दस्तक-विशेषराजनीति

विपक्षी एकता के लिए शरद यादव एक संभावना!

शरद ने महागठबंधन से अलग होने और भाजपा के साथ मिलकर सरकार बना लेने के नीतीश के कदम को बिहार की 11 करोड़ जनता के साथ विश्वासघात करार दिया है। इतना ही नहीं, दिल्ली में ‘साझा विरासत बचाओ’ सम्मेलन के बहाने चौदह विपक्षी दलों को एक मंच पर लाने की महत्वपूर्ण पहल करते हुए शरद यादव ने संकेत दिया है कि वे बड़ी लकीर खींचते हुए राष्ट्रीय राजनीति में नई भूमिका निभाने के लिए तत्पर हैं। उन्होंने इस तरह के साझा विरासत बचाओ सम्मेलन देश भर में करने का ऐलान किया है और मध्य प्रदेश के इंदौर से इस सिलसिले की शुरुआत भी कर दी है। शरद यादव और नीतीश की राहें औपचारिक तौर पर भले ही अभी-अभी अलग हुई हों लेकिन अनौपचारिक तौर पर यह सिलसिला बिहार विधानसभा चुनाव के बाद से ही शुरू हो गया था। स्पष्ट तौर पर इसकी पहली झलक मोदी सरकार के नोटबंदी के फैसले के समय देखने को मिली थी जब नीतीश कुमार मोदी सरकार के इस फैसले के साथ खडे़ दिखाई दिए थे, जबकि शरद यादव ने नोटबंदी का संसद में और संसद के बाहर खुलकर विरोध किया था। ऐसा ही सर्जिकल स्ट्राइक के सरकार के दावे को लेकर भी हुआ। शरद ने जहां सरकार के दावे पर संसद में कई सवाल उठाए, वहीं नीतीश ने सरकार के दावे का समर्थन किया। राष्ट्रपति पद के चुनाव में भाजपा के उम्मीदवार का समर्थन करने के सवाल पर भी दोनों नेताओं की राय एक-दूसरे से जुदा थी।

-अनिल जैन

लगभग दो दशक तक एक ही राजनीतिक दल की छतरी तले हमकदम रहे शरद यादव और नीतीश कुमार की राहें अब पूरी तरह जुदा हो गई हैं। अब उनकी पार्टी के दो फाड़ होने और एक दूसरे को निकालने की औपचारिकताएं ही शेष रह गई हैं। जनता दल (यू) अध्यक्ष एवं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और कांग्रेस के साथ बीस महीने पुराने अपने महागठबंधन से नाता तोड़कर अपना सियासी मुस्तकबिल भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ नत्थी कर लिया है। उनके इस फैसले को पार्टी के पूर्व अध्यक्ष शरद यादव के नेतृत्व में एक धडे़ ने सिरे से नकार दिया है। नीतीश के फैसले के तुरंत बाद बिहार के चार दिन के अपने सघन दौरे में अपेक्षा से कहीं ज्यादा मिले समर्थन से उत्साहित शरद यादव ने कहा कि बिहार में सरकार चला रहे कुछ लोग भले ही कहीं और चले गए हो लेकिन पार्टी और बिहार की जनता अभी भी महागठबंधन के साथ ही है।

