लैपटॉप, स्मार्टफोन अम्मा स्टाइल
ज्ञानेन्द्र शर्मा
उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से शुरू की गई नि:शुल्क समाजवादी स्मार्टफोन योजना में रिकार्ड एक करोड़ लोगों ने अपना पंजीकरण कराया है। योजना की इस सफलता को दृष्टिगत करते हुए अब पंजीकरण की तारीख 31 दिसम्बर कर दी गई है। स्मार्टफोन घर-घर बांटे जाएंगे और यह प्रक्रिया अगले साल की दूसरी छमाही में प्रारम्भ होगी। स्पष्ट है कि यह सत्तारूढ़ पार्टी का एक चुनावी वादा है जो उसके सत्ता में लौटने पर ही पूरा किया जाएगा। यह गौर करने की बात होगी कि यदि समाजवादी पार्टी सत्ता में वापसी नहीं करती है तो जीतने वाली दूसरी पार्टी की सरकार का नजरिया इस योजना के बारे में क्या रहता है। चुनाव के मौके पर शुरू की गई यह स्मार्टफोन योजना क्या समाजवादी पार्टी को 2017 में वैसी ही सफलता दिला पाएगी जैसी कि लैपटॉप जैसे तमाम वादों ने 2012 के विधानसभा चुनाव में मतदाताओं ने उसे दिलाई थी? सपा सरकार ने इस योजना की घोषणा चुनाव आचार संहिता लागू होने के पहले की है फिर भी यह देखने वाली बात होगी कि इस पर चुनाव आयोग का क्या रुख रहता है। कुछ समय पहले ही चुनाव आयोग ने राजनीतिक दलों को चेताया था कि वे मतदाताओं से ऐसे वादे न करें जो पूरा करना उनकी क्षमता के बाहर हो और जिन पर कि भरोसा कर मतदाता उन्हें वोट दे देते हैं। चुनाव आयोग ने कहा था कि 2017 के चुनाव ऐसे वादों से परे होने चाहिए जिन्हें वादा करने वाले उन्हें पूरे न कर सकें। पिछली 23 सितम्बर को आयोग ने तय किया था कि वह राजनीतिक दलों को मतदाताओं से किए जाने वाले अपने वादों के प्रति ज्यादा जवाबदेह बनाएगा। उसने यह निर्णय सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बाद जारी किया था कि आयोग राजनीतिक दलों को चुनाव घोषणापत्रों के प्रति दिशा निर्देश जारी करे।
विधानसभा के 2012 के चुनाव के समय जब प्रदेश की समाजवादी पार्टी ने जनता से कई वादे किए तो लगा था कि वह तामिलनाडु की अन्ना द्रमुक और उसकी सर्वोच्च नेता जयललिता का अनुसरण कर रही है लेकिन जयललिता की तरह सपा सरकार ने भी अपने कई वादे पूरे कर दिखाए। यह बहस का मुद्दा है कि राजकीय कोष से वित्तीय सहायता यानी सब्सिडी देकर सरकारी योजनाएं चलाना आर्थिक दृष्टि से औचित्यपूर्ण है या नहीं। किसी भी तरह की सब्सिडी हो, वह गैर-योजनागत व्यय में अनावश्यक वृद्धि करती है और अर्थ व्यवस्था को चोट पहुंचाती है। वैसे भी उ0प्र0 सरकार अपने कर्मचारियों के वेतन भत्तों पर होने वाले भारी व्यय और फिजूलखर्ची के बोझ के तले दबी हुई है। अगर डेढ़ करोड़ स्मार्टफोन सरकार खरीदकर उनका मुफ्त वितरण करती है तो ये हालात और भी बिगड़ जाएंगे क्योंकि उसे कम से कम 800 करोड़ रुपया राजकोष से निकालकर ये फोन खरीदने होंगे। एक फोन की कीमत लगभग 5000 तो होगी ही। लेकिन जो लोग सब्सिडी देने के पक्ष में हैं, उनका अलग तर्क होता है। वे कहते हैं कि जिस योजना से भी जनता का भला हो, वह चलाई जानी चाहिए, सरकारी कोष से पैसा तो हर योजना में खर्च होता है। तामिलनाडु में जयललिता घर-घर में पूजी जाती रहीं तो उसकी एक बड़ी वजह ये ही योजनाएं हैं। वरना जलललिता के लिए रोते-बिलखते लोगों की ज्वलंत तस्वीरें और कैसे समझाई जा सकती हैं। उत्तर प्रदेश में जब अखिलेश सरकार ने समाजवादी एम्बुलेंस सेवा प्रारम्भ की तो उसका नाम ‘समाजवादी’ रखे जाने पर कई विपक्षी दलों ने आपत्ति जताई थी जबकि तामिलनाडु में तमाम कल्याणकारी योजनाएं ‘अम्मा’ के नाम पर ही हैं।
अखिलेश सरकार ने राज-सहायता यानी सब्सिडी पर आधारित कई योजनाएं अपने कार्यकाल में शुरू की हैं। इनमें नि:शुल्क लैपटॉप वितरण के अलावा कृषक ऋण माफी योजना, समाजवादी एम्बुलेंस योजना, असाध्य रोगों के लिए मुफ्त चिकित्सा योजना, समाजवादी श्रवण यात्रा योजना, राजनैतिक पेंशन योजना, विधवा पेंशन योजना, कन्या विवाह सहायता योजना, समाजवादी पेंशन योजना और सस्ती दरों पर नमक का वितरण शामिल हैं। सबसे महत्वाकांक्षी लैपटॉप योजना के तहत सरकार ने 16 लाख से भी अधिक छात्र-छात्राओं को नि:शुल्क लैपटॉप वितरित किए। किसानों को कर्ज अदा न कर पाने की स्थिति में जमीन की नीलामी से बचाने के लिए लगभग 1800 करोड़ की बजट सहायता से 8 लाख किसानों के ऋण माफ किए गए। समाजवादी पेंषन योजना के लिए 2800 करोड़ रु0 का प्रावधान किया गया।
