स्तम्भ: मंथरा के जाने के बाद कैकेयी मंथरा के विचारों का सूक्ष्म अवलोकन करने लगीं, मनुष्य स्वभाव से ही महत्वाकांक्षी होता है, वह सदैव अपनी प्रभुता को लेकर चिंतित रहता है। यहाँ तक कि वह अपने प्रभुत्व की स्थापना के लिए उचित-अनुचित के बीच का भेद भी विस्मृत कर देता है। और कालान्तर में उसका अविवेक ही उसके गुणों को अवगुणों में रूपांतरित कर उसके पतन का कारण होता है।
यह महाराज दशरथ की विवेकशीलता ही है जो आज वे वृद्धावस्था की ओर बढ़ते हुए भी पूर्णतः निश्चिन्त हैं। कितनी सुंदर बात कही महाराज ने, अशक्त होने से पहले ही सशक्त हाथों में शासन को सौंप देना चाहिए, इससे प्रजा के अंदर शक्ति और उत्साह बना रहता है।
सही तो है, अशक्त होने के बाद सत्ता का हस्तांतरण प्रजा के अंदर विश्वास नहीं विवशता के भाव का संचार करता है, इससे नये राजा की योग्यता के प्रति प्रजा शंकित बनी रहती है, प्रजा तक बिना बोले यह संकेत पहुँच जाता है कि पुराने राजा को सम्भवत: नए राजा की क्षमता पर विश्वास नहीं था इसलिए उन्होंने नए राजा का अभी तक राज्याभिषेक नहीं किया था। दूसरी ओर पुराने राजा की सजगता और सेवाभाव को भी प्रजा उसकी राजलिप्सा मान लेती है।
अपने विचारों में मग्न कैकेयी को अपनी प्रिय दासी दीपशिखा का स्वर सुनाई दिया- महारानी, संध्या हो गई है, आज आपने भोजन भी नहीं किया। राजकुमार राम आपके दर्शन करना चाहते हैं, वे स्वागत कक्ष में आपके आदेश की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
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कैकेयी बिना कोई उत्तर दिए सीधे अपने स्वागत कक्ष में पहुँचीं तो देखा राम व्यथित मुद्रा में खड़े हुए प्रतिक्षारत हैं !
आते ही कैकेयी ने कहा- पिता की अनुपस्थिति में पुत्रों को माँ के दर्शन के लिए अनुमति की आवश्यकता नहीं होती राम। ये कैसी औपचारिकता का निर्वाह करने लगे हो तुम ? उन्होंने बहुत ममत्व से राम का हाथ पकड़ा और खींचते हुए अपने अध्यन कक्ष में ले गयीं।
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कैकेयी का अध्यन कक्ष एक छोटा-मोटा ग्रंथालय ही था, जिसमें विभिन्न विषयों से सम्बंधित बहुत सारे अतिमहत्वपूर्ण ग्रंथ रखे हुए थे।
राम कुछ अनमनस्क से थे, किंतु वे एक बार फिर अपनी माँ कैकेयी की मन को पढ़ लेने की क्षमता से प्रभावित हो गए।
राम ने किंचित मुस्कान के साथ कहा- माँ तुम मन पढ़ना जानती हो..तुमको कैसे पता चला की मैं आज तुमसे, तुम्हारे अध्यन कक्ष में बैठकर ही चर्चा करना चाहता था ?
कैकेयी ने हँसते हुए कहा- मन की ग्रंथियाँ- ग्रंथालय में ही सहजता से खुलती हैं पुत्र। तुम्हारे मुख पर व्यथा के भाव तुम्हारे हृदय की कथा कह रहे हैं। अयोध्या में यही तो एक मात्र कक्ष है जहाँ महाराज दशरथ भी बिना अनुमति के प्रवेश नहीं कर सकते। तुम मुझसे चर्चा करते समय पूर्ण एकांत चाहते थे।
कैकेयी देख रहीं थीं की राम चर्चा आरम्भ करने से पहले अपनी माँ से गोपनीयता की शपथ चाहता है। उन्होंने विषय की गम्भीरता को समझते हुए राम से पूछा- पुत्र, तुम्हें मुझ पर विश्वास क्यों है ?
