रिश्तों की नजाकत
कृष्ण कुमार यादव
हरपाल सिंह के घर पर तरह-तरह के लोगों का जमावड़ा लगा हुआ था। रंग-बिरंगी लाइटों से सुसज्जित उनका भव्य आवास किसी छोटे-मोटे रजवाड़े के राजमहल से कम नहीं लग रहा था। सफेद परिधानों में तैनात बेयरे हर किसी की फरमाइश पूरी करने हेतु मुस्तैद थे। आने वालों का काफिला रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था। हरपाल सिंह वैसे तो मात्र गाँव के प्रधान थे, पर उनकी दबंगयी और जनाधार के चलते आसपास के गाँवों में भी उनकी काफी इज्जत थी। यहाँ तक कि विधायक और सांसद का चुनाव लड़ने वाले भी उनके समर्थन के कायल रहते थे। आज प्रधान जी की इकलौती बिटिया सुमन की शादी पड़ोसी गांव के प्रधान रामवीर सिंह के बेटे के साथ होने जा रही थी। घर की महिलायें सजधज कर एक जगह बैठी थीं और ढोलक पर थाप देती गातीं- ‘आज आएगी बन्नो की बारात, मैं तो जी भर के नाचूँगी।’
सुहागन के जोड़े में लिपटी दुल्हन को उसकी सहेलियाँ छेड़ती तो वह हल्का सा मुस्कुरा देती। पर इस मुस्कुराहट के पीछे कहीं कुछ रिस रहा था, जो सिर्फ दुल्हन बनी सुमन और उसकी भाभी ही समझ सकती थीं। इकलौती व घर में सबसे छोटी लड़की होने के कारण सुमन को उसके घर वालों ने काफी लाड़-प्यार से पाला था। कॉलेज की पढ़ाई के दौरान सुमन जब हँसती थी तो उसके गाल पर पड़े गड्ढे लोगों की नींद चुराने के लिए काफी थे। अल्हड़ नवयौवना की यह मासूम अदा कब उसे कॉलेज की प्रीति जिंटा बना गई पता ही नहीं चला, पर चूँकि प्रधान जी गाँव के सर्वाधिक प्रतिष्ठित व्यक्ति थे सो उनकी अमानत पर हाथ डालने की किसकी हिम्मत होती। समय का पहिया तेजी से पंख लगाकर उड़ा जा रहा था कि एक हादसे ने सुमन की दुनिया में भूचाल ला दिया। उस दिन वह ज्यों ही कॉलेज का गेट पार करके सड़क पर आई कि तभी तेजी से आती एक खुली जीप में बैठे कुछ मनचलों ने उसका दुपट्टा खींचने की कोशिश की…… पर अचानक देवदूत बनकर प्रकट हुए एक छात्र के प्रतिरोध के कारण उन्होंने भागने में ही भलाई समझी। यह देवदूत कोई और नहीं वरन् सुमन की कक्षा में पढ़ने वाला राकेश था। पढ़ने में अत्यन्त मेधावी पर संकोची स्वभाव के राकेश की जिन्दगी अपने तक ही सिमटी हुयी थी। निर्धन माँ-बाप की औलाद राकेश की पढ़ाई का सहारा कॉलेज द्वारा प्राप्त छात्रवृत्ति और कुछ ट्यूशन थीं। वह दिन तो मानो सुमन की जिन्दगी में तूफान लेकर आया था। सुमन देर रात तक उस वाकये के बारे में सोचती रही कि कैसे ऐन वक्त पर आकर राकेश ने उसकी इज्जत बचायी। अगर वह नहीं आता तो? उस दृश्य की कल्पना करते ही उसके रोंगटे खड़े हो जाते। पर उसे इस चीज का मलाल भी था कि जल्दी-जल्दी में वह राकेश का शुक्रिया भी नहीं व्यक्त कर पायी।
