वन इण्डिया बनाम वन चाइना
डॉ. रहीस सिंह
भारत-चीन वार्ता में एक दशक तक बीजिंग की तरफ से वार्ताकार रहे दाई बिंगुओ ने एक बार पुन: चीन के रुख का उल्लेख करते हुए कहा है कि ‘अगर भारत अपनी पूर्वी सीमा पर चीन की चिंताओं का ख्याल करता है, तो बीजिंग भी दूसरी तरफ भारत की चिंताओं के अनुरूप कदम उठाएगा।’ यही नहीं दाई बिंगुओं ने पुस्तक ‘स्ट्रैटेजिक डायलॉग्स’ में खुलासा किया था कि वर्ष 2012 में दोनों पक्ष इस बात पर सहमत हो गए थे कि वे सीमा विवाद के मसले पर दोनों इलाकों में ‘सार्थक और स्वीकार्य सामंजस्य बिठाने की कोशिश करेंगे।’ ध्यान रहे कि चीन तवांग या फिर इसका बड़ा हिस्सा चाहता है और इसके बदले पश्चिमी सीमा पर भारत को वैसी ही रियायत देने को तैयार है। यहां पर चीन की मंशा और महत्वाकांक्षा को लेकर कुछ प्रश्न हैं। पहला यह कि वह चीन जो दशकों तक अक्साई चिन को अपने कब्जे में रखने के लिए भारत को तवांग देने के लिए तैयार रहा, अब वह आखिर अक्साई चिन देकर तवांग क्यों चाहता है? दूसरा यह कि जब यह भारत और तिब्बत को विभाजित करने वाली मैकमोहन रेखा को नहीं मानता तो फिर म्यांमार और तिब्बत को विभाजित करने वाले इसी रेखा को क्यों स्वीकारता है? तीसरा प्रश्न यह है कि क्या यह इतिहास के उन मसलों में हमें उलझे रहना चाहिए जो कबके प्रासंगिकता खो चुके हैं?
इसमें कोई संशय नहीं है कि अंग्रेजों ने जब भारत की सीमा को निर्धारित किया था तब उन्होंने देश की सम्प्रभुता एवं सुरक्षा को केन्द्र में नहीं रखा था बल्कि उनके लक्ष्य भू-राजनीतिक व आर्थिक लाभों से प्रेरित थे। दरअसल अंग्रेज भारत में जिन उद्देश्यों से औपनिवेशिक शासन कर रहे थे उनमें प्रमुख था आर्थिक अनुलाभ यानि वे ऐसी भू-राजनीतिक संरचना का निर्माण एवं अनुरक्षण कर रहे थे जो उनके अनुलाभों की दृष्टि से बेहतर हो न कि भारत की सम्प्रभुता व सुरक्षा की दृष्टि से। यही स्थिति उस समय के चीन की भी थी। उस समय चीन की प्रमुख दिलचस्पी भारत के साथ सीमा निर्धारण में नहीं थी बल्कि तिब्बत के साथ सीमा निर्धारण की थी। इसलिए उसे भी इस रेखा को लेकर कोई ऐतराज नहीं रहा। यही नहीं, जब कोमिंगतांग की सरकार का शासन समाप्त हुआ और माओ को कम्युनिष्ट शासन आरम्भ हुआ तब भी मैकमोहन रेखा को लेकर कोई आपत्ति दर्ज नहीं करायी गयी बल्कि उसे स्वीकार कर लिया गया। एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि 1962 के युद्ध के दौरान चीनी सेना अरुणाचल प्रदेश के तवांग क्षेत्र में घुसी और असम-अरुणाचल प्रदेश सीमा पर स्थित तेजपुर तक चली आयी, तो वह लेकिन वापस लौटने का निर्णय लिया और उस सीमा रेखा तक पीछे हट गयी जिसे मैकमोहन रेखा कहा जाता है। इसका सीधा सा अर्थ तो यही हुआ कि चीन उस समय तक मैकमोहन को स्वीकार कर रहा था, लेकिन इसके बाद वह यह कहता दिखा कि इस रेखा पर सहमति ब्रिटिश भारतीय नेतृत्व और तिब्बती नेतृत्व के बीच बनी थी और तिब्बत सम्प्रभु देश न होकर चीन का राज्य है इसलिए तिब्बतियों को एक सम्प्रभु देश के साथ इस प्रकार का समझौता करने का विधिसम्मत अधिकार ही नहीं था।
