2014 में नरेंद्र मोदी के केंद्र की सत्ता पर काबिज होने के बाद से ही कांग्रेस इस कोशिश में जुटी है कि विपक्षी दलों को एकजुट रखा जाए, उसकी ओर से पहले यह कोशिश सोनिया गांधी की ओर से की गई और अब राहुल गांधी की ओर से की जा रही है.
विपक्षी एकजुटता का फायदा 2015 में बिहार चुनाव में दिखा जब ‘महागठबंधन’ ने भारतीय जनता पार्टी को धूल चटाई, इससे पहले नई नवेली आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में क्लीन स्वीप करते हुए कांग्रेस और बीजेपी को सत्ता से दूर कर दिया था.
विपक्ष को एकजुट की कोशिश में कांग्रेस
गुजरे 3-4 सालों में कई राज्यों की विधानसभा चुनावों में हार का सामना करने के बाद कांग्रेस एक बार फिर विपक्षी एकता पर जोर देने लगी है और इसके लिए राहुल गांधी कई क्षेत्रीय पार्टियों से संपर्क में हैं. उदाहरणस्वरुप कांग्रेस का गुजरात में युवा नेताओं हार्दिक पटेल और जिग्नेश मेवाणी को साथ रखना या फिर कर्नाटक में तीसरे नंबर पर रहने वाली जेडीएस को समर्थन देकर कांग्रेस ने न सिर्फ बीजेपी को सत्ता से दूर किया बल्कि खुद को सत्ता में बनाए रखा.
क्षेत्रीय स्तर पर गठजोड़ का फायदा देखते हुए राहुल गांधी तृणमूल भी कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी, सपा प्रमुख अखिलेश यादव, राष्ट्रीय लोक दल नेता जयंत चौधरी, बसपा सुप्रीमो मायावती और कई अन्य क्षेत्रीय नेताओं से संपर्क साधते रहे.
केजरीवाल से दूरी
लेकिन इन सब के बावजूद राहुल गांधी ने पिछले 3 साल में आम आदमी पार्टी और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से किसी तरह का संपर्क नहीं किया है. दोनों के बीच दूरी बनी हुई है. खास बात यह है कि राहुल और अरविंद दोनों ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुखर आलोचक हैं और लगातार उन पर हमला कर रहे हैं, लेकिन इनके बीच आपसी एकजुटता नहीं है.
पिछले दिनों अरविंद केजरीवाल ने अपने 3 मंत्रियों के साथ एलजी अनिल बैजल पर केंद्र के इशारे पर काम करने का आरोप लगाते एलजी ऑफिस में धरना देते हुए खुद को बंद कर रखा था. कांग्रेस ने आप के इस आंदोलन का समर्थन नहीं किया था. जबकि केजरीवाल को 4 मुख्यमंत्रियों ममता बनर्जी, पी विजयन, चंद्रबाबू नायडू और एचडी कुमारस्वामी का समर्थन हासिल हुआ.
केजरीवाल के खिलाफ कांग्रेस
यहां यह बात गौर करने वाला है कि राहुल गांधी के अलावा कांग्रेस के कई अन्य नेता केजरीवाल और आम आदमी पार्टी के बारे में क्या कहते हैं.
राहुल ने एलजी ऑफिस में केजरीवाल के धरने पर एक ट्वीट किया था जिसमें उन्होंने केजरीवाल और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दोनों पर निशाना साधा, लेकिन आप सरकार के केंद्र के खिलाफ आंदोलन का समर्थन नहीं किया.
कांग्रेस अध्यक्ष के अलावा अजय माकन ने भी केजरीवाल के खिलाफ अपना हमला जारी रखा और उनकी आलोचना की. दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस की वरिष्ठ नेता शीला दीक्षित ने भी धरने पर बैठने वाले केजरीवाल को नसीहत दी कि ऐसा करने से पहले उन्हें संविधान पढ़ना चाहिए.
केजरीवाल से दूरी क्यों?
आखिर कांग्रेस क्यों केजरीवाल और आप पार्टी से दूरी बनाए रखी हुई है जबकि उसने पूरजोर से बीजेपी पर हमलावर रुख कायम रखा हुआ है.
