यूं शुरू हुआ महासंग्राम
ज्ञानेन्द्र शर्मा
सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी में अंतद्र्वन्द्व, भारतीय जनता पार्टी में उम्मीदवारों के चयन को लेकर भारी अंसतोष और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की प्रतिष्ठा का सवाल, सपा और कांग्रेस के गठजोड़ के बाद दवाब में आई बहुजन समाज पार्टी, तमाम प्रतिद्वन्द्वी दलों में भितरघात के आसार, चुनाव घोषणापत्रों के जरिए मतदाताओं की थाली में सब कुछ परोस देने की होड़, दागी, बागी, परिवारों से किसी को कोई परहेज नहीं और चुनाव विशेषज्ञों के परस्पर विरोधी चुनाव सर्वेक्षण-निष्कर्ष। यह है उत्तर प्रदेश विधान सभा के 2017 के बहु-प्रतीक्षित चुनाव का पहला पन्ना। चुनाव के ठीक पहले नए साल के पहले महीने में तीन बड़ी राजनीतिक घटनाएं हुईं। समाजवादी पार्टी टूटते टूटते बची और बाप-बेटे के युद्ध में बेटे का बाजी मार ले जाना जनवरी महीने की सबसे बड़ी खबर थी। दूसरी थी अखिलेश यादव और राहुल गांधी की शोले और करन अर्जुन फिल्मों के स्टाइल में दोस्ती। तीसरी थी भाजपा का परिवारवाद और बागियों से गलबहियां। जब लगा कि दूसरे उन चार अन्य प्रदेशों की तरह, जहां उत्तर प्रदेश के साथ ही चुनाव हो रहा है, उत्तर प्रदेश में भी संघर्ष चतुष्कोणीय से घटकर त्रिकोणीय रूप धर लेगा, तभी रूठे बैठे पिताश्री यानी मुलायम सिंह यादव अचानक चौथे कोने पर जाकर बैठ गए। वे कहते हैं कि कांग्रेस से सपा की दोस्ती का कोई मतलब नहीं है और वे इसका विरोध करेंगे। फरवरी की शुरुआत इस संभावना से हुई कि मुलायम सिंह सपा के बागियों को हवा दे सकते हैं।
चार महीने चले महासंघर्ष के बाद समाजवादी पार्टी का ऊंट एक करवट बैठ गया और अखिलेश का एकछत्र राज कायम हो गया। अमर सिंह और शिवपाल यादव किनारे लग गए तो मुलायम सिंह अकेले पड़ गए। उनके दो विश्वासपात्रों- अम्बिका चौधरी और नारद राय ने बसपा की सदस्यता ले ली। कौमी एकता दल भी सपा से निराश होकर बहिन जी से जा मिला और ‘चढ़ गुंडन की छाती पर मुहर लगेगी हाथी पर’ का बसपा का नारा फीका पड़ गया। लेकिन बसपा ही क्या किसी दल को भी दागियों से कोई परहेज नहीं रहा। अब सबके अपने अपने दागी हैं, अपने अपने बागी हैं और सबका दावा है कि वे ‘हमारे साथ हैं, इसलिए सही हैं’। सपा की कुंजी अखिलेश के हाथ में आते ही, उन्होंने कांग्रेस से दोस्ती गांठ ली और 150 सीटों की मांग से शुरू होने वाली कांग्रेस 105 पर मान गई। इन 105 में से भी कुछ सीटों पर सपा के उम्मीदवार कांग्रेस के चुनाव चिन्ह पर लड़ेंगे। दोनों दलों ने मिलजुलकर चुनाव प्रचार करने का भी निर्णय किया और लखनऊ में राहुल-अखिलेश का रोड शो इसकी बानगी थी। जिस तरह से पुराने लखनऊ के मुस्लिम-बाहुल्य इलाके में दोनों को हाथोंहाथ लिया गया, वह एक बड़ा संदेश पीछे छोड़ गया। अखिलेश यह कहते रहे हैं कि कांग्रेस से गठजोड़ हुआ तो हम 403 में से 300 सीटें जीतेंगे। कांग्रेस को भी यह लगता रहा है कि बिना किसी बैसाखी के वह चुनाव की पगबाधा दौड़ में आगे नहीं बढ़ पाएगी सो उसने 1996 में बसपा से हुए गठबंधन से भी कम सीटों पर समझौता कर लिया। दोनों के अपने-अपने गणित हैं, अपनी अपनी कमजोरियां हैं।