दरअसल चीनी-भारतीय सीमा को लेकर विवाद की बात असल में गुमराह करने वाली है क्योंकि भारत और चीन वास्तव में 1962 में ही पड़ोसी बने, जब चीन ने लद्दाख के उस विशाल क्षेत्र पर बलपूर्वक अपना अधिकार जताया जिसे अक्साई चिन कहते हैं। इससे पहले तक भारत और चीन के बीच तिब्बत के रूप में एक बफर राज्य था। चीन यदि सीमा के सम्बंध में किसी प्रकार का दावा करता था तो उसे भारत और तिब्बत के बीच हुए सीमा समझौते के अनुसार ऐसा करना चाहिए था जो पहले से चला आ रहा था। यहां एक और विरोधाभासी पक्ष है, जो चीन के अस्थिर और महत्वाकांक्षी मनोविज्ञान को पेश करता है। उल्लेखनीय है कि 1956 में चाउ एन लाई ने कहा था कि ‘हालांकि चीन ने कभी मैकमोहन लाइन को मान्यता नहीं दी, मगर यह एक ‘निर्विवाद तथ्य’ है, जिसे हमें स्वीकार कर लेना चाहिए……। आखिर चाउ ने वक्तव्य किस आधार पर दिया था और फिर 1959 में वे अपने इस वक्तव्य से क्यों पलट गये? ध्यान रहे कि 1959 में चाउ ने अपने पत्र में मैकमोहन लाइन के बारे में ‘कमोबेश यथार्थवादी’ रुख अपनाने की बात कही थी और अप्रैल 1960 में अपनी भारत यात्रा के दौरान उन्होंने कहा था कि, ‘जिस तरह से चीन पूर्वी सीमा पर भारत के नजरिये के साथ तालमेल को तैयार है, भारत को भी पश्चिम में चीन की बात माननी चाहिए। …मुझे उम्मीद है कि भारत सरकार पश्चिमी सीमा पर वैसा ही रुख अपनाएगी, जैसा चीन की सरकार ने पूर्वी सीमा पर अपनाया है। लेकिन उस समय जवाहर लाल नेहरू ने यह कहते हुए उनकी मांग खारिज कर दी थी कि ‘चीजों को यूं स्वीकार करने का मतलब होगा कि कोई विवाद ही नहीं था और फिर सारे सवाल यहीं खत्म हो जाएंगे; हम ऐसा करने में असमर्थ हैं।’ इस अदला-बदली का प्रस्ताव चीन ने उस समय पुन: रखा जब 1979 में 12 से 18 फरवरी को भारत के तत्कालीन विदेश मंत्री अटलबिहारी वाजपेयी चीन दौरे पर गये। उस समय डेंग जियांगपिंग ने वाजपेयी के समक्ष एक आधिकारिक ‘पैकेज प्रस्ताव’ रखा था। उल्लेखनीय है कि डेंग ने दोनों सीमाओं के इलाकों के लेन-देन के आधार पर व्यापक समाधान की बात कही थी। लेकिन वाजपेयी जी ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि पूर्वी सीमा पर थोड़़े-बहुत फेरबदल के जरिये समाधान हासिल करने के बाद ही अक्साई चिन की तरफ बढ़ा जा सकता है। हालांकि डेंग इलाका-दर-इलाका (एरिया-बाइ-एरिया) वाले भारतीय दृष्टिकोण को अस्वीकार कर दिया। जून 1981 में तत्कालीन चीनी विदेश मंत्री हुआंग ने पुन: भारतीय विदेश मंत्री नरसिंह राव के समक्ष वही ‘पैकेज प्रस्ताव’ रखा। लेकिन भारत की तरफ से लगभग वैसी ही प्रतिक्रिया रही। अब दाई बिंगुओ ले फिर पुराना राग छेड़ा है, देखना यह है कि दोनों देश इस मसले में किस राह चलने की कोशिश करते हैं।
