलेश यादव के युवा चेहरे को इस उम्मीद में बहुमत दिया था कि वे नई सोच और अपनी मेहनत करने की क्षमता से बड़े राजनीतिक बदलाव और विकास के अग्रदूत बन सकते हैं। जनता ने अब तक के अपने चरित्र के विपरीत जाकर एक बड़ा काम किया, लेकिन पहले ही दिन से अखिलेश यादव को नौसिखिया, एक राजनेता के बजाय आज्ञाकारी पारिवारिक व्यक्ति साबित करने के साथ ही भावनात्मक ब्लैकमेल कर तरह तरह की वरिष्ठताओं के नीचे दबाने का काम शुरू कर दिया गया था जिसका नतीजा सामने है। तीन सालों में उनसे किसी बड़े बदलाव की उम्मीद दम तोड़ चुकी है, लेकिन शालीन छवि बची हुई है जिससे कुछ नहीं किया जा सकता क्योंकि मुश्किलों से घिरे लोग लोग सद्भाव का सुख नहीं ठोस नतीजा चाहते हैं। अखिलेश यादव को अगर आम जन की उम्मीदों का ख्याल है और राजनीति में कुछ सार्थक करना है तो उन्हें इस मकड़जाल से बाहर आकर सरकार को एक परिवार की लिमिटेड कंपनी की तरह नहीं, चुनी गई लोकतांत्रिक संस्था की तरह चलाना होगा। उनके पास अब भी या कहें कि सिर्फ दो साल का वक्त है। ल्ल
इस सरकार के सामने विपक्ष लगभग था ही नहीं, अगर था भी तो अपनी करनी से साख खोकर हतप्रभ हो चुका था, लेकिन निहित स्वार्थों के संजाल, निजी महत्वाकांक्षाओं और अहं की टकराहटों का ऐसा जादू चला कि सरकार के भीतर ही विपक्ष पैदा हो गया और अब राजकाज की सबसे बड़ी बाधा बन चुका है।

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