लेकिन तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ने राज सब्सिडी से जो योजनाएं चलाईं, उनके सामने उ0प्र0 सरकार की योजनाएं कहीं नहीं टिकतीं। उनकी सरकार द्वारा चलाई गई योजनाओं में जो सबसे ज्यादा लोकप्रिय साबित हुईं, उनमें अम्मा कैन्टीन योजना शामिल है। इसके अंतर्गत 5 रुपए में सांभर-चावल, 3 रुपए में चावल-दही और एक रुपए में इडली प्रदेश भर में स्थापित 300 कैन्टीनों में उपलब्ध कराई गई। इस योजना पर साल भर में करीब 35 करोड़ रुपए का व्यय आता है।
अम्मा मिनरल वाटर की बोतल 10 रुपए में उपलब्ध कराई जाती है। इसके अलावा अम्मा नमक, अम्मा बेबी केयर किट, अम्मा दवाइयां, अम्मा बीज, अम्मा सीमेंट, अम्मा मिक्सी व ग्राइंडर्स, अम्मा लैपटॉप, अम्मा थिएटर टिकट जैसी कुछ अन्य योजनाएं तामिलनाडु सरकार चलाती है। मिक्सी व ग्राइंडर्स का निशुल्क वितरण करने के लिए उसने 7755 करोड़ रु0 का बजट रखा था जबकि लैपटॉप योजना पर 4332 करोड़ और विवाह योजना और साथ में सोने का सिक्का देने पर 3324 करोड़ रु0 का बजट वहां की सरकार ने रखा था। बकरियां और गायें भी सरकार की ओर से दी गई हैं और इन पर 1160 करोड़ और स्कूली बच्चों को साइकिलें देने पर साढ़े तीन सौ करोड़ से अधिक का परिव्यय निर्धारित किया गया था। अम्मा सीमेंट लोगों को सस्ती दरों पर उपलब्ध कराने के लिए सरकार निजी कम्पनियों से हर महीने 2 लाख टन सीमेंट खरीदती है और उसे 190 रु0 प्रति 50-किलो बोरी की रियायती दर से जनता में वितरित करती है। इसके अलावा परिवहन निगमों को 6280 करोड़ और खेती के लिए सस्ती बिजली देने के लिए 3320 करोड़ की सब्सिडी के लिए बजट हर साल रखा जाता रहा है। अम्मा बीज योजना के अंतर्गत सस्ती दरों पर बीज दिए जाते हैं। यह योजना इस साल जनवरी में शुरू की गई थी और इसके लिए 156 करोड़ रखे गए थे। इस योजना के तहत लोगों को अपने घर पर सब्जियां उगाने को प्रोत्साहित किया जाता है और इसके लिए बगीचों में सब्जी उगाने हेतु विशेष किट दिए जाते हैं। उ0प्र0 की समाजवादी सरकार ने भी राज सब्सिडी की कई योजनाएं चलाईं जिनमें लैपटॉप के अलावा मुफ्त सिंचाई व चिकित्सा सुविधाएं देना, समग्र ग्राम विकास योजना, कामधेनु याजना, लोहिया ग्रामीण आवास योजना, कब्रिस्तानों और अत्येष्टि स्थलों की सुरक्षा हेतु चाहरदीवारी का निर्माण, युवाओं को रोजगारपरक नि:शुल्क प्रशिक्षण शामिल हैं। समाजवादी पार्टी अगले चुनाव के लिए जो घोषणापत्र तैयार कर रही है, उसमें ऐसी ही कई और नई योजनाएं शामिल किए जाने का लक्ष्य है। तो भी राजनीतिक और आर्थिक विश्लेषकों के लिए यह विचारणीय विषय है कि अम्मा को इन योजनाओं ने इतनी ज्यादा लोकप्रियता कैसे हासिल कराई जबकि कई राज्यों के मुख्यमंत्री, जिनमें उत्तर प्रदेश शामिल है, उतनी लोकप्रियता हासिल नहीं कर पाते हैं जो दीवानगी की हदों से भी पार कर जाती है।
चुनाव आयोग अगले चुनाव में विभिन्न दलों की उन घोषणाओं पर कड़ी नजर रखने वाला है जिनके जरिए वोट लेने के लिए मतदाताओं से तरह तरह के वादे किए जाते हैं। लेकिन आयोग के लिए यह तय कर पाना बहुत मुश्किल काम होगा कि ऐसी कौन सी घोषणाएं हैं जो राजनीतिक दल सत्ता पाने पर पूरा करने में असमर्थ होंगें। फिर यह भी विचारणीय विषय होगा कि चुनाव के बाद चुनाव आयोग इस बात की समीक्षा क्या कर सकेगा कि चुनाव घोषणापत्रों के किन वादों को पूरा नहीं किया गया है। उसके लिए यह बहुत मुश्किल काम होगा क्योंकि चुनाव जीतने वाले हर सत्तारूढ़ दल को अपने वादे पूरे करने के लिए पूरे 5 साल का समय उपलब्ध होता है। क्या चुनाव आयोग 5 साल का कार्यकाल पूरा होने पर विभिन्न सत्तारूढ़ दलों के कार्यों की समीक्षा करेगा और अपने वादे पूरे न कर पाने वालों के खिलाफ कार्रवाई कर सकेगा?