यूपी में हैं कई कैराना-कांधला, लखनऊ भी अछूता नहीं
पुरानी समस्या है हिन्दुओं का पलायन
संजय सक्सेना
कारण अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन सच्चाई यही है कि उत्तर प्रदेश के कई जिलों में ‘कैराना-कांधला’ जैसे हालात हैं। बस फर्क इतना है कि कश्मीरी पंडितों के पलायन की तरह प्रदेश में मुस्लिम बाहुल्य इलाकों से हिन्दुओं के पलायन की घटनाएं कभी सुर्खियां नहीं बटोर पाईं। जब कभी इस समस्या को किसी ने उठाना चाहा तो उसे तुष्टिकरण की राजनीति करने वालों और छद्म धर्मनिपेक्षता का चोला ओढ़े मीडिया ने साम्प्रदायिक करार दे दिया। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जिलों मुरादाबाद, मेरठ, हापुड़, बिजनौर, रामपुर, देवबंद, सहारनपुर, में तो यह समस्या आम ही है। पूरब के गाजीपुर, बहराइच, आजमगढ़ आदि जिलों में भी हिन्दुओं के पलायन की मजबूरी श्राप बनती जा रही है। पूरे प्रदेश की बात तो दूर, सरकार की नाक के नीचे यूपी की राजधानी लखनऊ भी इससे अछूता नहीं है। पुराने लखनऊ में कई ऐसे मोहल्ले हैं जहां से हिन्दुओं को पलायन करना पड़ रहा है। सियासतदार भले ही इस बात को न मानें लेकिन आकड़े इस बात की गवाही देते हैं। यहां हिन्दुओं की पुस्तैनी और विवादित सम्पत्ति पर जमीन का धंधा करने वाले एक वर्ग विशेष के भूमाफियाओ की नजरें लगी रहती हैं। इन इलाकों में अरब के पैसे के बल पर हिन्दुओं की सम्पत्ति मोटे दामों पर खरीदने का धंधा वर्षों से चल रहा है। भले ही सच्चर कमेटी जैसी कमेटियों की रिपोर्ट के आधार पर पूरे देश में एक वर्ग विशेष की आर्थिक स्थिति खराब होने का रोना रोया जाता रहा हो, लेकिन सम्पत्ति खरीदने के मामले में इस वर्ग के लोग सबसे आगे रहते हैं। किसी भी विवादित सम्पति को औने-पौने दामों में खरीदने की बात हो या फिर ऐसी जमीन जिसका कोई वारिश नहीं है, उस पर भूमाफिया, नगर निगम, रजिस्ट्री आफिस और पुलिस वालों की मदद से न केवल कब्जा जमा लेते हैं, बल्कि फर्जी कागजों के आधार पर ऐसी सम्पति अपने नाम भी करा लेते हैं। रजिस्ट्री कार्यालय, नगर निगम के कागजों की ईमानदारी से जांच हो जाये तो ‘दूध का दूध, पानी का पानी’ होने में देर नहीं लगेगी। एक अनुमान के अनुसार यहां दस रजिस्ट्री होती हैं तो उसमें से आठ में कागज आधे अधूरे या फिर फर्जी तरीके से तैयार कराके लगाये जाते हैं।
सब कुछ काफी संगठित और सुनियोजित तरीके से होता है और इसमें न्यायपालिका को भी खिलौना बना लिया जाता है। न्यायपालिका को कैसे खिलौना बनाया जाता है, इसे एक उदाहरण के तौर पर समझा जा सकता है। पुराने लखनऊ में एक कक्षा पांच तक का सरकारी स्कूल हुआ करता था। यह स्कूल किराये के भवन में चलता था। भवन काफी जर्जर हो गया तो स्कूल को अन्यत्र शिफ्ट कर दिया गया। इस भवन का मालिकाना हक एक ब्राह्मण परिवार के पास था। वर्षों तक नगर निगम से इस भवन का किराया भी इस परिवार को मिलता रहा, जिसका साक्ष्य भी उस परिवार के पास था, लेकिन न जाने कैसे इस बेशकीमती जमीन पर बसपा के एक वर्ग विशेष के नेता जी की कैसे नजर पड़ गई। उस समय बसपा राज था। नेताजी ने बड़ी चालाकी के साथ इस जर्जर भवन पर अपनी दावेदारी यह कहते हुए ठोंक दी कि यह जमीन उनको बाबा जी से विरासत में मिली थी। नेताजी के पास वसीयत भी थी। अपनी कब्जेदारी को पुख्ता करने के लिये नेताजी ने नगर निगम के भ्रष्ट अधिकारियों और कर्मचारियों का तो सहारा लिया ही न्यायपालिका को भी खिलौना बना दिया। यह घटना एक बानगी भर है। इस तरह के कई मामले कोर्ट से लेकर पुलिस की फाइलों तक में दर्ज हैं।
