राष्ट्रपति की जाति!
भारतीय क्रिकेट में सर्वशक्तिमान दीखने वाले विराट कोहली भी जो नहीं कर सके, हमारी राजनीति के धांकड़ खिलाड़ियों ने वह कर दिखाया ! अब राष्ट्रपति चुनाव का टॉस कोई भी जीते, मैच कोई दलित ही जीतेगा ! यह लिखते हुए मानो मेरे हाथ गंदले हो गए हैं अौर मन खट्टा हो गया है. कहां से गिर कर हमारे राजनीतिज्ञ कहां पहुंचे हैं; अौर एक राष्ट्र के रूप में हम कहां-कहां अौर कैसे-कैसे अौर किस हद तक अपमानित किए जाएंगे,इसकी पीड़ा इतनी गहरी है कि दुखवा मैं कासे कहूं जैसा हाल है. भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष ने रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति पद का अपना उम्मीदवार घोषित करते हुए तीन-चार बार यह रेखांकित किया कि वे दलित जाति से अाते हैं ! जिसके बारे में देश को यही नहीं मालूम है कि वह कौन है, उसके बारे में अापके पास बताने की सबसे बड़ी पहचान उसकी जाति ही है, इससे उस अादमी का कोई परिचय मिलता हो या नहीं, अापकी जाति का परिचय तो मिल ही जाता है. जिस संविधान के संरक्षण की शपथ ले कर कोई भी राष्ट्रपति बनता है अौर जिस संविधान को रूप-स्वरूप देने में एक दलित बाबा साहेब अांबेडकर की बड़ी भूमिका रही है, वह संविधान हमें एक ऐसे भारत की तरफ बढ़ने का निर्देश देता है जिसमें जाति-धर्म-भाषा-संप्रदाय-लिंग का नहीं, योग्यता का अाधार लिया जाएगा. वही संविधान हमें सावधान भी करता है कि परंपरागत ऐतिहासिक कारणों से हमारे समाज के जो वर्ग, जो वर्ण अौर जो अवर्ण पीछे छूट गये हैं उन्हें बराबरी में लाने की हर संभव व्यवस्था समाज व सरकार करेगी. मतलब एकदम सीधा है कि योग्यता का अाधार ही निर्णायक होगा लेकिन जहां योग्यता का विकास ही समान अवसर देने से सिद्ध होता हो वहां विशेष अवसर की सारी व्यवस्थाएं भी खड़ी की जाएंगी. क्या रामनाथ कोविंद को अागे बढ़ाने के लिए ऐसी किसी व्यवस्था की जरूरत थी ?
जाति, धर्म, संप्रदाय जैसे अनेक तत्व समाज में रूढ़ तो हैं लेकिन ये सारी प्रतिगामी ताकतें हैं जिनके उन्मूलन के हर संभव प्रयत्न करने की जरूरत है ताकि समाज यहां से अागे देख सके अौर चल सके. ये हैं इसलिए सही नहीं हैं; ठीक वैसे ही जैसे सर पर मैला ढोने की अमानवीय प्रथा हमारे घरों-समाजों में बची तो हुई है लेकिन वह सही नहीं है; याकि छुअाछूत अौर जातीय श्रेष्ठता का जहरीला मानस बचा तो हुअा है लेकिन उसकी जड़ों में मट्ठा पटाने की जरूरत है, उसे सींचने की जरूरत नहीं है. लेकिन हमारी सत्ताकेंद्रित व्यवस्था ऐसे गर्हित खेल में बदल गई है जो मानव-मन की अौर सामाजिक चलन की हर कमजोरी को भुना कर सफलता पाने में हिचकती नहीं है. एक शताब्दी से भी अधिक पहले मोहनदास गांधी ने सामाजिक व राजनीतिक संदर्भ में इसे ही ‘वेश्यावृत्ति’ कहा था.
जब भारतीय जनता पार्टी यह गंदा खेल खेल चुकी तो सबसे पहले दलित राजनीति की सूखी हड्डी चूसने में लगी मायावती का बयान अाया कि अगर विपक्ष भी किसी दलित को ही अपना उम्मीदवार घोषित नहीं करता है तो उनकी पार्टी भारतीय जनता पार्टी का ही समर्थन करेगी. इसी भारतीय जनता पार्टी से उत्त्तरप्रदेश में सत्ता छीनने के लिए इन्हीं मायावती ने दलित समाज को किस-किस तरह से उकसाया-भरमाया था, यह किस्सा इतना पुराना तो नहीं पड़ा है कि याद ही न अाए ! अब वही मायावती उसी भारतीय जनता पार्टी को मजबूत बनाने की धमकी देती हैं, क्योंकि दलितों का मानमर्दन करने से ही अब सत्ता की निकटता पाई जा सकती है. नरेंद्र मोदी ऐसी राजनीति के माहिर खिलाड़ी हैं. उन्हें पता था कि कोविंद-गुगली के अागे टिक सकने वाला कोई बल्लेबाज सोनिया-एकादश में नहीं है. विपक्ष के पास न शक्ति बची है अौर न सत्व; अौर उसका मुकाबला मोदी-मायावती से एक साथ हो गया, तो उसने हथियार डाल देने में ही खैर समझी ! इसलिए मोदी के दलित के सामने सोनिया का दलित खड़ा कर दिया गया ! मीरा कुमार के पास इसके अलावा कुछ भी उल्लेखनीय नहीं है कि वे दलित-नेता जगजीवन राम की बेटी हैं !
