जो रह रहे हैं लिव इन या फ्रेंडशिप कॉन्ट्रेक्ट में,पढ़ें ये खबर
लिव इन रिलेशनशिप और फ्रेंडशिप कॉन्ट्रेक्ट दोनों में है बड़ा फर्क, क्या आप जानती हैं? हमारे देश में अभी तक लिव इन रिलेशनशिप को लेकर कोई कानून नहीं बना है। समय-समय पर जो मामले कोर्ट में आते हैं, उन्हें लेकर फैसले आते हैं। इन्हीं फैसलों के आधार पर लिव इन की परिभाषा तय कर ली जाती है। ठीक इसी तरह मैत्री करार या फैंडशिप कॉन्ट्रेक्ट को लेकर ठोस कानून नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने हाल में लिव इन रिलेशनशिप के रहते परिवार में हो रहे विवादों को देखकर यह फैसला सुनाया कि अगर कोई भी अविवाहित जोड़ा लंबे समय तक एक साथ यानी लिव इन में रहता है तो सुप्रीम कोर्ट उसे शादीशुदा जोड़े की मान्यता दे देगा। यही नहीं, अपने साथी की मौत के बाद महिला उसकी संपत्ति की भी कानूनी हकदार होगी। जरूरत पडऩे पर कानूनी रूप से अविवाहित साबित करने की जिम्मेदारी प्रतिवादी पक्ष की होगी।
यह है मैत्री करार
बहुत से लोगों को यह भ्रांति है कि मैत्री करार व लिव इन रिलेशनशिप एक ही बात है। कानून के अनुसार दो व्यक्तियों के बीच मित्रता प्रामाणिक है। चाहे वह स्त्री या पुरुष के बीच हो। इसमें शपथ पत्र पर लिखना पड़ता था कि पुरुष या स्री विवाहित है या अविवाहित व उनके कितने बच्चे हैं। इसमें ये लिखना भी आवश्यक होता था कि ये दोनों कितने महीने या कितने वर्षों तक साथ रहना चाहते हैं। यह अलग बात थी कि एक विवाहित और दूसरा अविवाहित आपस में करार कर रहे थे। गुजरात के एक विधायक ने विधानसभा में इसके विरुद्ध मोर्चा खोला कि यहां दिन ब दिन मैत्री करार बढ़ते जा रहे हैं। हिंदू मैरिज एक्ट के अनुसार मैत्री करार गैर कानूनी माना गया। जब पुरुषों ने इन स्त्रियों को छोड़ा और संतान उत्पन्न हो गई, जिन्हें कोई वैधानिक अधिकार नहीं था। तब स्त्री संस्थाओं के विरोध करने पर इस पर सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया।
जानिए लिव इन को भी
कानून के अनुसार जो जोड़े विवाह के लिए सक्षम हैं, लेकिन फिर भी बिना विवाह के साथ रह रहे हैं, इसे ही लिव इन रिलेशनशिप कहा जाता है। बस वे वयस्क हों, मानसिक रूप से अस्थिर न हों, न किसी और से विवाहित हों, न तलाकशुदा हों। अनैतिक संबंधों को इस रिश्ते में नहीं गिना जाता। जब ये दोनों अनेक वर्षों तक एक-दूसरे के साथ रहते हैं, तभी इसे लिव इन रिलेशनशिप माना जाता है।
सबसे पहले 1978 में बद्रीनाथ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने लिव इन रिलेशन को मान्यता दी।
फिर 1985 में आंध्र हाईकोर्ट ने इसे बहाल किया।
वर्ष 2001 में पायल शर्मा के केस में सुप्रीम कोर्ट ने बहाली दी।
वर्ष 2003 में जस्टिस मल्लिकानाथ की कमेटी ने लिव इन रिलेशन को शादी जैसा दर्जा देने की सिफारिश की। ये बात और है कि अभी तक इसे कोई कानूनी दर्जा नहीं मिला है।
वर्ष 2006 में घरेलू हिंसा का जो कानून बना, उसमें लिव इन रिलेशन में रहने वाली औरतों को भी कानूनी रूप से मिलने वाले सुरक्षा के अधिकार दिए गए।
वर्ष 2008 में सुप्रीम कोर्ट ने लिव इन से जन्म लेने वाले बच्चों को कानूनी शादी से जन्म लेने वाले बच्चों जैसे अधिकार दिए। जैसे कि गुजारा भत्ता, पिता की मिलकियत में हक-हिस्सा। लिव इन रिलेशन को कोर्ट के फैसलों के तहत जो बहाली मिली, उसके चलते घरेलू हिंसा के कानून के तहत औरतों को जीवन निर्वाह भत्ता पाने का हक, शारीरिक-मानसिक अन्य त्रासदी से मुक्ति और सुरक्षा का हक, घर में निवास का हकआदि मिले।
नहीं मिलता गुजारा भत्ता
क्रिमिनल प्रोसिजर कोड की धारा 123 के तहत परिणित को जो मेन्टेनन्स का हक मिलता है, वैसा हक लिव इन रिलेशनशिप में नहीं मिलता, क्योंकि लिव इन रिलेशन में कोई कानूनी बंधन नहीं होता। इसलिए लिव इन के साथियों को अलग होने के लिए तलाक जैसी कार्यवाही नहीं करनी होती।