ये प्लान, राहुल ही नहीं शीला पर भी निगाह!
एजेंसी/ लखनऊ। उत्तर प्रदेश में विधानसभा के लिए चुनाव अगले साल होने हैं लेकिन सभी पार्टियां चुनाव की तैयारियों में अभी से लग गई है और अपनी संभावनाएं तलाशनी शुरू कर दी है।। कांग्रेस ने इस चुनाव के लिए ये जिम्मेदारी चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर को दी है। एक तरफ जहां पार्टी किशोर से अप्रत्याशित बदलाव की उम्मीद कर रही है तो दूसरी तरफ इस रणनीतिकार के लिए अपने विजय रथ को जारी रखना इस बार आसान नहीं होने वाला है।
बिहार में मिली चुनावी सफलता के बाद कांग्रेस यूपी उपचुनावों में देवबंद सीट जीतकर सपा और बसपा को यह संदेश देने में जरूर सफल हुई है कि उसे नजरअंदाज करना खतरनाक साबित हो सकता है। लेकिन, हाल में घोषित कुछ चुनावी सर्वेक्षणों में पार्टी के लिए कुछ खास नहीं था।
इसी को देखते हुए प्रशांत किशोर ने हाल ही में इस चुनाव के लिए सवर्ण कार्ड का मुद्दा उछाला है, बावजूद इसके यह कहना गलत नहीं होगा कि यूपी चुनाव की यह जिम्मेदारी प्रशांत के लिए अब तक की सबसे मुश्किल चुनौती साबित होने वाली है। आइए जानते हैं प्रशांत किशोर को यूपी में किन चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है।
सीएम उम्मीदवार का अभाव- यूपी में कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी चुनौती सीएम पद के लिए उम्मीदवार का चयन करना है। एक तरफ यूपी जैसे राज्य में बिना सीएम उम्मीदवार की घोषणा किए चुनाव जीतना आसान नहीं तो वहीं दूसरी तरफ अखिलेश यादव और मायावती को टक्कर देने के लिए इस स्तर का नेता ढ़ूंढ़ पाना निश्चित रूप से एक चुनौती से कम नहीं है। जातीय संतुलन बनाने के लिए कांग्रेस सीएम उम्मीदवार के लिए किसी सवर्ण का नाम घोषित कर सकती है। हालांकि प्रशांत किशोर यूपी में प्रियंका या राहुल गांधी गांधी को सक्रिय करने की मांग कर रहे हैं।
हालांकि सीएम पद के उम्मीदवार के नाम खी घोषणा करने की मांग कांग्रेस कार्यकर्ता भी कर रहे हैं ताकि कार्यकर्ताओं में नए सिरे से उर्जा का संचार हो सके। हालांकि राहुल गांधी ने इससे इंकार जरूर किया है लेकिन पार्टी हाई कमान अभी भी इस मुद्दे पर चुप्पी साधे है। पार्टी जरूर विचार करने में लगी होगी कि प्रियंका गांधी को उत्तर प्रदेश में किस तरह की भूमिका दी जाए। जहां तक यूपी में सीएम पद की दावेदारी का सवाल है तो कुछ चेहरे प्रमुखता से सामने आ रहे हैं, जिनमें कन्नौज की बहू और दिल्ली की सीएम रह चुकीं शीला दीक्षित का नाम सबसे ऊपर है।
इसके अलावा राहुल गांधी के करीबी माने जाने वाले जतिन प्रसाद (शाहजहांपुर के कुंवर जितेंद्र प्रसाद के पुत्र) और विधानमंडल दल के पूर्व नेता प्रमोद तिवारी के नाम पर भी चर्चा जारी है। हालांकि इस सूची में पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष निर्मल खत्री का नाम नजर नहीं आता और आने वाला वक्त ही बताएगा कि किस नाम पर पार्टी अंतिम निर्णय लेती है।
जनाधार की कमी- करीब 3 दशकों से सत्ता से दूर रहने के कारण यूपी में कांग्रेस का जनाधार लगातार घटता दिख रहा है। लगातार घटते जनाधार और जनता से बढ़ती दूरी के कारण कांग्रेस नीति, विचार और नेतृत्व के मामले में खोखली हो चुकी है। जहां तक प्रदेश में सवर्ण मतदाताओं का सवाल है तो उस पर बीजेपी और बीएसपी की अच्छी पकड़ है जबकि अल्पसंख्यक मतों पर पिछले चुनाव में सपा ने कब्जा जमाया था। हालांकि इस चुनाव में अल्पसंख्यकों में सपा को लेकर नाराजगी है जिसका फायदा कांग्रेस को मिल सकता है।
