विधायक जी, कलेक्टर जिले का महाराजा होता है!
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आज भी भारत में औपनिवेशिक मानसिकता से चलती है आईएएस बिरादरी
डॉ अजय खेमरिया : मध्य प्रदेश में छतरपुर के कलेक्टर हैं मोहित बुंदस। सीधी भर्ती के आईएएस अफसर हैं, इन्हें हटाने के लिये जिले की तीन पार्टियों के सभी पांच विधायक मप्र के सीएम से गुहार लगा चुके हैं। बीजेपी के विधायक राजेश प्रजापति को कलेक्टर महोदय ने पूरे दो घण्टे तक बाहर बिठाए रखा मिलने से पहले। कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता रहे सत्यव्रत चतुर्वेदी के विधायक भाई आलोक चतुर्वेदी भी कुछ इन्हीं अनुभवों से बेजार हैं। जिस सपा विधायक के समर्थन से कमलनाथ सरकार टिकी है वे राजेश शुक्ला भी मुख्यमंत्री से फरियाद कर रहे हैं कि कलेक्टर को हटाया जाए क्योंकि वे न किसी की सुनते हैं न फील्ड में जाते हैं। बाबजूद मोहित बुंदस पर मुख्यमंत्री की कृपा बरस रही है।यह पहला मौका नहीं है जब मप्र में आईएएस अफसरों के सामने इस तरह चुने गए विद्यायकों को लाचार और विवश होकर खड़ा होना पड़ा है। असल में मप्र में लगातार अफसरशाही की निरंकुशता बढ़ रही है न केवल कमजोर बहुमत वाली मौजूदा कमलनाथ सरकार में बल्कि मजबूत बहुमत से चलीं बीजेपी की सरकारों में भी अफसरशाही से जनता ही नही सत्ता पक्ष के विधायक और मंत्री तक परेशान रहे हैं।
आखिर क्या वजह है कि भारत मे आज भी कलेक्टर का पद इतना ताकतवर होता जा रहा है इस उलटबांसी के की देश में लोकतंत्र निचले स्तर पर मजबूत हुआ है लोगों में लोकतांत्रिक अधिकार और जागरूकता का व्यापक प्रसार हुआ है। कलेक्टर की ताकत अपरिमित रूप में बढ़ रही है। यह जानते हुए की इस पद का निर्माण गोरी हुकूमत ने औपनिवेशिक साम्राज्य की मैदानी पकड़ मजबूत करने के लिये किया था। कलेक्टर मतलब राजस्व औऱ लगान कलेक्शन करने वाला साहब। अंग्रेजी राज में इसे सूबा साहब भी कहा जाता था। क्योंकि तब आज की तरह जिलों की छोटी इकाइयां नहीं थी। आईसीएस की भर्ती भी अंग्रेजों के पास थी और शरुआती दौर में परीक्षा भी इंग्लैंड में ही हुआ करती थी। यानी समझ लीजिये ये पद जो बाद में आईसीएस की जगह आईएएस में तब्दील हुआ है उसकी गर्भ नाल उस अंग्रेजी साम्राज्यवाद में छिपी है जो भारतीयों को दोयम दर्जे का इंसान मानती थी। क्या यही मानसिकता इन अफसरों को मैदान में परिचालित करती है? मोहित बुंदस जैसे प्रहसन इसे साबित करने के लिये पर्याप्त आधार प्रदान करते हैं।सीधी भर्ती के अधिकतर आईएएस अफसर खुद को भारत में सबसे काबिल और ताकतवर शख्स मानते हैं वे सोचते हैं कि यूपीएससी की परीक्षा पास कर आईएएस संवर्ग हासिल करने के बाद दुनियां में अब कुछ भी ऐसा नहीं जो उनसे ऊपर हो। अधिकतर आईएएस अधिकारी जब प्रशिक्षण प्राप्त कर मैदानी पदस्थापना पर आते हैं तो उन्हें इस बात का अहसास रहता है कि देश के सभी नेता अनपढ़ प्रायः हैं कानून औऱ नियमों का उन्हें कोई ज्ञान नहीं है और इस देश में हर कोई कानून तोड़कर गलत काम करना चाहता है।