सत्ता की पूरी बागडोर मजबूरी में बेटे को दे देने के बाद मुलायम सिंह अचानक जाग गए हैं और कांग्रेस से दोस्ती का पुरजोर विरोध करने लग गए हैं। मुलायम सिंह के इस विरोध की वजह दूरगामी है। उन्हें लगने लगा है कि यदि यह गठजोड़ सफल रहा तो यह 2019 तक खिंच सकता है और यदि ऐसा हुआ तो दोस्ती के दूसरे दौर में कांग्रेस आगे बढ़ जाएगी और प्रधानमंत्री पद का दावेदार भी उसी का हो जाएगा। प्रदेश में सात चरणों में होने वाले विधानसभा चुनाव के पहले तीन चरण के नामांकन की तिथि मुलायम सिंह के तेवरों के टेढ़े होने से पहले ही निकल गए हैं इसलिए सपा-कांग्रेस गठबंधन पर एक बड़ा खतरा टल गया है। चौथा चरण भी आसानी से पार हो सकता है क्योंकि इस दौर में नामांकन की आखिरी तारीख 6 फरवरी है। सपा-कांग्रेस गठबंधन को सबसे बड़ी राहत यह होगी कि मुस्लिम-बाहुल्य पश्चिमी उत्तर प्रदेश और रुहेलखण्ड की सीटों की बिसात बिछ चुकी है और उनमें मुलायम सिंह खेमा कोई नए प्रत्याशी मैदान में नहीं उतार सकता। यदि मुलायम सिंह और शिवपाल यादव ने बागी तेवर दिखाए तो उसका असर ज्यादातर पूर्वी उत्तर प्रदेश की कुछ सीटों पर ही पड़ेगा जहां पॉचवें, छठवें और सातवें चरण में चुनाव होना है। जिन क्षेत्रों में पांचवें दौर में वोट डलने हैं, वहॉ 2012 में सपा ने 71 प्रतिशत सीटें जीती थीं। इसी तरह छठवें व सातवें दौर वाले क्षेत्रों में सपा की जीत का प्रतिशत 55 व 57 प्रतिशत रहा था। यदि मुलायम सिंह यादव खुली लड़ाई छेड़ देते हैं तो पूरब में सपा-कांग्रेस गठबंधन कहीं-कहीं घाटे में आ सकता है। पर मुलायम सिंह के लिए यह डगर आसान नहीं होगी। यदि उन्होंने अपने उम्मीदवार खड़े किए या किन्हीं उम्मीदवारों को अंगीकार किया तो वे सब निर्दलीय होंगे और वे कुछेक क्षेत्रों को छोड़कर बाकी में गठबंधन को कोई निर्णायक क्षति नहीं पहुंचा पाएंगे।
सपा के सामने दो मुख्य चुनौतियां हैं: 2012 की अपनी सफलता को दोहराना और सत्ता-विरोधी लहर को संभालना। पिछले चुनाव में सपा ने 224 सीटें जीती थीं और 13 जिले तो ऐसे थे जिनकी सारी की सारी सीटें उसके हिस्से में आ गई थीं। ये जिले थे: अम्बेडकरनगर, अमरोहा, इटावा, एटा, औरैया, कन्नौज, बलरामपुर, बाराबंकी, भदोही, मैनपुरी, सम्भल, श्रावस्ती और सुलतानपुर। लेकिन दो साल बाद जब लोकसभा का चुनाव हुआ तो सपा को 403 में से केवल 42 सीटों पर बढ़त मिल पाई थी। सत्ता