यूपी में ऐसे भी कांग्रेस के पास सवर्णों को रिझाने के अलावा कोई विकल्प भी नजर नहीं आ रहा। जहां एक तरफ सपा अल्पसंख्यकों को और मायावती दलितों को अपनी ओर खींचने में लगे है तो दूसरी तरफ बीजेपी ने भी सीएम उम्मीदवार से अपना झुकाव भी पिछड़ी जातियों की तरफ दिखाया है। ऐसे में सवर्म उपेक्षित महसूस कर सकते हैं और उनको रिझाने का दांव कांग्रेस ने खेला है।
पार्टी की अंदरूनी राजनीति- कांग्रेस के भीतर अंदरूनी राजनीति पूरी तरह हावी है और गुटबाजी अपने चरम पर है। हैरान करने वाली बात यह है कि केवल स्थानीय नेताओं तक ही सीमित नहीं है, बल्कि पार्टी के वरिष्ठ नेताओं में भी मतभेद साफ तौर पर देखा जा सकता है। कानपुर में श्रीप्रकाश जायसवाल और अजय कपूर और बाराबंकी में पीएल पूनिया और बेनी प्रसाद वर्मा के बीच मतभेद की खबरें किसी से छिपी नहीं है। लखनऊ में रीता बहुगुणा जोशी की कहानी भी कुछ इसी तरह की है।
संगठनात्मक ढांचे का अभाव- यूपी में कांग्रेस को संघठनात्मक ढांचे का अभाव भी नुकसान पहुंचा सकता है। कांग्रेस के यूपी संगठन को प्रशांत किशोर ने भी दरकिनार कर दिया है, हालांकि किशोर ने संगठन को मजबूत बनाने की दिशा में काम करना शुरु कर दिया है। किशोर ने हर सीट पर 250 कार्यकर्ताओं की टीम बनाने का आदेश दिया है और टीम लीडर प्रदेश कांग्रेस को नहीं बल्कि को नहीं प्रशांत किशोर की टीम को रिपोर्ट करेंगे। यही नहीं चुनाव के 3 महीने पहले टिकट घोषित किया जाएगा जिसमें युवाओं को 40 फीसदी टिकट देने का प्रस्ताव है। किशोर ने साफ कर दिया है कि कार्यकर्ता को सीधे राहुल से जोड़ना उनका काम है और उसी को देखते हुए प्रशांत किशोर ने न सिर्फ प्रदेश कांग्रेस की जमकर उपेक्षा की बल्कि मंच पर उपस्थित खत्री-मिस्त्री की टीम भ खामोश रही।
गठबंधन की अड़चनें- कांग्रेस उस स्थिति में नहीं दिख रही है कि अकेले दम पर कुछ करिश्मा कर सके, ऐसी स्थिति में कांग्रेस किसी अन्य पार्टी का सहारा भी ले सकती है। यूपी चुनाव में जेडीयू और दूसरे छोटे दल मिलकर बीजेपी और सपा को हराने के लिए बसपा या कांग्रेस के साथ नरम रुख अपना सकते है। मायावती की नजरें भी किसी गठबंधन के तरफ होंगी इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता।
प्रशांत किशोर की असली परीक्षा- प्रशांत किशोर 2014 के लोकसभा चुनाव में पीएम मोदी के साथ और पिछले साल हुए बिहार विधानसभा चुनाव में जेडीयू-आरजेडी गठबंधन के साथ काम कर चुके हैं। इन दोनों चुनावों में प्रशांत को जबर्दस्त कामयाबी मिली और वे राजनीतिक पार्टियों की पहली पसंद के तौर पर उभरे। इन दोनों चुनावों में प्रशांत को बहुत ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी क्योंकि दोनो चुनावों में संबंधित पार्टियों की मजबूत जमीनी पकड़ तो थी ही साथ में जातीय- स्थानीय समीकरण भी उनके साथ था। लेकिन यूपी की कहानी अलग है।
यहां कांग्रेस का जनाधार के साथ-साथ संगठन भी मरणासन्न अवस्था में है। यहां पार्टी के पास सीएम उम्मीदवारी के लिए न तो कोई चेहरा ही है और न ही मजबूत जनाधार वाला कोई स्थानीय चेहरा। करीब 3 दशकों से सत्ता से दूर रहने के कारण पार्टी के कार्यकर्ता तो सुस्त पड़ ही चुके हैं साथ ही आंतरिक गुटबाजी भी चरम पर है और इसका नजारा तब देखने को मिला जब वाराणसी में एक बैठक में युवा कांग्रेस के दो गुट प्रशांत किशोर की टीम के सामने ही भिड़ गए। जाहिर है इन हालातों में प्रशांत किशोर भी अपनी पूरी ताकत झोंक देंगे और 2012 के विधानसभा चुनाव की गलतियों से सबक लेते हुए कुछ अप्रत्याशित बदलाव लेकर आएं।