विजय के लिए बेचैन मोदी
लालू-नीतीश की कमजोर पड़ती चुनौती
बिहार में चार गठबंधन मैदान में हैं और छिट-पुट दल और भी। एनडीए, लालू-नीतीश-कांग्रेस महागठबंधन, वाम मोर्चा और मुलायम का तीसरा मोर्चा! इस पूरे राजनीतिक उलटफेर का लाभ सीधे भाजपा को होता लग रहा है क्योंकि भाजपा विरोधी वोटों का बिखराव होगा। भाजपा खेमा खुश भी
है लेकिन गणित इतना सीधा होता तो बिहार अज़ूबा ही क्यों होता!
हार विधान सभा के 2015 के चुनाव को भाजपा और उसके विरोधी दलों के बीच सीधा और ज़बर्दस्त मुकाबला होना था। पिछले एक साल से ऐसे ही हालात बन भी रहे थे, लेकिन सितम्बर के शुरुआती पंद्रह दिनों में अज़ब राजनीतिक तमाशे हो गए। ऐसे उलटफेर हुए कि लड़ाई बहुकोणीय हो गई जिसमें एनडीए लाभ में दिखाई दे रहा है।
पुराने जनता परिवार के दलों को एकजुट करके भाजपा को कड़ी चुनौती देने की पहल करने वाले मुलायम सिंह यादव ने ही अचानक पलटी खाई और बिहार में जद (यू)-राजद-कांग्रेस के महागठबंधन से पल्ला झाड़कर अलग से चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी। निश्चय ही यह चौंकाने वाली और भाजपा विरोधी मोर्चे को बड़ा धक्का पहुंचाने वाली घोषणा थी। अब समाजवादी पार्टी ने शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, पूर्व लोक सभा अध्यक्ष पी. संगमा की नेशनल पीपुल्स पार्टी और समाजवादी जनता दल (लोकतांत्रिक) से गठबंधन कर लिया है। इस गठबंधन में राजद से निकाले गए बाहुबली सांसद पप्पू यादव की पार्टी जन अधिकार मोर्चा भी शामिल हो गया है। राजद और जद (यू) के टिकट वंचित कुछ नेता भी इस तरफ आने लगे हैं। एक और महत्वपूर्ण बात ऑल इण्डिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के अध्यक्ष और तेज़-तर्रार हैदराबादी सांसद असदुद्दीन ओवैसी के बिहार के चुनाव मैदान में उतरने की घोषणा है। बिहार के नेपाल और बांगलादेश से लगे सीमांचल क्षेत्र में प्रत्याशी खड़े करने के ओवैसी के ऐलान से महागठबंधन को दूसरा झटका लगा है। सीमांचल का इलाका मुस्लिम बहुल है और यहां के मतदाता लम्बे समय से लालू के साथ रहे हैं। हाल के वर्षों में उनका कुछ झुकाव नीतीश कुमार की तरफ भी हुआ। अब ओवैसी के मैदान में उतरने से समीकरण बदलने के आसार हैं क्योंकि मुस्लिम युवा वर्ग में ओवैसी के प्रति आकर्षण राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ता दिखा है। तो, बिहार के चुनावी रण की शक्ल एकाएक बदल गई। पहले जहां भाजपा गठबंधन (एनडीए) और भाजपा विरोधी महागठबंधन के बीच सीधा मुकाबला होना तय-सा था मगर अब बहुकोणीय मुकाबला हो रहा है। चार गठबंधन मैदान में हैं और छिट-पुट दल और भी। एनडीए, लालू-नीतीश-कांग्रेस महागठबंधन, वाम मोर्चा और मुलायम का तीसरा मोर्चा! इस पूरे राजनीतिक उलटफेर का लाभ सीधे भाजपा को होता लग रहा है क्योंकि भाजपा विरोधी वोटों का बिखराव होगा। भाजपा खेमा खुश भी है लेकिन गणित इतना सीधा होता तो बिहार अज़ूबा ही क्यों होता! जातीय समीकरणों का उलझाव बिहार की राजनीति और चुनाव नतीज़ों को हमेशा ही उलट-पुलट करता रहा है। प्रश्न अब भी कठिन है कि क्या नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भाजपा नेतृत्व वाला एनडीए बिहार की सत्ता पर काबिज हो पाएगा? आइए, बिहार के इस बहुत रोचक हो चुके चुनावी संग्राम को मोर्चेवार देखते हैं।