विरोधी लहर को संभालने के लिए अखिलेश ने कई वर्तमान विधायकों के टिकट काट दिए और फिर कांग्रेस से समझौता करके प्रदेश की कई चुनावों से चलती आ रही चतुष्कोणीय स्पर्धा को त्रिकोणीय बना दिया। अब उसके दो मुख्य विरोधी बचे हैं- भाजपा और बसपा। सपा को 2012 में 29 प्रतिशत से कुछ अधिक वोट मिले थे जबकि कांग्रेस के वोटों का प्रतिशत 11.63 था। आम तौर पर यह माना जाता है कि जिस किसी दल या गठबंधन को 30-31 प्रतिशत वोट मिल जाएंगे, वह सरकार बना ले जाएगा। 2012 के सपा और कांग्रेस के वोटों को जोड़ दिया जाय तो ये लगभग 41 फीसदी बैठता है लेकिन वोटों का यह प्रतिशत जोड़ देने से कोई निष्कर्ष नहीं निकलता क्योंकि चुनाव का गणित इतना आसान भी नहीं होता। पिछले पांच चुनावों में सपा को 25.43 से 29.15 प्रतिशत तक वोट मिले हैं। सपा अपने वोटों के 25 प्रतिशत भी प्राप्त कर ले और कांग्रेस 7 प्रतिशत तो दोनों का काम बन जाएगा। वैसे सपा को पिछले चुनाव में 77 क्षेत्रों में दूसरा स्थान मिला था। इस तरह वह 301 चुनाव क्षेत्रों में या तो पहले नम्बर पर थी या दूसरे पर। कांग्रेस कुल 59 क्षेत्रों में या तो प्रथम रही थी या फिर द्वितीय। दोनों का यह रिकार्ड बताता है कि यदि 2014 के चुनाव को भुला दिया जाय और 2012 को बेस मान लिया जाय तो 360 सीटों पर सपा और कांग्रेस को काफी बढ़त प्राप्त थी। सारे प्रतिद्वन्द्वियों के पास अपने अपने वोट बैंक हैं तो खतरे भी बराबर के ही हैं। बसपा के पास दलितों का जाटव वर्ग उसका ठोस आधार है। दूसरी उम्मीद उसे मुसलमान वोटर से है जिसको अपनी तरफ खींचने के लिए उसने एक-चौथाई उम्मीदवार मुस्लिम वर्ग से मैदान में उतारे हैं। समाजवादी पार्टी के पास यादव वोट बैंक है और मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग उसका हिमायती है। लेकिन सत्ता-विरोधी लहर उसके खिलाफ है। भाजपा को उच्च जातियों और गैर-यादव पिछड़ों का सहारा है। उसने बड़ी संख्या में अति पिछड़ों को अपना प्रत्याशी बनाया है। कांग्रेस को सपा का सहारा है। अजित सिंह का रालोद उन जाटों के समर्थन पर टिका है जो भाजपा से छिटक कर उसके पास आएंगे। लेकिन कोई भी दल दूसरे दल के वोटों में सेंधमारी नहीं करेगा तो उसे बहुमत जुटाने लायक मत मिलना मुश्किल होगा। वोट बैंक की राजनीति में बसपा और सपा हमेशा आगे रहे हैं जबकि भाजपा को मुख्य सहारा देने वाले उच्च जाति के वोटर तो हैं ही, साथ ही मतदाताओं के धु्रवीकरण पर बहुत हद तक उसका भाग्य अवलम्बित होगा। भाजपा यह उम्मीद करेगी कि 2014 के लोकसभा चुनाव की तरह इस बार भी धार्मिक धु्रवीकरण हो जाय। पर इसकी संभावना ना के बराबर है। फिर भाजपा की सबसे बड़ी परेशानी जाट वोटों की अनिश्तिता, वैश्य समाज की नाराजगी और नोटबंदी के चलते कई इलाकों में फैली बेरोजगारी है।
