अद्धयात्म

राम से भी पहले इस व्यक्ति ने की थी रामराज्य की स्थापना

sita-ji-553f6a27320cc_lदस्तक टाइम्स/एजेंसी(11 अक्टूबर): मनुष्य अनादि काल से विकास के लिए जुटा है। विकास के प्रयास में ज्ञान भी संसाधन है। बल भी संसाधन है। हमारा व्यवहार, परस्पर सौहार्द और प्रेम भी संसाधन हैं। हम ब्रह्म के अंश हैं। ब्रह्म का स्वभाव विकासशील है। जो निरंतर विकासशील हो, वही ब्रह्म है, जो महान है, वही ब्रह्म है।

हमारे मन में विकास की भावना निरंतर है। हमारा ज्ञान और सुंदरता बढ़े, लोग इसी में लगे रहते हैं। परिवार बढ़े, कीर्ति बढ़े। विकासशील स्वभाव को सही तरीके से नहीं समझने की वजह से ही भ्रष्टाचार में संसार लिप्त हो रहा है।

विकास के इस भाव के साथ जुडने के बाद सतत विकास की भावना स्वाभाविक है। विकास के लिए राम राज्य का एक श्रेष्ठ व उत्तम उदाहरण है। भगवान श्रीराम मान गए कि भरत जो कहेंगे, मैं वही करूंगा। भरत ने कहा कि आप जो कहेंगे, मैं वही करूंगा। भरत पहले मना रहे थे कि भैया राम, आप राजा बनें, मैं जंगल में रह लेता हूं या दोनों ही जंगल में रह लेते हैं। आप जैसे खुश हों, वैसा मैं करने के लिए तैयार हूं।

भरत ने यह भी कहा कि आप मुझे अपनी चरण पादुका दे दीजिए। मैं उसी को राजा मानकर राज्य चलाऊंगा। भरत ने सारे प्रयास किए कि श्रीराम अयोध्या लौट चलें। जिस तरह से अनुपम प्रयास भरत ने राम को मनाने के लिए किए, वैसा इतिहास में पहले कभी नहीं था और वह भविष्य में भी तभी होगा, जब राम और भरत फिर प्रकट होंगे। राम जैसे राम हैं और भरत जैसे भरत ही हैं। गगन के समान दूसरा गगन नहीं है वैसे ही राम के समान दूसरे राम नहीं हैं।

जब भरत को चरण पादुका मिल गई तो वे आश्वस्त हुए कि वनवास पूरा करके 14 वर्ष बाद श्रीराम आएंगे। तब तक उनकी चरण पादुका को ही राजा मानकर समय व्यतीत करूंगा। यह किसी बड़े तप से कम नहीं था। भरत चरण पादुका को सिर पर रखकर खड़े हैं।

राम ने सोचा, भरत गए लेकिन वे नहीं जा रहे हैं। तब भरत ने राम से कहा कि 14 साल तक चरण पादुका राजा रहेगी, मैं सेवक रहूंगा। लेकिन राज ऐसे नहीं चलता है इसलिए राज चलाने का कोई सूत्र बताइए ताकि अयोध्या का राज रामराज्य के अनुकूल चले। आप जब लौटकर आएं तो रामराज्य की स्थापना के लिए नींव भरी तैयार मिले। क्योंकि प्रजा केवल आपका ही आशीर्वाद चाहती है।

हमें यह मानना चाहिए और कहना चाहिए कि रामराज्य की संस्थापना राम ने नहीं की, यह काम भरत ने किया। रामराज्य की सारी नींव तैयार करके भरत ने रखी थी, जिस पर रामराज्य स्थापित हुआ।

जैसा रामजी दिखाएं वैसा देखें

भगवान ने जैसी व्यवस्था की है, उसमें जिसकी जैसी योग्यता है उसी के अनुरूप ऊर्जा स्वयं वहां पहुंच जाती है। वह उतनी ही पचेगी, उससे ज्यादा नहीं पचेगी। कमाई का सम-वितरण होना चाहिए, जिसको जितना चाहिए, उसे उतना मिलना ही चाहिए।

सभी लोग रोज आईना देखते हैं कि कितना सुंदर है मुख, किंतु उन्हें मुख के योगदान पर भी विचार करना चाहिए। मुख के उस स्वरूप को देखना चाहिए जो रामजी दिखाना चाहते थे।

मुख में समाहित हैं सभी शक्तियां

मनुष्य जीवन सबसे अच्छा जीवन है और उस जीवन को भी चलाने, शक्ति देने, सुन्दर बनाने के लिए शक्ति मुख से ही मिलती है। मुख रहेगा तो परिवार रहेगा, देश रहेगा, संसार रहेगा। मुख नहीं रहे तो कोई मतलब नहीं। गुरु छूट जाएंगे, अपने लोग छोड़ जाएंगे लेकिन मुख छोड़कर नहीं जाएगा, अतः रामजी ने ऐसा उदाहरण दिया।

अनाचार के लिए बार-बार लोगों को यह बताने की जरूरत है, मुख की याद दिलाने की जरूरत है। आपको शिक्षा लेनी है तो मुख से लीजिए। जो हमने कमाया है, वह धन, बल, यश सब कुछ केवल हमारा ही नहीं है। किसी भी क्षेत्र में ऊजाज् का, शक्ति का सम-वितरण होना चाहिए। तभी स्वस्थ परंपरा का निर्वहन हो सकता है।

मुखिया मुखु सो चाहिए…

रामराज्य में आखिर वह क्या सूत्र है, जिसका पालन लोग करें तो अनाचार नहीं होगा। अनाचार कैसे दूर होगा, यह समस्या पूरी दुनिया की है। अनाचार के विरुद्ध क्या सूत्र है? अनाचार कहां से शुरू होता है? तो राम ने भरत को राम राज्य का सूत्र दिया। राम राज्य पर श्रीराम ने कहा-

मुखिआ मुखु सो चाहिए खान-पान कहुं एक।

पालइ-पोषइ सकल अंग तुलसी सहित बिबेक।।

मुखिया को मुख के समान होना चाहिए। खाता मुंह है लेकिन जो ऊर्जा बनती है वह अपने पास नहीं रखता। बालों को देता है, रोमों को देता है, हाथ-पैर को देता है, नाक, कान को देता है, हर अंग को देता है। यदि सारी ऊर्जा अपने पास रख लेता तो राक्षस जैसा मुंह हो जाता। बाकी अंगों को पता ही नहीं चलता।

तो मुखिया मुख जैसा होना चाहिए। आदमी को कपड़ा, अनाज और संसाधन चाहिए लेकिन आप दूसरे सहयोगियों का हिस्सा भी अपने में ही लगा लेंगे तो आपके जीवन में राम राज्य नहीं आएगा। आपके परिवार में नहीं आएगा। भ्रष्ट लोग अपने भाई को भी वह नहीं दे पाते हैं जो उन्हें मिलना चाहिए। एक ही उदाहरण है-मुखिया मुख सो चाहिए।

 

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