इस बांध के लिए हिमाचल प्रदेश के साथ उत्तराखंड सरकार ने एमओयू साइन किया है। दोनों राज्यों की ओर से अगले पांच साल में इसे पूरा करने का लक्ष्य रखा है। हालांकि इस परियोजना का विरोध करने के चलते लग रहा है कि यह उचित नहीं है। जब पूरे देश में आज बिजली की आवश्यकता है और इस प्रकार से परियोजनाओं का विरोध होता रहेगा तो फिर विकास कैसे हो सकेगा।
दस्तक ब्यूरो, देहरादून
वोदित उत्तराखंड में परियोजनाओं का विरोध अब नई बात नहीं रही। कोई भी परियोजना हो खासकर जल विद्युत परियोजनाओं पर विरोध तो आम है। उत्तराखंड में मनरेभाली हो या फिर टिहरी बांध सभी ने विरोध झेला। हालांकि टिहरी व मनेरीभाली फेज -1 शुरू हो गई। भैरोंघाटी समेत कई परियोजनाओं पर आधा अधूरा काम होने के बाद इनको बंद कर दिया। कुछ ऐसा ही एक बार फिर जौनसार बाबर में हिमाचल प्रदेश के साथ साझे में बन रही किशाऊ परियोजना का भी विरोध शुरू हो गया है। जौनसार बाबर क्षेत्र की टौंस पर बन रही इस परियोजना पर लोगों के तेवर गरम होने लगे हैं। उनका कहना है कि बेहतरीन उपजाऊ मानी जाने वाली जमीन पूरी तरह से लुप्त हो जाएगी।
इसका विरोध करने वालों का तर्क है कि उत्तराखंड को ऊर्जा प्रदेश बनाने में तुले यहां के राजनेता वर्ष 2013 में आई आपदा से सबक नहीं ले रहे हैं। इसके बावजूद सरकार एक और एमओयू साइन करने पर तुली है। बताते चलें कि अभी हाल में ही उत्तराखंड व हिमाचल सरकार के बीच एमओयू साइन हुआ है। इसके तहत यमुना नदी की सहायक नदी टौंस पर किशाऊ बांध का निर्माण 2020 तक पूरा कर लिया जाएगा। लोगों का कहना है कि एक ओर प्रदेश प्राकृतिक आपदाओं से जूझ रहा है तो दूसरी ओर जौनसार बाबर क्षेत्र, जहां जनजाति के लोग रहते हैं, वहां पर परियोजना बनाकर लोगों को विस्थापित करना चाहती है। बताते चलें कि राष्ट्रीय महत्व की किशाऊ बांध परियोजना निर्माण के लिए केंद्र के साथ ही हिमाचल व उत्तराखंड सरकार की दिलचस्पी बढ़ती ही जा रही है। वहीं योजना के विरोध में पचास गांव के लोग लामबंद हो गए हैं। ग्रामीण कहने लगे हैं कि वह अपनी जमीन को किसी भी कीमत पर बलि नहीं चढ़ने देंगे। उनका कहना है कि इससे एक ओर जमीन जलमग्न हो जाएगी तो दूसरी ओर उनकी जनजातीय संस्कृति भी पानी में समा जाएगी।
ग्रामीणों का आरोप है कि परियोजना के बनाने से पहले उनसे राय भी नहीं ली गई। 660 मेगावाट की किशाऊ बांध परियोजना के निर्माण क्षेत्र के अंतर्गत कच्ची भूगर्भीय बनावट व परियोजना क्षेत्र में समाहित होने वाली सिंचित व उपजाऊ कृषि भूमि एवं जनजातीय जनसंख्या के विस्थापन का मुद्दा गंभीर है। जनजातीय क्षेत्र की विशिष्ट सामाजिक व आर्थिक बनावट को देखते हुए संविधान में भी इसके संरक्षण के लिए विशेष प्रावधान किए गए हैं। जनजातीय क्षेत्र के प्राकृतिक संसाधनों की हिफाजत इसमें एक बड़ी वजह है। क्योंकि उत्पादन कर निम्न अवस्था की वजह से जल, जंगल, जमीन पर जनजातीय क्षेत्र की जनसंख्या अभिन्न रूप से निर्भर करती है। विकास की मुख्यधरा के वेग के मध्य इनकी जातीय अथवा उपजातीय पहचान रखना भी बड़ी चुनौती है। ऐसे में जब जौनसार बाबर में प्रस्तावित किशाऊ परियोजना को बांध को लेकर विरोध की आवाजें तेज होने लगी हैं। चकराता क्षेत्र के संभर कुवानू स्थित जगह पर यह बांध प्रस्तावित है।
इस क्षेत्र से अभी तक किसी प्रकार का भी पलायन नहीं हुआ है। इससे साफ है कि इस क्षेत्र में कृषि भूमि ही लोगों को रोजगार व जीवन जीने के लिए पर्याप्त साधन उपलब्ध करा रही है। क्षेत्र के लोग पूरी तरह से कृषि पर ही निर्भर हैं। एक तरफ यहां के वाशिंदे धान की फसल उगाते हैं तो दूसरी तरफ नगदी फसलों की यहां अच्छी पैदावार है। ऐसे में यदि सोना उगलने वाली कृषि भूमि बांध की भेंट चढ़ गई तो प्रभावित लोगों को रोजगार के लिए विस्थापन झेलना पड़ेगा। उनका कहना है कि किशाऊ बांध क्षेत्र में समाहित भूमि में उत्तराखंड क्षेत्र की भूमि हिमाचल की भूमि से अधिक उपजाऊ है। यही नहीं बांध का डाउन स्ट्रीम भी उत्तराखंड की सीमा में ही मौजूद होगा और बांध निर्माण के बाद इस जलाशय का पानी दिल्ली पहुंचाया जाएगा। बताते चलें कि 660 मेगावाट क्षमता की किशाऊ बांध परियोजना में 236 मीटर ऊंचा बांध टौंस नदी पर बनाया जाना है। 20 जून 2015 को देहरादून के बीजापुर गेस्ट हाउस में इस बांध के लिए हिमाचल प्रदेश के साथ उत्तराखंड सरकार ने एमओयू साइन किया है। दोनों राज्यों की ओर से अगले पांच साल में इसे पूरा करने का लक्ष्य रखा है। हालांकि इस परियोजना का विरोध करने के चलते लग रहा है कि यह उचित नहीं है। जब पूरे देश में आज बिजली की आवश्यकता है और इस प्रकार से परियोजनाओं का विरोध होता रहेगा तो फिर विकास कैसे हो सकेगा। यह पहला मामला नहीं है बल्कि इससे पहले भी कई परियोजनाओं का विरोध उत्तराखंड में हो चुका है। =