अगले दिन कक्षा में प्रवेश करते ही उसकी निगाह राकेश को ढूँढने लगी पर उसका कोई अता-पता नहीं था। अचानक उसके कानों में कुछ फुसफुसाहट सुनायी दी-‘बड़ा हीरो बनता था। अब अस्पताल में बैठकर अपनी टाँगें जुड़वा रहा होगा।’ ये शब्द सुमन के दिल में उतर गए और उसकी धड़कनें तेजी से चलने लगीं। कक्षा में उसका मन बिल्कुल नहीं लग रहा था। कक्षा समाप्त होते ही उसके कदम अपने-आप अस्पताल की ओर बढ़ गए। पर ये क्या…….राकेश के तो दोनों पैरों और एक हाथ पर प्लास्टर चढ़ा हुआ था। वह अपने को रोक नहीं पाई और पूछ ही बैठी कि यह कैसे हुआ?…… अरे कुछ नहीं, बस साइकिल से गिर गया था….साइकिल से गिरने पर इतनी ज्यादा चोट तो नहीं लगती…… कहते हुए सुमन की आँखों से आँसू छलक पड़े। अचानक उसे अपने सर पर किसी का हाथ नजर आया और उसने नजरें उठाईं तो वह एक प्रौढ़ महिला थी। उन्होंने अपना परिचय देते हुए कहा कि- ‘‘मैं राकेश की माँ हूँ। कल जब राकेश ने उन गुण्डों से तुम्हारी रक्षा की तो तत्काल तो वे चले गए पर कुछ देर बाद इसे खोजते हुए पुन: लौट कर आए और इसकी ये हालत बना दी…. पर बेटी! चिन्ता की कोई बात नहीं है। ईश्वर की दुआ से सब ठीक हो जाएगा।’’ उस दिन के बाद से सुमन के दिल में राकेश ने अपनी जगह बना ली थी। उम्र के तकाजों के बीच प्यार की खुशबू फैलने लगी। एक दिन सुमन ने हिम्मत करके यह बात अपनी भाभी को बतायी तो पहले तो वे डर गयीं पर सुमन के अनुनय-विनय करने पर उन्होने उसे ढाँढस बँधाया कि वह अपनी प्यारी ननद के लिए जरूर कुछ करेंगी।
पर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था। हरपाल सिंह ने अपनी दोस्ती का वादा देते हुए अपनी बेटी की शादी पड़ोसी गाँव के प्रधान रामवीर सिंह के बेटे राम सिंह के साथ तय कर दी। ढके-छुपे शब्दों में सुमन और उसकी भाभी ने इस रिश्ते का विरोध करना चाहा पर हरपाल सिंह कुछ सुनने को तैयार ही नहीं थे। उन्होंने गरजती आवाज में कहा- ‘’मैं इस घर का मुखिया हूँ और इस घर में मेरा ही हुक्म चलेगा। मैंने रामवीर सिंह को जबान दे दी है तो उसका पालन भी होगा।’
खैर वो दिन आ गया। सुमन ने अपने दिल पर पत्थर रख वास्तविकता को स्वीकार किया और दुल्हन के जोड़े में अपने पति के साथ विदा हो चली। कुछ महीने तक तो सब कुछ ठीक-ठाक रहा पर धीरे-धीरे राम सिंह का रात को देर से आना आरम्भ हो गया। प्रारम्भ में सुमन को लगा कि कहीं व्यस्त हो जाते होंगे पर उस दिन तो गजब हो गया…….सुमन अपने कमरे में बैठकर पति का इन्तजार कर रही थी कि अचानक दरवाजा जोर से खुला और इसी के साथ शराब का भभका उसके नथुने में घुस गया। सुमन को पति का यह व्यवहार नागवार गुजरा और उसने पूछ ही लिया कि आप शराब कब से पीने लगे…. कब से पीने लगे मतलब क्या? मैं तो बचपन से ही पीता आ रहा हूँ पर आज तक किसी ने नहीं टोका, फिर तू टोकने वाली कौन होती है? सुमन ने राम सिंह को सँभालकर लिटाना चाहा तो उसने धक्का देकर कहा- ‘साली! तू क्या सोचती है…… तेरे उस आशिक राकेश के बारे में मुझे नहीं पता। सुमन ने सफाई देने की कोशिश की पर राम सिंह पर तो भूत सवार था….. तेरे बाप ने सोचा कि दहेज में एक हीरो होण्डा देकर मुझे खरीद लेगा….. कुलच्छिनी कहीं की।’ सुमन का गला भर आया….. आखिर मेरे पिताजी ने आपका क्या बिगाड़ा है जो उन्हें बीच में…… इससे पहले कि उसका वाक्य पूरा होता एक जोरदार थप्पड़ उसके गाल पर पड़ा और उसकी चीख निकल पड़ी। राम सिंह होशोहवास खोकर बड़बड़ाये जा रहा था…..मैंने तो तुम्हे उसी दिन सबक सिखाने का फैसला कर लिया था जब मैंने तुम्हारा दुपट्टा खींचा था और वो राकेश का बच्चा बीच में आकर सारा खेल गड़बड़ कर दिया था….. इतना सुनना था कि सुमन के होशोहवास उड़ गये। ऐसा लगा मानो कोई उसके दिलो-दिमाग पर हथौडे़ से जोरदार चोट कर रहा हो……तो ये है उसके पति का असली रूप! उसने तो सब कुछ भुलाकर एक नई जिन्दगी आरम्भ करनी चाही थी पर होनी को शायद कुछ और ही मंजूर था। फिर तो यह रोज का तमाशा बन गया। राम सिंह शराब पीकर उत्पात मचाता, सुमन के घर वालों को भद्दी-भद्दी गालियाँ देता और बात-बात पर हाथ उठाता। इस दौरान सुमन को अपने पति के अन्य लड़कियों से सम्बन्ध के बारे में भी पता चल गया था।
इस बीच कई बार सुमन के पिताजी और भैया मिलने आए पर उनके सामने राम सिंह इस तरह व्यवहार करता मानो वो अपनी पत्नी का सबसे ज्यादा ख्याल रखता हो। उसका भेद न खुल जाय इस डर से कभी भी सुमन को उसके पिताजी और भैया के साथ अकेले नहीं छोड़ता। जब भी विदाई की बात आती तो राम सिंह अपनी माँ के बुढ़ापे व बीमारी का हवाला देता और फिर बात अगली बार पर टल जाती। आखिरकार जब बात बर्दाश्त से बाहर हो गई तो हारकर सुमन ने राम सिंह के सामने ही अपने भैया की जेब में एक पत्र डाल दिया और कहा कि-‘भाभी की बहुत याद आ रही थी सो उनके लिए लिखा है।’ घर लौटकर भैया ने जब भाभी को पत्र थमाया तो वह बहुत खुश हुईं कि आखिरकार उनकी ननद रानी को उनकी याद तो आई। प्रसन्नचित्त होकर उन्होंने बेताबी से पत्र खोला तो उनके होश ही उड़ गए। उनकी ननद के साथ इतना अत्याचार हो रहा है और उन्हें भनक तक नहीं लगी। एक बारगी तो उनका मन किया कि वे जाकर सुमन के भैया से पूछें कि आखिर माजरा क्या है? पर उनकी छठवीं इन्द्रिय ने ऐसा करने से मना कर दिया। उनका मन तो बस चाह रहा था कि किसी भी तरह एक बार सुमन यहाँ आ जाय। उन्होंने कई बार अपने ससुर और पति से भी कहा पर उन्होंने कहा कि-‘सुमन वहाँ पर इतनी खुश है कि तुम सोच भी नहीं सकती।’ अब कुछ-कुछ माजरा भाभी को समझ में आ रहा था। आखिरकार एक रात उन्होंने अपने पति को विश्वास में लेते हुए सारी कहानी बताई, तो पहले तो उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ। पर जब सुमन का पत्र स्वयं अपनी आँखों से पढ़ा, तो उनकी आँखों से झर-झर कर आँसू गिरने लगे। उन्हें लगा कि जिस बहन को वो दुनिया की सबसे खुशनसीब लड़की समझ रहे थे, वो इतने बड़े अपमान से गुजर रही है। आँखों ही आँखों में उन्होंने किसी तरह रात कटी और भोर होते ही सुमन को विदा कराने चल पड़े।