केजरीवाल ने अन्ना हजारे के साथ लोकपाल आंदोलन की शुरुआत करते हुए कांग्रेस और गांधी परिवार पर जमकर हमला बोला था. केजरीवाल को ‘अनगाइडेड मिसाइल’ तक कहा गया. कांग्रेस और सोनिया गांधी ने केजरीवाल को मोदी सरकार के खिलाफ हमले के लिए आयोजित किसी भी बैठक में निमंत्रित नहीं किया है. सोनिया की तरह राहुल ने भी केजरीवाल से समान दूरी बना रखी है.
पिछले दिनों कर्नाटक में ए़चडी कुमारस्वामी के मुख्यमंत्री पद के शपथ ग्रहण समारोह में सोनिया और राहुल के साथ-साथ केजरीवाल ने भी शिरकत की थी, लेकिन दोनों के बीच कोई मुलाकात नहीं हुई.
कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व विपक्षी एकजुटता के लिए ममता बनर्जी, मायावती, आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू समेत कई अन्य नेताओं को बातचीत के लिए बुला चुकी है, लेकिन उन्होंने न केजरीवाल को न्योता दिया और न ही किसी तरह का ऐसा कोई प्रयास किया. देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी के लिए आम आदमी पार्टी अभी भी ‘अछूत’ बनी हुई है.
दिल्ली में जूनियर पार्टनर नहीं
सूत्र बताते हैं कि कांग्रेस का दिल्ली नेतृत्व नहीं चाहता है कि केजरीवाल के साथ किसी तरह का कोई संबंध कायम किया जाए. कांग्रेस को लगता है कि आप सरकार दिल्ली में अपना जनाधार खो रही है. 3 साल पहले विधानसभा चुनाव में 70 में से 67 सीटों पर कब्जा हासिल करने वाली आप को बड़ा नुकसान होने वाला है. कांग्रेस अपने पुराने वोट बैंक (मुस्लिम और दलित) पर फिर से अपने पक्ष में कराने में जुटी है.
कांग्रेस को उम्मीद है कि अगले चुनाव में मुस्लिम और दलित उसे वोट करेंगे. दिल्ली में अगला चुनाव 2020 में होगा.
एक खास बात यह भी है कि कांग्रेस अगर आप से संपर्क करती है और उसके साथ आगे बढ़ती है तो उसे दिल्ली में जूनियर पार्टनर के रूप में रहना पड़ेगा क्योंकि आप का दिल्ली में वर्चस्व है. कांग्रेस पहले से ही कई राज्यों में जूनियर पार्टनर बनी हुई है. बिहार, जम्मू-कश्मीर, कर्नाटक और उत्तर प्रदेश में भी उसकी स्थिति जूनियर पार्टनर की है. उत्तर प्रदेश में अगर वह सपा और बसपा के साथ किसी तरह का समझौता करती है तो उसकी भूमिका जूनियर पार्टनर की ही रहेगी.
आगामी चुनाव से बदलेगी सूरत!
इस बीच कांग्रेस को उम्मीद है कि साल के अंत में राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में होने वाले विधानसभा चुनाव में उसे फायदा हो सकता है और सत्ता में वापसी हो सकती है. इन तीनों ही राज्यों में बीजेपी की सरकार है और उसे सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ सकता है.
पंजाब में सत्ता में वापसी और गुजरात में अपनी स्थिति सुधारने के बाद कर्नाटक में सत्ता में भागीदार बनने वाली कांग्रेस का आत्मविश्वास बढ़ गया है उसे लगता है कि आने वाले समय में देशव्यापी स्तर पर उसकी स्थिति में सुधार आएगा.
2019 में लोकसभा चुनाव से पहले 3 बड़े राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव अगर कांग्रेस के पक्ष में गए तो बीजेपी की अगुवाई वाली एनडीए के खिलाफ मोर्चा खोलने को लेकर उसका आत्मविश्वास बढ़ा हुआ होगा और विपक्षी गुटों को एकजुट भी बनाने में कामयाब हो सकती है.
हालांकि कांग्रेस के लिहाज से इस राजनीतिक समीकरण में आम आदमी पार्टी कहीं भी फिट नहीं बैठती है और यही कारण है कि राहुल गांधी के लिए केजरीवाल की आप पार्टी आज भी ‘अछूत’ बनी हुई है.