साहित्य

‘रचना का जीवद्रव्य’

-शिवकुमार यादव

रचना का जीवद्रव्य’ जितेन्द्र श्रीवास्तव की सद्य: प्रकाशित आलोचनात्मक पुस्तक है जिसमें कविता, कहानी, उपन्यास, गजल, संस्मरण, आत्मकथा की समीक्षाओं के साथ-साथ डायरी के नोट्स तथा व्याख्यान भी संकलित हैं। यह पुस्तक आपातकाल से लेकर आज तक की कहानी की मूल संवेदना में आए परिवर्तनों की गहरी शिनाख़्त करती है। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, आदिवासी विमर्श, साम्दायिकता, भूमंडलीकरण, उदारीकरण एवं बासी साहित्य किस तरह से हिन्दी कहानी को प्रभावित करते हैं इसकी गहरी पड़ताल आलोचक ‘आपातकाल के बाद हिंदी कहानी’ शीर्षक अध्याय में प्रस्तुत करता है। ‘राहुल सांकृत्यायन की आत्मकथा का महत्व’ शीर्षक अध्याय में आलोचक ने राहुल सांकृत्यायन की आत्मकथा के सामाजिक एवं सांस्कृतिक महत्व को रेखांकित करते हुए उसे एक साधक की आत्मकथा करार दिया है, जो अपनी गतिशीलता का जयघोष नहीं करता बल्कि अपनी कमियों को बिना किसी आवरण प्रस्तुत करता है। ‘मैनेजर पाण्डेय’ के आलोचना कर्म का गहन विवेचन, अध्ययन एवं विश्लेषण ‘मैनेजर पाण्डेय का आलोचना-कर्म’ शीर्षक अध्याय में प्रस्तुत है। इसमें वे मैनेजर पाण्डेय की आलोचनात्मक पुस्तकों को खंगालकर उनकी मान्यताएँ स्तुत करते हुए अपनी बात रखते हैं कि- ‘‘मैनेजर पाण्डेय ने अब तक जो लिखा- कहा है, पूरी जिम्मेदारी से लिखा-कहा है। कोई उनके लेखन, उनकी स्थापना अंौर उनके विश्लेषण से असहमत हो सकता है लेकिन उसे अनदेखा नहीं कर सकता। उनकी कोई भी पुस्तक उठाकर पढ़ जाइए, ज्ञान-विज्ञान की जैसी आवाजाही उनकी आलोचना में है, उनके समकालीन किसी दूसरे आलोचक की आलोचना में नहीं है।’’