इतनी सुबह सुमन के भैया को अपने दरवाजे पर देखकर प्रधान रामवीर सिंह चौंक पड़े-‘अरे भाई! ऐसी क्या आफत आ गई कि बिना कोई सूचना दिए इतनी सुबह आना पड़ा।’ भैया ने आँखों में आँसू लाते हुए कहा- ‘क्या बतायें! कल रात से ही पिताजी को रह-रह कर बुखार आ रहा है और वे सुमन का नाम बड़बड़ाये जा रहे हैं। मुझे लगा कि इस समय सुमन को देखकर उनकी तबियत ठीक हो सकती है।’ प्रधान जी ने कहा-‘अरे इसमें घबराने की कोई बात नहीं। सब ठीक हो जाएगा…. भगवान पर भरोसा रखो।’ इसी के साथ वे नाश्ते का प्रबन्ध करने और बहू की विदाई की तैयारी हेतु निर्देश देने के लिए अन्दर चले गए। जब राम सिंह को यह बात पता चली तो हड़बड़ाहट में वह बाहर आया और फिर से वही पुराने जुमले दोहराने लगा। जब उसे अपनी दाल गलती नहीं नजर आयी तो उसने कहा-‘सुमन की यह पहली विदाई है, सो ऐसे कैसे विदा कर देंगे। कुछ दिन तो आप हमें दें। जरूरत पड़ी तो मैं खुद ही उसे छोड़ने आ जाऊँगा।’ पर इस बार तो भाई साहब पूरा मन बनाकर आए थे कि किसी भी तरह अपनी बहन को यहाँ से लेकर ही जाएंगे और अन्तत: प्रधान जी को अपने पिता की बीमारी का हवाला देते हुए वे सुमन को विदा करा ही ले आए।
सुमन जब अपने मायके पहुँची तो देखा भाभी गेट पर खड़ी होकर उसका इन्तजार कर रही हैं। उसको देखते ही उन्होंने बाहों में भर लिया। इतने लम्बे समय का अन्तराल आँसुओं में रिसकर बहने लगा। अचानक सुमन को पिताजी की बीमारी का ख्याल आया तो भाभी ने हँसते हुए कहा- ‘मेरे ससुर तो चंगे-भले हैं, तबियत खराब होगी उनके दुश्मनों की। वो तो मैंने तुम्हें वहाँ से विदा कराने हेतु ये कहानी रची थी।’
मायके में सुमन काफी खुश थी…. ऐसा लगता मानो हर सुबह को वो पहली बार जी रही हो। जब करीब एक माह तक सुमन अपनी ससुराल नहीं लौटी तो एक दिन उसके ससुर जी ही घर पधारे। चूँकि सुमन के भैया ने पिताजी को पहले ही बता दिया था कि उनकी बीमारी का बहाना बनाकर वो सुमन को विदा करवा कर लाए हैं सो रामवीर को कोई शंका भी नहीं हुयी। शाम को बरामदे में जब घर के पुरुष खाने बैठे तो बहू ने पर्दे की ओट से कहा कि सुमन अभी कुछ दिन और रुकना चाहती है, पर रामवीर तो जिद पर अड़ गए…नहीं…..नहीं, उसने मायके में बहुत दिन बिता लिए, अब ससुराल ही उसका असली घर है। हरपाल जी को भी बात उचित लगी, सो उन्होंने भी रामवीर की हाँ में हाँ मिलाई। चूँकि सुमन के भैया अपने पिता हरपाल सिंह के गर्म मिजाज से बहुत ही डरते थे, सो उन्होंने मुँह न खोलना ही उचित समझा। पर सुमन की भाभी को ये नागवार गुजरा। वे अपनी ननद के साथ हुए अत्याचारों को महसूस करती थीं, इसलिए उन्होंने खुद ही आगे आने का फैसला किया।
