रोते-बिलखते बेबस पिता का छलका दर्द, कहा- कोई मेरे बच्चे को अपना लो
आदिम जनजाति के उत्थान के लिए झारखंड में यूं तो कई योजनाएं चल रही हैं, लेकिन उनकी जमीनी हकीकत ने हर बार लोगों को चौंकाया है. एक बार फिर पूर्वी सिंहभूम के पहाड़ों से एक बच्चे के रोने की आवाज आ रही है. साथ में पिता की आवाज भी है कि कोई मेरे बच्चे को अपना लो.
यह तस्वीर है उस लाचारी और बेचारगी की, जिसने एक बाप के मायने को झकझोर कर रख दिया है. पूर्वी सिंहभूम के डुमरिया के रहनेवाले भाटो सबर के घर में बच्चों की किलकारियां तो हैं, लेकिन ममता के नाम पर कुछ है तो बस एक मजबूर बाप की गोद.
एक माह पहले हुई पत्नी की मौत ने सबर के सामने जिम्मेदारियों का पहाड़ खड़ा कर दिया है. लिहाजा घर के पास से गुजरने वाले हर शख्स से ये बाप यही कहता फिरता है कि कोई मेरे तीन माह के जिगर के टुकड़े को अपना लो.
रोजी रोटी के लिए घर से निकलना मुहाल
बारूनिया सबर बस्ती के रहने वाले सबर के छह बेटे हैं. इनमें से तीन जहां बाहर रहकर मजदूरी करते हैं, वहीं तीन की आखें घर पर ही मां को ढूंढती-फिरती हैं. ऐसे हालात में रोजी-रोटी के लिए सबर का घर से बाहर निकलना मुश्किल हो जाता है. हद तो ये है कि आदिम जनजाति के इस परिवार को आजतक किसी भी सरकारी योजना का लाभ नहीं मिला.
जिम्मेवार कह रहे मदद की बात
घाटशिला के एसडीओ संतोष गर्ग बच्चों के आहार दिलाने और कुपोषण को दूर कराने के लिए आंगनबाड़ी केंद्र और कुपोषण उपचार केंद्र से मदद दिलाने की बात करते हैं. साथ कहते हैं कि, इसके बाद भी बच्चे का पिता गोद देने के लिए अडिग रहता है तो कानूनी प्रक्रिया के तहत ही बच्चा गोद दिया जाएगा.
हालांकि, रोते-बिलखते इस परिवार के लिए आंगनबाड़ी केंद्र भी कारगर साबित नहीं हो रहा, क्योंकि सबर का गांव पहाड़ के बीच जंगलों में बसा है. बहरहाल कुपोषण के शिकार इन बच्चों की हर करवट के नीचे वो सरकारी फाइल दबी नजर आती है, जिसपर आदिम जनजाति के उत्थान और मदद की कहानी लिखी है.