आईएएस ही कानून के अकेले रक्षक हैं उन्हें हर हाल में अडिग,सख्त और अनुदार बने रहना है। वस्तुतः यह भारत की आइएएस बिरादरी का स्थायी चरित्र बन गया है। सवाल यह है कि क्या वाकई यूपीएससी की परीक्षा प्रवीण शख्स दुनिया का सर्वाधिक श्रेष्ठ और प्रतिभाशाली माना जाना चाहिये? पिछले 70 साल से तो यह मान ही लिया जाना चाहिये क्योंकि हर दिन इस बिरादरी की ताकत बढ़ती गई है। जिस अनुपात में सरकारों के काम बढ़े, राज्य का चेहरा लोककल्याण के नाम पर जीवन के हर क्षेत्र में हस्तक्षेपनीय बना उसी अपरिमित अनुपात में आईएएस बिरादरी की ताकत, रुतबा और अहं बढ़ता चला गया है। आज का कलेक्टर सही मायनों में अंग्रेज बहादुर से कम नहीं है। औपनिवेशिक सूबों की तरह सूबा साहब को आज चरितार्थ कर रहा है। कलेक्टर दो तीन बीघा के सर्वसुविधायुक्त बंगलों में रहता है उसके पास भारतीय (दोयम) सेवादार हैं, जो घर, रसोई, बगीचों से लेकर दफ्तरों तक हर जगह अर्दली में लगे हैं। जिसके घर के बिजली, पानी से लेकर खाने पीने तक कि किसी भी सुविधा का कोई ऑडिट नहीं होता है। जिसकी एक आवाज पर अधीनस्थ अफसरों की फ़ौज आधी रात को शीर्षासन करने पर ततपर रहती है। जिसकी सुरक्षा में 24 घण्टे जवान खड़े रहते हैं। आप उसकी मर्जी के बगैर उससे मिल नहीं सकते हैं। वह आपका फ़ोन उठाये यह उसकी मर्जी पर निर्भर है।वह विकास पुरुष है वह दंडाधिकारी है वह जिले का सुपर बॉस है। वह किसी को भी मुअतिल कर सकता है। वह आज का महाराजा है। उसके काम के घण्टे तय नहीं हैं,कोई उससे उसके काम का हिसाब नहीं मांग सकता है। फिर भी वह सिविल सर्वेंट है। उसका सुपर बॉस राज्य का मुख्य सचिव है जो अपनी बिरादरी का सर्वोच्च सरंक्षणदाता है।मायावती को छोड़कर भारत में किसी शख्स ने कभी भी इस महाराजा के वर्चस्व को चुनौती नही दी। आईएएस ब्रह्म ज्ञानी है उनकी मेधा स्वयंसिद्ध है वह जिस जगह खड़ा हो जाता है उस क्षेत्र का हुलिया बदल देता है वह कभी कलेक्टर के रूप में विकास के नए आयाम स्थापित करता है जिसकी गवाही नीति आयोग के आभासी जिलों की संख्या दे ही रहे है। आईएसएस कभी बिजली कम्पनी के सीएमडी के रूप में भारत को ऊर्जीकरत कर देता है, कभी वह लोकस्वास्थ्य, कभी मेडिकल एजुकेशन, संचार, उद्योग, सिविल एवियेशन, विज्ञान, स्कूली शिक्षा, उच्च शिक्षा, पीएचई, जल संसाधन, नगर विकास,जनसम्पर्क से लेकर शासन के हर क्षेत्र को अपनी प्रतिभा से अलंकृत करता रहता है।जब इतनी प्रतिभा किसी एक हाड़मांस में घनीभूत हो तब आपके पास उसकी अद्वितीय श्रेष्ठता को अधिमान्यता देने का कोई अन्य विकल्प शेष ही नही रह जाता है।
सवाल यह भी है कि एक व्यक्ति के रूप में इस वर्ग के इस अवतार को आखिर विकसित किसने किया है?