सुबह होते ही वे बैठकखाने में पहुँच गयीं और पर्दे की ओट से अपने ससुर को आवाज दी। हरपाल जी के सामने आते ही बहू ने अपना घूँघट और नीचे खींच लिया……क्या बात है बहू…… कुछ परेशान दिख रही हो? बात यह है बाबू जी, कि सुमन अपनी ससुराल नहीं जाना चाहती …… आखिर क्यों, कुछ हमें भी तो पता चले। भाभी ने बिना कोई जवाब दिए सुमन द्वारा लिखा पत्र उनके सामने कर दिया। हरपाल सिंह जैसे-जैसे एक-एक पंक्तियाँ पढ़ते, उनकी आँखें विस्मय से फैलती जातीं। आखिर तुम लोगों ने यह सब पहले क्यों नहीं बताया……कैसे बताते बाबू जी, हमारी कोशिश यही थी कि पहले सुमन को किसी तरह वहाँ से सुरक्षित निकाल लें…… इतना कहते-कहते भाभी फफक कर रो पड़ीं और ससुर के चरणों में गिर पड़ीं ……बाबू जी! भाभी तो माँ का रूप होती है और मुझसे सुमन का दुख नहीं देखा गया। मैने उसके भैया को भी आपसे इस सम्बन्ध में बातचीत करने के लिए कहा पर आपके डर से वे सामने न आए। अब फैसला आपको करना है कि आप अपनी दोस्ती निभाएंगे या बेटी का रिश्ता। अन्तत: हरपाल ने रामवीर को अपना फैसला सुना दिया कि वे सुमन को विदा नहीं कर पायेंगे और उसका कारण भी उन्होंने विस्तार से बता दिया। रामवीर को ये सब नागवार गुजरा था। वे मानने को तैयार ही नहीं थे कि उनके बेटे ने ऐसा कुछ किया होगा। पर जाते-जाते रामवीर ने धमकी भरे लहजे में यह अवश्य कहा कि इस रिश्ते के टूटने का अंजाम अच्छा नहीं होगा क्योंकि यह मेरी सामाजिक प्रतिष्ठा से जुड़ा हुआ है।
कुछ दिन यूँ ही बीत गए। अन्तत: बड़े-बुजुर्गों के हस्तक्षेप से यह निर्धारित हुआ कि पंचायत इस रिश्ते का अन्तिम फैसला करेगी। तयशुदा तारीख पर पंचायत बैठी तो दोनों तरफ से आरोप-प्रत्यारोप लगने लगे। सुमन के पति राम सिंह ने तो सरेआम उस पर बदचलनी का आरोप लगाते हुए उसके पिता को भी कठघरे में खड़ा कर दिया। उसने कहा कि सुमन यह मान ले कि उसका उसी गाँव में रहने वाले राकेश से कभी कोई नाता नहीं रहा है तो वह अपनी गलती मानने को तैयार है। हरपाल सिंह ने कातर निगाहों से अपनी बेटी की आँखों में देखा पर वह असहाय सी दिखी। अचानक सुमन की भाभी खड़ी हुई और राम सिंह को ललकारने वाले शब्द में कहा-‘हाँ! यह सही है कि राकेश से सुमन की मित्रता थी पर इस सम्बन्ध को गलत रूप नहीं दिया जा सकता….. क्या यह सच्चाई नहीं है कि रामसिंह ने कॉलेज से बाहर निकलते समय सुमन की इज्जत पर हाथ डालने की कोशिश की थी, जिसका प्रतिरोध राकेश ने किया था? कोई भी स्त्री अपनी इज्जत बचाने वाले को सम्मान की निगाह से देखती है, फिर इसमें गलत क्या है?’ राम सिंह ने इसका प्रतिवाद करते हुए अपने दोस्तों को सुमन की भाभी पर हमले के लिए उकसाया तो भाभी मानो पूरे जोश में आ गयीं। भरी पंचायत में उनका एक झन्नाटेदार थप्पड़ राम सिंह के गाल पर पड़ा और कुछ देर तक तो सब कुछ शान्त रहा, आखिरकार इस अप्रत्याशित कदम के बारे में किसी ने सोचा तक नहीं था।