एनडीए: उत्साहित मगर सशंक
भाजपा ने लोक सभा चुनावों में अपार सफलता के बावजूद बिहार विधान सभा चुनाव को कभी हलके में नहीं लिया। वह इसे कठिन लड़ाई मानती रही है, हालांकि प्रकट में कभी स्वीकार नहीं किया। बिहार का हिस्सा रहे झारखण्ड विधान सभा चुनाव को भी उसने आसान नहीं माना था और इसीलिए सुदेश महतो की ऑल झारखण्ड स्टूडेण्ट्स यूनियन (आजसू) जैसी छोटी पार्टी के साथ गठबंधन करके चुनाव लड़ा। अमित शाह ने पूर्व मुख्यमंत्री बाबू लाल मराण्डी से चुनाव पूर्व समझौते की कोशिश तो बहुत की थी, लेकिन मराण्डी जो कीमत मांग रहे थे, उससे सौदा पटा नहीं। बहरहाल, अमित शाह की रणनीति सही निकली और भाजपा गठबंधन ने झारखण्ड में बमुश्किल बहुमत पाया। झारखण्ड में आदिवासी कोण लड़ाई को जटिल बनाता है तो बिहार में जातीय निष्ठाएं और गोलबंदियां अबूझ पेंच पैदा करती हैं। अमित शाह के चुनाव पूर्व सर्वेक्षण/आकलन ने भी पाया कि बिहार का मोर्चा झारखण्ड से भी कठिन है। राहत की बात यह कि राम विलास पासवान (लोक जनशक्ति पार्टी) और उपेंद्र कुशवाहा (रालोसपा) लोक सभा चुनाव से ही साथ हैं लेकिन इतने से ही बिहार का रण सधने वाला नहीं. राजद और जद (यू) के पाले कमजोर करना जरूरी था। अमित शाह के हाथ ज़ल्द ही दो अच्छे मोहरे लग गए। जीतन राम मांझी और पप्पू यादव।
नीतीश कुमार ने लोक सभा चुनाव में पराजय की नैतिक ज़िम्मेदारी खुद लेते हुए मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर उस कुर्सी पर जिन जीतन राम मांझी को बैठाया था, वे नीतीश का मोहरा बनने की बजाय अपने ही मन की पतवार खेने लगे थे। नीतीश के लिए उन्हें हटाना मजबूरी हो गई थी। भाजपा ने मांझी को खूब शह दी और उनका बड़ी चालाकी से इस्तेमाल किया। नतीजन जद (यू) में टूट हो गई। मांझी के साथ विधायक तो बहुत नहीं गए लेकिन जिस महादलित वर्ग का प्रतिनिधित्व वे कर रहे हैं वे वह नीतीश कुमार के लिए महत्वपूर्ण वोट हैं। आज मांझी की पार्टी ‘हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा’ (हम) भाजपा गठबंधन का महत्वपूर्ण हिस्सा है। सीटें तो वे राम विलास पासवान से कम नहीं मांग रहे थे लेकिन अमित शाह ने उन्हें 20 सीटें देकर राजी कर लिया। इसके अलावा मांझी के चार विधायक भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं।