क्योंकि तुम विश्वनीय हो माँ, इसलिए राम तुम पर विश्वास करता है।
कैकेयी ने दूसरा प्रश्न किया- जो विश्वसनीय हो, उसके विश्वास को पुनः परखना किस श्रेणी में आता है ?
राम झेंपते हुए बोले- मूढ़ता की।
कैकेयी ने फिर पूछा- इसे मूढ़ता क्यों कहा जाता है ?
राम ने हँसते हुए कहा- इसलिए क्योंकि परखने के बाद ही तो विश्वास का जन्म होता। परखे हुए को पुनः परखना अविश्वास को जन्म देता है, जो व्यक्ति विश्वास को अविश्वास में रूपांतरित कर दे वह मूढ़मति ही माना जाता है।
कैकेयी ने उत्तर से संतुष्ट होते हुए कहा- राम का अर्थ होता है ज्ञान, और जहाँ ज्ञान होता है वहाँ संदेह का कोई स्थान ही नहीं होता पुत्र।
राम ने बहुत गहरे नेत्रों से अपनी माँ को देखते हुए बोले- माँ, राम तुम्हारे ऊपर जीवन में कभी अविश्वास नहीं कर सकता। प्रश्न अविश्वास का नहीं चिंता का है। क्योंकि मैं जो कुछ तुमसे कहकर करवाना चाहता हूँ वह, तुम्हारी कीर्ति, तुम्हारे कृतित्व, तुम्हारे ममत्व, तुम्हारी मर्यादा को युगों युगों के लिए कलंकित कर सकता है। इसलिए संकोच आड़े आ रहा है, कि क्या राम को अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए अपनी माँ, अपनी गुरु के सम्मान को ठेस पहुँचनी चाहिए ? क्या मेरा सोचित कर्म तुम्हारे ऊपर लगने वाले कलंक से अधिक कल्याणकारी होगा ?
कैकेयी का हृदय तीव्रता से धड़कने लगा, किंतु तभी उनके मन में विचार आया कि वे और राम, इस समय ग्रंथालय में उपस्तिथ हैं, यहाँ सरस्वती का वास है, इसे सरस्वती का मंदिर कहा जाता है, इसलिए इस स्थान पर उद्घाटित होने वाली कोई भी योजना अकल्याणकारी नहीं हो सकती। यहाँ उच्चारित होने वाला प्रत्येक शब्द सरस्वती के मुख से निकला हुआ शब्द होगा, जब सरस्वती स्वयं ही जिह्वा पर बैठीं हों तब वे अकल्याण का मार्ग सुझा ही नहीं सकतीं।
वे देख रहीं थीं कि आज राम के विचार मंथरा की भाँति मंथर गति से रेंग रहे हैं !! उन्हें आश्चर्य हुआ, राम तो त्वरा बुद्धि का उपासक है उसकी बुद्धि मंथरा का आश्रय कब से लेने लगी ?
अपनी दासी मंथरा की स्मृति मात्र से कैकेयी को हास्य उत्पन्न हो गया वे हँसते हुए बोलीं- तुम निश्चिन्त मन से अपनी बात रखो पुत्र, इसका निर्णय मैं करूँगी की ये राम का स्वार्थ है या परमार्थ ? बच्चे जब माँ की गोद में मल, मूत्र का त्याग करते हैं तब वह माँ के लिए कलंक नहीं होता। बच्चे को स्वच्छ करते हुए माँ स्वयं अस्वच्छ हो जाती है तब वह अपने सौंदर्य की चिंता नहीं करती। इसलिए आश्वस्त रहो पुत्र तुम्हारे कल्याण के लिए यदि कैकेयी को कलंक भी धारण करना पड़ा तो कैकेयी पीछे नहीं हटेगी।
कैकेयी के स्वर ने राम में अपार ऊर्जा का संचार किया। एक हल्के से विराम के बाद राम ने कहा~ #आशुतोष_राणा