इससे पहले कि बात और आगे बढ़ती, भाभी ने भरी पंचायत में कहा कि सुमन की जिन्दगी का फैसला यह पंचायत नहीं करेगी, बल्कि वह स्वयं करेगी। अगर सुमन राम सिंह के साथ नहीं रहना चाहती तो कोई जोर-जबरदस्ती नहीं। हरपाल सिंह ने बहू को बैठने का इशारा किया पर उस पर तो मानो साक्षात दुर्गा जी सवार थीं…… ‘बाबू जी घबराने की कोई बात नहीं। सिर्फ इसलिए कि हम लड़की वाले हैं, गलत बात नहीं सह सकते। सुमन मेरे लिए ननद नहीं वरन् बेटी है। उसकी जिन्दगी का फैसला हम स्वयं करेंगे और यहीं पर करेंगे ताकि फिर कोई राम सिंह इस तरह किसी लड़की की जिन्दगी को भरी पंचायत में न घसीट सके। राकेश को मैंने शहर से बुला लिया है और इस बार की पी0सी0एस0 परीक्षा में उनका चयन भी हो गया है। उनका कहना है कि अगर सुमन के पिताजी को आपत्ति न हो तो वे सुमन का हाथ थामने को तैयार हैं……क्या हुआ जो वे हमारी तरह पैसे वाले नहीं हैं, ऊँची जाति के नहीं हैं पर वे सुशिक्षित और समझदार हैं और अब तो सरकारी अधिकारी भी बन गए हैं।
अब समाज तेजी से बदल रहा है, जाति-पाँत का कोई मतलब नहीं रहा’’….. पंचायत में फुसफुसाहट उठी कि क्या प्रधान हरपाल जी अपनी बेटी का हाथ एक गैर-बिरादरी लड़के के हाथ में देने को तैयार होंगे? आखिर यह उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा से जुड़ा सवाल है और फिर प्रधानी के चुनाव भी तो नजदीक आ रहे हैं।
तभी हरपाल सिंह अपनी जगह से उठे और बोले यदि सुमन और राकेश को कोई आपत्ति नहीं तो मुझे भी यह रिश्ता मंजूर है। अपनी जाति और अपने मित्र के यहाँ बेटी का रिश्ता करके देख लिया….. ऐसे बनावटी रिश्ते का कोई मोल नहीं।
अगर हम चुनावों के दौरान अपनी विजय सुनिश्चित करने के लिए किसी निचली जाति के घर का पानी पी सकते हैं, तो अपनी बेटी की खुशी सुनिश्चित करने के लिए मुझे राकेश के घर रिश्ता बनाने में कोई हर्ज नहीं। उस दिन प्रधान जी ने अपने लिए इतनी तालियों की गड़गड़ाहट और जिन्दाबाद के नारे सुने कि शायद चुनाव जीतने के बाद भी नहीं सुना होगा। सभी गाँव वालों ने एक स्वर से प्रधान जी की बहू की प्रशंसा की कि इस विकट परिस्थिति में उसने समझदारी भरे दायित्वों का निर्वहन किया। इस बीच पड़ोसी गाँव के प्रधान रामवीर सिंह और उनके समर्थक आगामी प्रधान के चुनाव में अपनी मटियामेट होने के डर से कब निकल गए पता ही नहीं चला।
कृष्ण कुमार यादव, निदेशक डाक सेवाएं
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साहित्य, लेखन और ब्लॉगिंग के क्षेत्र में भी प्रवृत्त।