राजद के बाहुबली सांसद पप्पू यादव ने खुद को लालू का उत्तराधिकारी घोषित किए जाने की सार्वजनिक मांग करके अजीबोगरीब स्थिति पैदा कर रखी थी। पानी सिर से ऊपर हो गया तो लालू ने पप्पू को पार्टी से निलम्बित कर दिया। बाद में पप्पू ने अपनी अलग पार्टी बना ली। अमित शाह के ऐय्यारों ने पप्पू को भी हवा दी। प्रधानमंत्री से भी उन्हें मिलवाया। पप्पू भाजपा के साथ खुले आम नहीं हो सकते थे, इसलिए वे समाजवादी पार्टी वाले गठबंधन में शामिल होकर लालू को कमजोर बनाने में लगे हैं। भाजपा को और क्या चाहिए था।
सवर्ण जातियों, खासकर ब्राह्मण, राजपूत और भूमिहारों में भाजपा की अच्छी पैठ मानी जाती है। अब उसके साथ पासवानों के नेता राम विलास हैं। कुशवाहों के नेता उपेंद्र हैं और महादलितों के प्रतिनिधित्व का दावा करने वाले जीतन राम मांझी हैं. भाजपा को इन्हें साथ रखने के लिए बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। पासवान 40, कुशवाहा 23 और मांझी 20 सीटों पर बमुश्किल माने। भाजपा के लिए बची हैं 160 सीटें जो उसके हिसाब से कम हैं लेकिन बिहार की कठिन लड़ाई जीतने के लिए अमित शाह इसे अच्छी ‘केमिस्ट्री’ मानते हैं। यह केमिस्ट्री कितनी असरदार होगी, इसके लिए नतीज़ों तक इंतज़ार ही करना होगा।
ऐसा नहीं है कि एनडीए में सब कुछ शांति से हो गया। मांझी ने यह दावा करके कि वह दलितों के पासवान से बड़े नेता हैं, मुश्किलें बढ़ाईं। भाजपा उन्हें 15 सीटें देना चाहती थी और मांझी पासवान से कम सीटें लेने को तैयार नहीं थे। मुश्किल से 20 सीटों पर माने। उनके चार लोगों को भाजपा का टिकट मिलेगा। मांझी का कद बढ़ाने वाले इस सौदे से राम विलास पासवान नाराज़ हैं। मांझी की सौदेबाजे के कारण ही रालोसपा को पहले दी जा रही 25 सीटें अब 23 ही रह गईं हैं। नाराज़गियां हैं लेकिन भाजपा आश्वस्त हैं कि आगे-पीछे सब ठीक हो जाएगा।
बहरहाल, एनडीए का सैन्य शिविर जोश में है और उसने अपने उम्मीदवारों की सूची जारी करने में बढ़त ले ली। नरेंद्र भले ही पिछड़ेपन को मुद्दा बनाकर बिहार का विकास करने के वादे कर रहे हों लेकिन उनके प्रत्याशियों की सूची बताती है कि वे पूरी तरह बिहार के जातीय समीकरण साधने की कोशिश कर रहे हैं। उसकी 153 की सूची में 30 ठाकुर, 22 यादव, 21 दलित, 19 वैश्य, 18 भूमिहार, 14 अति पिछड़े, छह कुशवाहा, तीन कुर्मी, तीन कायस्थ और एक आदिवासी के अलावा दो मुस्लिम प्रत्याशी हैं। रिपोर्ट लिखे जाने तक 7 प्रत्याशी घोषित होने बाकी थे।
महागठबंधन: मुश्किलें अनेक
बिहार में भाजपा को रोकने का सारा दारोमदार अब लालू और नीतीश पर आन पड़ा है। इस मामले में दोनों की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने बड़ी समझदारी से आपस में सीटों का बंटवारा कर लिया जिसमें झगड़े की बहुत आशंका थी। जद (यू) ने 2010 में 115 सीटें जीती थीं हालांकि तब भाजपा से उनका गठबंधन था, जिसे 91 विधानसभा क्षेत्रों में विजय मिली थी। जद (यू) के लोग इस आधार पर ज़्यादा सीटें मांग रहे थे। राजद के लोग तर्क दे रहे थे कि 2014 के लोक सभा चुनाव में राजद-कांग्रेस गठबंधन 142 विधान क्षेत्रों पर पहले स्थान पर थी जबकि जद (यू) मात्र 18 क्षेत्रों में। इस आधार पर राजद 142 पर अपना दावा कर रही थी। लालू-नीतीश इस विवाद में नहीं पड़े और उन्होंने 100-100 सीटें आपस में बांट लीं। 40 सीटें कांग्रेस को दी हैं। सोनिया और राहुल से खास उम्मीदें नहीं हैं। लालू और नीतीश को ही पूरा मोर्चा संभालना है।