बिंगुओ जिस अक्साई चिन के साथ अदला-बदली की बात कर रहे हैं, वह भी तो भारत का ही है। इसलिए भारत अपने हिस्सों से ही अदला-बदली करने की गलती कैसे कर सकता है? उल्लेखनीय है कि ब्रिटिश मानचित्रकार और सर्वेक्षक डब्ल्यू.एच. जॉनसन ने 1865 में इस सीमा का सर्वेक्षण किया था तथा कुनलुओन शृंखला तक के क्षेत्र को निर्धारित किया था जिसमें अक्साई चिन को जम्मू-कश्मीर रियासत का हिस्सा दिखाया गया था। उनके सर्वेक्षण से पहले सितम्बर 1842 की चुसुल की संधि ने दोनों देशों के बीच कुनलुओन पर्वत शृंखला को सीमा माना था। यह संधि कश्मीर के महाराजा गुलाब सिंह और तिब्बत तथा चीन के प्रतिनिधियों के बीच हुयी थी। हेनरी मैकमोहन ने जब ब्रिटिश भारत और तिब्बत, भूटान तथा म्यांमार जैसे उसके पड़ोसियों के साथ सीमा विवाद को सुलझाने के लिए शिमला सम्मेलन का आयोजन किया तो उनका ध्यान खास तौर पर पूर्वी दिशा की ओर था जहां उन्होंने ब्रिटिश भारत और तिब्बत तथा भूटान एवं म्यांमार के बीच एक 550 मील लम्बी रेखा को सीमा-रेखा (बॉर्डर) के रूप में सुनिश्चित किया था। हालांकि उसी शिमला सम्मेलन में जब नक्शों का आदान-प्रदान हुआ तो मैकमोहन ने पश्चिमी भाग के लिए पहले की सीमा बंटवारे का पालन किया और कुनलुओन शृंखला को आउटर तिब्बत की सीमा माना। शुरुआत में चीन (कोमिंतांग सरकार के समय) ने भी पश्चिमी भाग में इसे ही बाहरी तिब्बत सीमा के तौर पर स्वीकार किया। सत्ता पर कब्जा जमाने के तुरंत बाद माओत्से तुंग के पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना ने जो पहला नक्शा अपनाया उसमें भी बाहरी तिब्बत की सीमा कुनलुओन शृंखला ही थी। यही कारण है कि शिनजियांग से जब चीनी पीएलए ने तिब्बत में प्रवेश किया तो वह अक्साई चिन के रास्ते नहीं आयी बल्कि अक्साई चिन से 150 किमी पूर्व में स्थित कुनलुओन शृंखला के दर्रों का प्रयोग किया था। लेकिन बाद में चीन ने नए नक्शे प्रदर्शित करने शुरू कर दिए जिनमें कुनलुओन की बजाय कराकोरम को तिब्बत की पश्चिमी सीमा दिखाया गया था।
अब अंतिम प्रश्न यह कि पूर्व चीनी स्टेट काउंसलर एवं वार्ताकार आखिर अब भारत के सामने इस तरह का प्रस्ताव चीनी मीडिया के माध्यम से क्यों रख रहे हैं। क्या यह भारत की वर्तमान वैदेशिक नीति से उपजता हुआ भय है या फिर सौदेबाजी का सूत्र? दरअसल तिब्बती धर्म गुरु दलाई लामा 4 से 13 अप्रैल को अरुणाचल प्रदेश की यात्रा पर पहुंच रहे हैं। चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता गेंग शुआंग का कहना है कि दलाई लामा की यह यात्रा द्विपक्षीय संबंध और विवादित सीमावर्ती इलाके में शांति को ’गंभीर नुकसान’ पहुंचा सकती है। लेकिन भारत के गृह राज्यमंत्री किरण रिजिजू ने कहा है कि, ’भारत की तरफ से यह बड़ा बदलाव है। हम ज्यादा मजबूत हैं। दलाई लामा अरुणाचल में एक धर्मगुरु के तौर पर जा रहे हैं और उनको रोकने का कोई औचित्य नहीं है। उनके श्रद्धालु दलाई लामा की यात्रा की मांग कर रहे हैं। वह भला किसी दूसरे को क्या नुकसान पहुंचा सकते हैं। वह लामा हैं।’ दलाई लामा की अरुणाचल यात्रा सामान्य कार्य-कारण से निर्देशित नहीं है। गौर से देखें तो दलाई लामा के साथ मोदी सरकार अपेक्षाकृत अधिक सक्रिय दिखाई दे रही है जबकि पिछली सरकारों के समय ऐसा देखने को नहीं मिला था।
मोदी सरकार के सार्वजनिक मंच पर दलाई लामा को लाने और उनकी प्रशंसा करने से चीन अक्सर नाराज हो जाता है। यदि केन्द्रीय गृहराज्य मंत्री किरन रिजिजू की बात मानें तो भारत इसलिए ऐसा कर रहा है क्योंकि अब भारत बदल रहा है। इसमें किसी को संशय नहीं होना चाहिए कि पिछले कुछ वर्षों में भारत एवं भारत का दृष्टिकोण बदला है। यही नहीं पिछले लगभग तीन वर्षों में हम ‘सॉफ्ट बॉर्डर पॉलिसी’ से ‘हार्ड बार्डर पॉलिसी’ की ओर और भारत ‘सॉफ्ट नेशन’ से ‘स्ट्रांग नेशन’ की ओर बढ़ा है। इसके संदेश कई माध्यम से दुनिया को दिए गये हैं। यही नहीं इसी के तहत दलाई लामा की राष्ट्रपति से मुलाकात भी हुयी थी, ताकि चीन को संदेश जा सके कि भारत अब ‘रीयल पॉलिटिक’ की ओर अपनी विदेश नीति की शिफ्टिंग की शुरूआत कर चुका है। ध्यान रहे कि दिसंबर में राष्ट्रपति भवन में एक कार्यक्रम हुआ जिसमें राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी और दलाई लामा एक साथ नजर आए थे। 60 वर्षों में भारत के किसी राष्ट्रपति की दलाई लामा से सार्वजनिक मंच पर यह पहली मुलाकात थी। यही नहीं पिछले महीने ही ताइवान से एक प्रतिनिधिमंडल भारत आया था, जिसे चीन ‘वन चाइना पॉलिसी’ के विरुद्ध मानता है।
भारतीय विदेश नीति के परम्परागत नजरिए से इस प्रकार के कदम अग्रगामी लेकिन नुकसानदेह माने जा सकते हैं, लेकिन व्यवहारिक दृष्टि से इसे हम गलत नहीं कह सकते क्योंकि संवेदनाओं की अपेक्षा आज रीयल पॉलिटिक की ज्यादा जरूरत है। ‘वन चाइना’ बनाम ‘वन इंडिया’ नीति को जब हम देखते हैं तो चीन इस विषय पर विभाजित दृष्टिकोण वाला लगता है। महत्वपूर्ण बात तो यह है कि चीन की तरफ से बीच-बीच में विभिन्न थिंक टैंक्स के जरिए यह बात भी बाहर आती है कि भारत नाम का तो कोई देश अतीत में था ही नहीं। यह तो हिन्दुत्व का कमाल है जिसके अनुयायियों ने आपसी मेलजोल के द्वारा इस देश का निर्माण कर लिया।
ऐसे में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज यह सवाल बेहद महत्वपूर्ण प्रतीत होता है जो उन्होंने चीन के विदेश मंत्री से मुलाकात के समय किया था अर्थात क्या चीन ’वन इंडिया पॉलिसी’ को मानता है। यदि नहीं, तो भारत भी ‘वन चाइना पॉलिसी’ को क्यों स्वीकार करे।