सभी प्रतिद्वन्द्वी दल कई मामलों में एक दूसरे के बराबर कद के दिखते हैं और ऐसे में जाति-बिरादरी उभरकर आना स्वाभाविक परिणाम है। आम आदमी की सोच यह रही है कि जब सबके चेहरे-मोहरे एक जैसे हैं तो अपनी बिरादरी वाले को ही वोट क्यों न दिए जाएं। उत्तर प्रदेश में जाति बिरादरी का उभार इसी सोच का परिणाम है। भाजपा चाल, चरित्र और चेहरे की बात करती रही है लेकिन जब चुनाव आता है तो ये नारे फुर्र हो जाते हैं।
उसका यह नारा भी नहीं चल पाता है कि सबको परखा बार बार, हमको परखो एक बार क्योंकि उसको जनता परख चुकी है। इन्हीं मुद्दों के चलते भाजपा अन्य दलों से अलग नहीं दिख पाती। सभी दल दागियों को टिकट देने में एक दूसरे की बराबरी पर ही रहे हैं। लेकिन बागियों को टिकट से दूर रखने के मामले में सबसे अच्छा रिकार्ड सपा का ही है। उसने दूसरे दलों से दल बदल कर आए नेताओं को कम ही टिकट दिए हैं। इस मामले में सबसे खराब रिकार्ड भाजपा और बसपा का साबित हुआ है। दोनों ही दलों ने दूसरे दलों से आए लोगों को टिकटों से जमकर उपकृत किया है। कम से कम 40 क्षेत्रों में भाजपा ने और 20 क्षेत्रों में बसपा ने दल-बदलुओं को टिकट दिए हैं।
बाहर से आए दल बदलुओं को टिकट देने का सीधा परिणाम यह हुआ है कि भाजपा और बसपा दोनों के अंदर भितरघात की संभावनाएं बढ़ गई हैं। सपा के अंदर भी भितरघात निश्चित है क्योंकि एक तो उसने करीब 100 सीटें कांग्रेस को दे दी हैं और दूसरे अखिलेश ने शिवपाल खेमे के कइयों को बाहर का रास्ता दिखा दिया है। मुलायम सिंह यादव यदि अखिलेश-कांग्रेस गठबंधन के खिलाफ उकसाने में सफल रहते हैं तो यह भितरघात और भी बढ़ जाएगा। जो सपा समर्थक अखिलेश खेमे से टिकट ना पा सकने या दूसरे कारणों से नाराज हैं, उनके द्वारा सक्रिय प्रचार न करने के पूरे आसार बन रहे हैं। सक्रिय न होना भी एक तरह का भितरघात है। एक अरसे के बाद पिछले दो चुनावों से उत्तर प्रदेश में मतदाता राजनीतिक अस्थिरता से निजात पाते हुए एक दल को पूर्ण बहुमत दे रहे हैं:- 2007 में उसने बसपा को पूर्ण बहुमत दिया तो 2012 में सपा को। दोनों ने पूरे कार्यकाल अपनी सरकारें चलाई भी।
पर क्या यह सिलसिला 2017 में दोहराया जाएगा? क्या किसी दल या गठबंधन को पूर्ण बहुमत मिल पाएगा, एक बड़ा सवाल है और इसके जवाब में ज्यादातर चुनाव खलीफा ‘हॉ’ या ‘ना’ कुछ भी निश्चित तौर पर बोलने को तैयार नहीं हैं। लेकिन आम तौर पर यह तो माना ही जा रहा है कि मुख्य मुकाबला सपा-कांग्रेस गठबंधन और भाजपा के बीच ही होगा।
बीबीसी के अलावा अन्य तमाम मीडिया संगठनों के सर्वेक्षण बसपा को तीसरे नम्बर पर रखने में एकमत दिख रहे हैं। बीबीसी ने बस उसे 200 सीटों पर आगे बताकर बहुमत के करीब खड़ा किया है। पर असली गुल तो चौथे कोने पर बैठा भितरघात ही खिलाएगा।