महागठबंधन की मुश्किलें निश्चय ही बढ़ गई हैं। मुलायम सिंह न केवल गच्चा दे गए बल्कि मुकाबिल भी खड़े हो गए। राजद से पप्पू यादव बगावत कर गए तो जद (यू) से जीतन राम मांझी। लोक सभा चुनाव में पप्पू यादव ने मधेपुरा से राजद के टिकट पर जद (यू) के दिग्गज शरद यादव को हराया था। बहुत सारे संगीन अभियोगों से घिरे पप्पू यादव की जनता के बीच रॉबिन हुड सरीखी छवि है, इसीलिए उसे जनता के सभी वर्गों-जातियों के मतदाताओं का समर्थन हासिल होता रहा है। अब वह जन अधिकार पार्टी बनाकर तीसरे मोर्चे से चुनाव मैदान में है। जाहिर है कि वह लालू-नीतीश के लिए मुसीबत ही खड़ी करेगा। जीतन राम मांझी ने 7-8 महीने के मुख्यमंत्री काल में महादलितों को रिझाने के लिए बड़ी कवायद की। जद (यू) के लिए वे महादलित चेहरा थे लेकिन अब हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा के बैनर तले भाजपा के सहयोगी बनकर नीतीश की जड़ें काटने का काम कर रहे है।
लालू तमाम विवादों-सजाओं के बावजूद यादवों और मुसलमानों में लोकप्रिय हैं। लोक सभा चुनावों में वे नीतीश से बेहतर इसीलिए साबित हुए थे। दलितों का भी काफी समर्थन उन्हें मिलता रहा है। नीतीश कुमार को कुर्मी वोटों के अलावा सुशासन की राष्ट्रीय छवि का लाभ मिलता है। हाल के वर्षों में काफी मुस्लिम वोटर भी उनके पक्ष में गोलबंद हुए लेकिन मुस्लिम वोटों में सेंध लगाने के लिए असदुद्दीन ओवैसी आ डटे हैं, वे सीमांचल क्षेत्र की कोई बीसेक सीटों पर महागठबंधन के लिए मुश्किलें खड़ी करेंगे। बाकी सीटों पर उन्होंने भाजपा हराऊ ‘सेकुलर उम्मीदवार’ का समर्थन करने की अपील मतदाताओं से की है। अब बिहार में भाजपा के अलावा सभी सेकुलर हैं!
नीतीश ने बिहार की छवि बड़े पैमाने पर बदली और किसी भी तरह का आरोप खुद पर नहीं लगने दिया। बिहार में उन्हें विकास पुरुष के रूप में देखा गया। इसी कारण बिहार का यह चुनाव ‘नीतीश बनाम नरेंद्र मोदी’ युद्ध के रूप में पेश किया जा रहा है. महागठबंधन की सबसे बड़ी ताकत नीतीश कुमार की यही छवि है। जातीय गोलबंदियों और तमाशों के लिए मशहूर लालू दूसरी बड़ी शक्ति हैं मतदाताओं के सिर चढ़ा नरेंद्र मोदी का जादू भी चौदह महीनों में काफी कुछ उतरा है लेकिन इन सब का कितना लाभ महागठबंधन को मिलेगा, कहना मुश्किल है। खासकर तब जबकि महागठबंधन के खिलाफ उसके अपने ही कमर बांध कर मैदान में कूद पड़े हैं।
ऐसा नहीं है कि एनडीए में सब कुछ शांति से हो गया। मांझी ने यह दावा करके कि वह दलितों के पासवान से बड़े नेता हैं, मुश्किलें बढ़ाईं। भाजपा उन्हें 15 सीटें देना चाहती थी और मांझी पासवान से कम सीटें लेने को तैयार नहीं थे। मुश्किल से 20 सीटों पर माने। उनके चार लोगों को भाजपा का टिकट मिलेग।