हिन्दी दलित कविता पर विचार करते हुए आलोचक जितेन्द्र श्रीवास्तव तिरोध की परम्परा को रेखांकित करते हुए 1914 में सरस्वती में काशित ‘हीरा डोम’ की कविता को उद्घाटित करते हैं और उसकी महत्ता को तिपादित करते हैं। इसमें वे डॉ. अम्बेडकर तथा महात्मा गाँधी के विचारों की गहरी समीक्षा करते हुए साठ के दशक के कवि देवेन्द्र कुमार, ओमप्रकाश वाल्मीकि, कंवल भारतीय, मलखान सिंह, सी.बी. भारती, श्यौराज सिंह ‘बेचैन’, शाुघ्न कुमार, सूरजपाल चौहान, देवेश कुमार चौधरी ‘देव’, सुदेश तनवर, आदि की कविताओं के सामाजिक तथा मानविक निहितार्थों की सूक्ष्म शिनाख़्त करते हुए उसे भारतीय समाज के लिए भविष्य का जीवद्रव्य माना है। ‘काव्य-चित्त की परिष्कार और विस्तार’ शीर्षक अध्याय में ‘उमेश चौहान’ के कविकर्म गहन विवेचन है तो ‘अपने मन जैसा जीवन जीने की लालसा’ में ‘मौयी पुष्पा’ के उपन्यास ‘कही ईसुरी फाग’ के मुक्तिकामी स्वर की गहरी समीक्षा। इस समीक्ष्य पुस्तक में एक तरफ ‘अखिलेश’ के कालजयी उपन्यास ‘निर्वासन’ में अन्तर्निहित सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक एवं मानवीय मूल्यों का सूक्ष्म विवेचन है तो दूसरी ओर ‘महाभोज’ की भाषा का गहरा अध्ययन। इसमें साम्दायिकता एवं राष्ट्रवाद की आग में जलने वाले मनुष्यों का चित्रण करने वाले उपन्यासकार ‘यिंवद’ के उपन्यासों की गहरी पड़ताल है तो ‘गालिब’ की कविता का जनतांत्रिक स्वरूप की शिनाख़्त भी। इसमें एक तरफ ‘कैफी आजमी’ के गीतों, नज़्मों आदि के मानवतावादी स्वरूप का गहरा विवेचन है तो दूसरी तरफ विश्वकवि ‘रवीन्द्रनाथ टैगोर’ की कविताओं एवं गीतों के विश्वव्यापी मूल्य की चर्चा भी। इसमें एक तरफ ‘अलेक्सान्द्र ब्लोक’ रूसी भाषा के कवि की कविताओं की विशेषताएँ हैं तो दूसरी तरफ ‘निकोलाई ज़बोलोत्स्की’ की कविताओं के स्वरूप का सूक्ष्म चित्रण भी। इसमें एक तरफ ‘अखिलेश’, ‘सत्यनारायण पटेल’ तथा ‘स्वयं प्रकाश’ की कहानियों की गहरी शिनाख़्त है तो दूसरी ओर ‘कान्तिकुमार जैन’ के संस्मरण की सूक्ष्म पड़ताल। ‘डायरी से चौबीस नोट्स’ में आलोचक के समय-समय पर लिखे गये फुटकर नोट्स हैं जो स्त्री, दलित, आदिवासी आदि विभिन्न विषयों पर लिखे गये हैं।

इसी भाग में कुछ महत्वपूर्ण काव्य संग्रहों की सारगर्भित समीक्षाएँ भी संग्रहीत हैं। इसमें ‘रामदरश मिश्र’, ‘दिविक रमेश’, ‘श्रीकाश शुक्ल’, ‘अनिलािपाठी’, ‘मानबहादुर सिंह’ आदि कवियों की कविताओं पर बेहद गंभीर ढंग से विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। वर्तमान हिन्दी कविता के महत्वपूर्ण एवं अपने लोक आख़्यान के लिए सिद्घ कवि ‘श्रीकाश शुक्ल’ के काव्य संग्रह ‘रेत में आकृतियाँ’ की समीक्षा करते हुए आलोचक ‘जितेन्द्र श्रीवास्तव’ ने उन्हें ‘स्मृति और कृतज्ञताबोध’ के साथ-साथ ‘संस्कृति चिंता’ के कवि के रूप में प्रतिस्थापित किया है- ‘श्रीप्रकाश शुक्ल रेत के बहाने जीवन और समाज की परिक्रमा करते हैं। इस संग्रह में वे रेत के सौंदर्य के नहीं, स्मृति और कृतज्ञताबोध के कवि के रूप में सामने आते हैं। यहाँ रचने का दंभ नहीं, रचे जाने की कृतज्ञता है, वह भी उस रेत के हाथों जो सिर्फ रौंदी गई है, जिसका सिर्फ उपयोग किया गया है।’ इस प्रकार समग्रता में देखें तो यह आलोचनात्मक पुस्तक हिन्दी साहित्य की लगभग हर विधाओं को आत्मसात करते हुए आलोचना का ऐसा रसायन तैयार करती है जिसे पीकर पाठक रचना के जीवद्रव्य तक स्वत: पहुँच जाता है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि अपने विषय वैविध्य तथा निष्पक्ष आलोचकीय विवेक के कारण यह आलोचनात्मक पुस्तक बहुप्रशंसित एवं बहुउद्घृत होगी।
(समीक्षक शिवकुमार यादव काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी में हिन्दी विभाग के शोध छात्र हैं।)

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