हमारी व्यवस्था में विधायिका,कार्यपालिका और न्यायपालिका का स्पष्ट विभाजन है लेकिन यहां चर्चिल की भविष्यवाणी ने फलित होकर सब कुछ अस्त व्यस्त कर दिया है शक्ति पृथक्करण का राजनीतिक सिद्धान्त तिरोहित हो चुका है कतिपय कमजोर चरित्र के लोगों ने सरकार के तीनों अंगों को अपनी अंतर्निहित भूमिका से भटका दिया है। सत्ता के लिये असुरक्षा की मार से पीड़ित नेताओं ने कभी इस तरफ सोचा ही नहीं की वह अपने सत्ता सुख को बचाने के लिये किस तरह उस व्यवस्था के दास बनते चले जा रहे हैं, जो उनके सार्वजनिक अनुभवों से अधीनस्थ अमले के रूप में काम करने के लिये प्रावधित है। इस असुरक्षा की ग्रन्थि ने ही आज भारत की लोकशाही को बाबूशाही में बदल दिया है और मोहित बुंदस असल में इसी बाबूशाही के प्रतिनिधि भर है। ऐसा नहीं है कि इस बिरादरी में सभी एक जैसे हैं कुछ अफसर अपनी भूमिकाओं के साथ न्याय करने का प्रयास करते है। मप्र में एक मुख्य सचिव के समकक्ष अफसर हैं, जो जिस विभाग में रहते हैं, उसमें ढल कर काम करते हैं। कुछ कलेक्टर के रूप में भी संवेदनशीलता दिखाते हैं लेकिन ऐसे अफसरों की संख्या बहुत ही कम है। प्रशासन के स्तर पर जिलाधिकारी को इस योग्य माना जाता है कि वह अपने अधीनस्थ अधिकारियों पर नियंत्रण में सक्षम है लेकिन 70 साल के अनुभव बताते हैं कि जिलों में ऐसा नहीं हुआ है। मप्र में हर मंगलवार जिला मुख्यालय पर जनसुनवाई होती है वहाँ औसतन दो तीन सौ लोग सुदूर गांवों से अपनी फरियाद लेकर कलेक्टर के पास आते हैं, इसका मतलब अधीनस्थ अमला जनता की सुनवाई नही कर रहा है। अफसरशाही की संवेदनशीलता को खारिज करने के लिये हजारों मामले सामने रखे जा सकते है। जाहिर है देश में इस वर्ग की उपयोगिता और योगदान पर विचार करने का समय आ गया है। क्या भर्ती के समय सेवा करने का जो जबाब अभ्यर्थियों द्वारा दिया जाता है वह सेवा में आने के बाद किसी औपनिवेशिक विशेषाधिकार को स्थापित कर देता है? अनुभव तो इसकी तस्दीक करते ही हैं। इसलिये समय आ गया है कि हम इस आईएसएस सिस्टम और इसकी भागीदारी पर खुले मन से पुनर्विचार करें। गांधी जी का एक प्रसंग यहां उदधृत किया जाना चाहिये।अहमदाबाद में अपने एक परिचित के बेटे नानालाल के आईसीएस में सिलेक्ट होने पर आयोजित समारोह को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था कि सिविल सेवक भारत का भला नहीं कर सकते हैं। यह एक बुराई है। आज गांधी की 150 वी जन्मजयंती बर्ष में उनके विचारों के आलोक में आईएएस सिस्टम पर विचार किया जाना चाहिये।
मौजूदा केंद्र सरकार ने निजी क्षेत्र के पेशेवर लोगों को लैटरल एंट्री के जरिये सीधे आईएएस के समकक्ष भर्ती का प्रयोग किया है इसे नए भारत मे समय की मांग कहा जा सकता है। तब तक सर्वशक्तिमान,सर्वाधिक प्रतिभाशाली, सर्वाधिक बुद्धिमान और कानून के रखवालों के अधीन आनन्द लीजिये। यह अलग बात है कि शिवपुरी जिले के एक कलेक्टर साहब को प्रधानमंत्री आवास योजना की बुनियादी गाइडलाइंस नही पता है वे आजकल एक दूसरे जिले में कलेक्टर है। सीधी भर्ती से इनकी पोजिशन भारत बर्ष में अंडर 30 थी। मान्यता यही है की कलेक्टर कभी गलती नही करते है उनसे ज्यादा किसी को कुछ नही आता है। इसीलिए मोहित बुंदस सभी विधायकों को घण्टे भर बाहर खड़ा रखते है। भले ही विधायक का स्थान प्रोटोकॉल में मुख्य सचिव से ऊपर है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)