अब तस्वीर यह बनी कि मोदी के दलित से सोनिया के दलित की हार अटल है. वोटों का गणित साफ है. यह हार इसलिए नहीं होगी कि विपक्ष ने कोई गलत उम्मीदवार खड़ा किया है. यह हार इसलिए होगी कि विपक्ष के पास लड़ने का कलेजा ही नहीं है. उसने हमेशा की तरह लड़ने से पहले ही हार मान ली. यदि कलेजा हो तो लड़ कर हारना हमेशा ही बिना लड़े हार जाने से बेहतर होता है. मोदी-मायावती के दलित से बगैर डरे यदि विपक्ष ने अपना योग्य उम्मीदवार खोजा व खड़ा किया होता तो उसकी पराजय में भी सत्व की जीत तो होती ! दलित समाज से ही खोजा होता तो भी कई योग्य उम्मीदवार मिल जाते जो कम-से-कम ‘दलित’ तो होते ! कोविंद हों कि मीरा कुमार, ये दोनों इस दुर्घटना के अलावा किसी कोने से दलित नहीं हैं कि इनका जन्म दलित परिवार में हुअा है. जन्मना श्रेष्ठता का सिद्धांत यदि सवर्णों के लिए गलत है तो दलितों के लिए भी गलत है. कोविंद अौर मीरा कुमार दोनों ही उस ‘क्रीमी लेयर’ के प्रथम ‘लेयर’ में अाते हैं जिन्हें अारक्षण की सुविधा से वंचित करने की सिफारिश सर्वोच्च न्यायालय ने कर रखी है. लेकिन यहां तो एक राजनीतिक बेईमानी का जवाब दूसरी राजनीतिक बेईमानी से दिया गया है.
देश के पहले राष्ट्रपति के रूप में महात्मा गांधी ने किसी राजेंद्र प्रसाद की नहीं, किसी दलित लड़की की कल्पना की थी अौर साफ शब्दों में लिख कर उसे जाहिर भी कर दिया था. यह भी कह दिया था कि उनकी वह दलित बेटी ‘स्फटिक की तरह निर्मल चारित्र्य’ वाली होगी. मतलब साफ था उनका कि वे दूसरों की राजनीतिक चालों, विद्वता की डिग्रियों अौर पदों के जंगलों में ‘अपनी वह बेटी’ नहीं तलाश रहे थे. वे तो चारित्र्य को ही कसौटी बना रहे थे जिसमें वे अपने दलित समाज को निर्विवाद रूप से बाकी समाज से श्रेष्ठ पाते व मानते अाए थे. हम याद रखें कि आंबेडकर अादि जैसे पेशेवर दलित राजनीतिज्ञों द्वारा की जा रही अपनी लगातार ‘चारित्र्य-हत्या’ के बीच भी अपनी दलित बेटी की बात कहने का नैतिक साहस उनमें था. हम विपक्ष से वैसे नैतिक साहस की मांग कर ही नहीं रहे हैं. हम तो इतना ही कर रहे हैं कि विपक्ष ने यदि उम्मीदवार की योग्यता को अपने चयन का अाधार बनाया होता तो वह चुनाव तो हारता लेकिन मौका जीत जाता. यहां तो उसने दोनों तरह की हार कबूल कर ली है.
संविधान राष्ट्रपति की कल्पना राष्ट्रीय कद के एक ऐसे व्यक्ति के रूप में करता है जो सत्ता के खेल में शामिल नहीं है, जिसके चारित्र्य, ज्ञान अौर गरिमा का देश कायल है. जो पक्ष-विपक्ष की सत्तालोलुपता के बीच अंपायर की तटस्थता से राष्ट्र-प्रमुख की भूमिका निभा सकता है. अाज जब संसद का पलड़ा इस कदर सत्ता-पक्ष की तरफ झुका हुअा है, प्रेस, चुनाव अायोग, न्यायपालिका अादि सभी गहरे दवाब में हैं, समाज डरा हुअा है अौर बिखर रहा है, ऐसे में राष्ट्रपति की प्रतिभासंपन्न तटस्थता पर ही हमारे लोकतंत्र का दारोमदार है. कोविंद हों कि मीरा कुमार, हम इनकी जाति भर याद रख सकते हैं क्योंकि इन्होंने लोकतंत्र का ककहरा तो पढ़ा ही नहीं है.