दस्तक-विशेषराष्ट्रीय

वादा था भूगोल बदलने का, बदला जा रहा है इतिहास!

– ओमप्रकाश मेहता

वरिष्ठ कवि, गीतकार और युग प्रवर्तक साहित्यकार इंदिवर ने पिछली शताब्दी के छठें दशक में एक कविता लिखी थी- ”इतिहास मुझे पसंद नहीं, इतिहास पढ़ाना बंद करो, मानव इतना गिर सकता है, यह सबक सिखाना बंद करो“। इस कविता के जन्म के पचास साल बाद शायद आज सरकार से लेकर हर कोई इन्हीं पंक्तियों को मूर्तरूप देने में संलग्न हो गया है, अंतर सिर्फ इतना है कि कवि इंदिवर ने तो इतिहास को पढ़ने के बाद उसके पात्रों की नीचता से दु:खी होकर ये पंक्तियां लिखी थी, किंतु आज सत्तारूढ़ दल, सरकार, फिल्म उद्योग आदि सभी हमारे अतीत (इतिहास) को नैस्तनाबूत करने पर तुले है और आश्चर्य यह कि ये सब इतिहास के उन काली छवि वाले पात्रों को मिटाने की मांग नहीं कर रहे है, बल्कि उन पात्रों का नाम-ओ-निशान मिटाने पर आमादा है, जो इतिहास के गौरव माने जाते है। शायद इसी की शुरूआत देश में सत्तारूढ़ पार्टी की उन राज्य सरकारों ने की, जो नई पीढ़ी को नया इतिहास पढ़ाने को उत्सुक है, इसी गरज से कभी दुनिया के सात अजूबों में शामिल ताजमहल को पर्यटन स्थलों की सूची से हटा दिया जाता है तो कभी दिल्ली के कुतुब मिनार व ऐतिहासिक खण्डहरनुमा महलों पर निशाना साधा जाता है। किंतु पिछले दिनों तो विदेश में बसने वाले अप्रवासी भारतीय लेखकों ने भी हमारे इतिहास को कपोल-कल्पित घटनाओं से तहस-नहस करने में कोई कमीं शेष नहीं रखी।

आज जयपुर की वीरांगना रानी पद्मावती को लेकर जो पूरे देश में तहलका मचा है, वह तो किसी से भी छुपा नहीं है। प्रसिद्ध निदेशक संजयलीला भंसाली की इस फिल्म के रिलीज़ होने के पहले ही बिना उसे देखे देश की आधा दर्जन राज्य सरकारों ने उस फिल्म पर प्रतिबंध लगा दिया, यहां तक कि सेंसर बोर्ड ने भी उसे अभी नहीं देखा है? क्या यह एक अजूबा नहीं है कि सिर्फ अफवाहों के आधार पर इतना बड़ा बखेड़ा खड़ा कर दिया जाए? इसी तरह राम जन्मभूमि लिब्राहम जांच कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर निर्मित ”द गेम ऑफ अयोध्या“ फिल्म को लेकर भी देश में एक अजीब उत्तेजनात्मक माहौल तैयार करने की शुरूआत हो गई है, विश्व हिन्दू परिषद, भारतीय संत समाज आदि इसके विरोध में खड़े हो गए है और मरने-मारने तक की धमकियां दे रहें हैं, यह फिल्म आढ़ दिसम्बर को रिलीज़ होने की तैयारी में है। यद्यपि इस फिल्म को भी अभी किसी ने भी नहीं देखा है, किंतु ऐसा आरोप है कि फिल्म में हिन्दूओं को छल से भगवान राम की मूर्ति स्थापित करते दिखाया गया है, संत समाज इसे अन्तर्राष्ट्रीय साजिश बता रहा है।

यह फिल्मी विवाद तो देश में चल ही रहा है, इसी बीच ब्रिटेन में निवासरत एक अप्रवासी भारतीय महिला लेखिका जयश्री मिश्रा की एक पुस्तक भी विवादस्पद हो गई है, यद्यपि झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई पर यह किताब एक दशक पहले लिखी गई थी और उस पर उत्तरप्रदेश की तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने 2008 में प्रतिबंध भी लगा दिया था, किंतु यह पुस्तक आज ’ऑन लाईन‘ उपलब्ध है, इस पुस्तक में लेखिका ने यह तथ्य उजागर किया है कि झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का ईस्ट इण्डिया कम्पनी के एक पॉलिटिकल एजेंट रॉबर्ट एलिस के साथ प्रेम सम्बंध थे। चूंकि यह पूरी पुस्तक आज ऑन लाईन है, और पृष्ठ 212 पर यह तथ्य उजागर किया गया है, इसलिए सोशल मीडिया में इसकी खासी चर्चा है। इस विवादित पुस्तक का नाम ’रानी‘ है। अब इसे सस्ती लोकप्रियता के प्रयास से अधिक क्या कहा जा सकता है?

यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि ऐतिहासिक तथ्यों को लेकर विवादों की संख्या अभी ही बढ़ी है, क्योंकि इसके पहले मुगल-ए-आज़म, अनारकली जैसी कई फिल्में आई जिसमें वर्णित जोधाबाई या अनारकली जैसे पात्रों का उल्लेख इतिहास में कहीं नहीं है, किंतु उस समय ऐसे कोई आंदोलन या प्रदर्शन नहीं हुए। आखिर अब ही इतनी जागरूकता कैसे आ गई? और देश की भावी पीढ़ी को परम्परागत इतिहास की जगह संशोधित इतिहास पढ़ाने की बात क्यों की जा रही है? हमारे देश का इतिहास तो काफी शौर्य, राष्ट्रवाद व अनुकरणीय माना जाता रहा है, फिर अब हमारे मूल इतिहास से इतनी नफरत क्यों की जा रही है? इसका जवाब आज कोई भी देने को तैयार नहीं है, सिर्फ इतिहास को संशोधित कर उसे नई पीढ़ी को पढ़ाने की बात की जा रही है? फिर सबसे बड़ी और अहम् बात यह कि हमारे गौरवशाली इतिहास को संशोधित कर उसमें अपने अनुकूल तथ्य शामिल करने की हिम्मत कौन करेगा? हमारे माननीय प्रधानमंत्री जी ने कई बार विकास व प्रगति के माध्यम से देश का भूगोल बदलने की बात तो अवश्य कही, किंतु अब भूगोल को छोड़कर इतिहास बदलने की बात कही जा रही है, यह कहाँ तक वाज़िब है?

 

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