अगर कहीं किसी निजी सा सरकारी सम्पति पर कब्जे का विरोध होता है तो धर्म की आड़ लेकर इसे सियासी मुद्दा बना दिया जाता है। ऐसे कृत्य के खिलाफ आवाज उठाने वालों को डराया-धमकाया जाता है। आश्चर्य तो तब होता है जब हत्या, बलात्कार जैसे जघन्य अपराध करने वालों के खिलाफ भी पुलिस को कार्रवाई नहीं करने दी जाती है। कभी धर्म की आड़ में तो कभी भीड़ जुटाकर ऐसे लोंगो को बढ़ावा दिया जाता है। सच्चाई यही है कि जहां-जहां हिन्दुओं की आबादी कम हो रही है, वहां ऐसे हालात पैदा कर दिये जाते हैं कि हिन्दुओं के पास अपनी सम्पत्ति बेचकर जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता है। इस पलायन को सुविधा के अनुसार अलग-अलग नाम दिया जा सकता है, लेकिन सच यही है कि उप्र में कई जिलों में हालात ऐसे हैं कि लोग पुश्तैनी घरों को छोड़ कर उसी शहर में नए ठिकाने तलाशने के लिए भटक रहे है। हिंदू-मुस्लिमों की मिलीजुली आबादी वाली बस्तियां अब धर्म विशेष की कालोनियों में तब्दील होती जा रही हैं। नब्बे के दशक से बस्ती-मोहल्ले बदलने का सिलासिला तेज हुआ था, जो आज तक न केवल जारी है, बल्कि इसमें तेजी भी आई है।
पलायन कोई भी करे दुखद होता है, लेकिन अफसोस की बात यह है कि मुसलमानों के पलायन की घटनाओं को तो बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जाता है, मगर हिन्दुओं के पलायन की पीड़ा कोई नहीं समझता और न सुनता है। यहां न तो कथित धर्मनिपेक्षता के ठेकेदार दिखाई देते हैं न वह लोग जो छोटी-छोटी बात पर असहिष्णुता के शिकार हो जाते हैं।
जेएनयू और दादरी जैसी घटनाओं पर हो-हल्ला मचाने वाली मीडिया के लिये तो ऐसी घटनाएं खबर बनती ही नहीं हैं। सरकारी, गैर सरकारी जमीन पर कब्जे की होड़ और एक वर्ग विशेष को लेकर अखिलेश और पूर्ववर्ती मायावती सरकार की नरमी के चलते पुलिस प्रशासन के हाथ हमेशा बंधे रहते हैं। पुराने लखनऊ में भी कई ऐसे इलाके मिनी पाकिस्तान बन गये हैं, जहां पुलिस रात तो क्या दिन में भी नहीं पहुंच सकती है। यहां बिजली-पानी की चोरी, अवैध निर्माण, सरकारी बकाया नहीं चुकाने की प्रवृत्ति घर-घर में देखी जा सकती है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि प्रदेश में बढ़ती मुस्लिम आबादी और हिन्दुओं की जनसंख्या का घटता ग्राफ इसकी बड़ी वजह है। मुस्लिम बाहुल्य इलाकों से हिन्दुओं का पलायन भले ही आज सुर्खियों में हो लेकिन यह काफी पुराना मसला है।
आबादी के बढ़ते असंतुलन ने माहौल बेहद खराब कर दिया है। प्रदेश के कई गांवों और जिलों के तमाम मोहल्लों, बस्तियों में यह नजारा देखा जा सकता है। पुराने लखनऊ का मौलवीगंज, सआदतगंज, चौपटियां, बिल्लोचपुरा, हसनगंज, अकबरी गेट, बजाजा, मंसूर नगर, कश्मीरी मोहल्ला इसकी बानगी भर हैं।
यहां विकास से बड़ा मुद्दा सांप्रदायिक अलगाव है। इन क्षेत्रों में बाहरी लोगों की बढ़ती संख्या आपसी विश्वास की डोर को कमजोर कर रही है और दिनोंदिन बढ़ रही दशहत। इन इलाकों में पिछले कुछ वर्षों से असामाजिक तत्व बेकाबू होते जा रहे हैं। वे अपने गुनाहों को धर्म की आड़ में छिपाने के लिए दशहत का माहौल बनाते है। और सीधा नुकसान आम आदमी का होता हैं। लोंगो के कारोबार चौपट हो रहे हैं, लोग कामकाज और सुरक्षा के लिए अपनी दुकान-मकान बेचकर दूसरे मोहल्लों का रुख करने को मजबूर हो रहे हैं। सत्ता के संरक्षण और निर्दोष को फंसाने की सियासत ने भी पलायन को हवा दी है। अनजाने खौफ से सहमे कई हिन्दू तो बिना कुछ शोर शराबा किये ही अपनी सम्पति उलटे-सीधे दामोें में बेच कर चले जाते हैं, जिनको लेकर कहीं किसी मंच पर चर्चा नहीं सुनाई देती है। कैराना के बहाने यह चर्चा शुरू हुई है तो उम्मीद है इसकी गूंज देर तक सुनाई देगी। राज्यपाल राम नाइक ने कैराना-कांधला और लखनऊ के हालात पर अखिलेश सरकार से श्वेत पत्र लाने की जो बात कहीं है उसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए। ल्ल