शरद ने महागठबंधन से अलग होने और भाजपा के साथ मिलकर सरकार बना लेने के नीतीश के कदम को बिहार की 11 करोड़ जनता के साथ विश्वासघात करार दिया है। इतना ही नहीं, दिल्ली में ‘साझा विरासत बचाओ’ सम्मेलन के बहाने चौदह विपक्षी दलों को एक मंच पर लाने की महत्वपूर्ण पहल करते हुए शरद यादव ने संकेत दिया है कि वे बड़ी लकीर खींचते हुए राष्ट्रीय राजनीति में नई भूमिका निभाने के लिए तत्पर हैं। उन्होंने इस तरह के साझा विरासत बचाओ सम्मेलन देश भर में करने का ऐलान किया है और मध्य प्रदेश के इंदौर से इस सिलसिले की शुरुआत भी कर दी है। कई राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि नीतीश के भाजपा के साथ जा मिलने के फैसले से दो साल पहले बिहार विधानसभा चुनाव के समय विपक्षी एकता के जरिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बादशाहत को चुनौती देने का जो प्रयोग हुआ था, उसका दर्दनाक अंत हो गया है। लेकिन शरद यादव ऐसा नहीं मानते। उनका दावा है कि बिहार में महागठबंधन अभी भी कायम है और वे बिहार से बाहर उसका विस्तार करने के लिए पहले की तरह आगे भी अपने प्रयास जारी रखेंगे। उनके साझा विरासत बचाओ अभियान को इसी सिलसिले में देखा जा सकता है। ‘साझा विरासत बचाओ’ सम्मेलन के जरिए शरद यादव ने यह संदेश देने की कोशिश भी की कि अपनी पार्टी के विभाजन की प्रक्रिया में नीतीश कुमार और उनके समर्थकों से उलझना उनकी प्राथमिकताओं में शामिल नहीं है। सम्मेलन में शामिल कांग्रेस समेत विभिन्न दलों के नेताओं ने देश में बढ़ते सामाजिक तनाव और हिंसक घटनाओं पर एक सुर में चिंता जताते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका और भाजपा सरकार के रवैये पर तीखे सवाल उठाकर एक नया विपक्षी मोर्चा बनने की संभावनाओं को मजबूत किया है। महत्वपूर्ण बात यह रही कि इनमें से ज्यादातर नेताओं ने शरद यादव से ही इस सिलसिले में नेतृत्वकारी पहल करने का अनुरोध किया।

विपक्षी एकता के सिलसिले में इस पहलकदमी से पहले हालांकि नीतीश कुमार और भाजपा की ओर से शरद यादव को मनाने और अपने साथ लाने की पूरी कोशिश की गई। उन्हें महत्वपूर्ण महकमे के साथ केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल करने और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का संयोजक बनाने की पेशकश भी की गई। खुद नीतीश कुमार के अलावा केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू ने भी शरद को मनाने की कोशिश की। पुराने एनडीए के दिनों का हवाला दिया गया, जब जार्ज फर्नांडीस और शरद यादव एनडीए के संयोजक हुआ करते थे, लेकिन उनकी कोशिशें नाकाम रहीं। यहां सवाल उठता है कि एक समय भाजपा के अहम सहयोगी और संयोजक के रूप में एनडीए के आधार स्तंभ रहे शरद यादव आखिर अब एनडीए में शामिल होने से क्यों परहेज बरत रहे हैं। इस सवाल का जवाब देते हुए खुद शरद यादव कहते हैं, ‘पहले हम लोग जब एनडीए का हिस्सा बने थे तो हमने भाजपा नेतृत्व से अपनी शर्तें मनवाई थीं। हम लोगों के ही दबाव में अयोध्या विवाद, समान नागरिक कानून और अनुच्छेद 370 जैसे विवादास्पद और विभाजनकारी मुद्दों को छोड़ने के लिए भाजपा को बाध्य होना पड़ा था। हम जब तक एनडीए में रहे, भाजपा के सांप्रदायिक एजेंडा को हाशिए पर रखने में कामयाब रहे। उस समय के भाजपा नेतृत्व ने भी उदारता और समझदारी का परिचय देते हुए देशहित में हमारे वैचारिक आग्रहों का सम्मान किया था। लेकिन अब भाजपा में वह बात नहीं रही।’ शरद यादव के मुताबिक ‘अब तो जिन लोगों के हाथों में भाजपा और सरकार की बागडोर हैं वे इस देश की साझा विरासत और स्वाधीनता संग्राम के दौरान विकसित हुए साझा मूल्यों को ही नष्ट करने पर आमादा हैं। संविधान जो कि हमारे लोकतंत्र की आत्मा है, उसके साथ रोजाना छेड़छाड़ हो रही है। सत्ता में बैठे लोग संसद को भी अप्रासंगिक बनाने की कोशिश कर रहे हैं। मांसाहार, लवजेहाद, घरवापसी जैसे बेमतलब के मुद्दों को लेकर आए दलितों और अल्पसंख्यकों को सताया जा रहा है, उन पर हिंसक हमले हो रहे हैं, उनकी हत्या की जा रही है। यह सब करने वालों पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। एक तरह से देश में गृहयुद्ध जैसे हालात बनते जा रहे हैं। सरकार की दिशाहीन नीतियों के चलते देश में बेरोजगारी का संकट भयावह रूप ले चुका है। किसानों की आत्महत्या का सिलसिला कहीं से भी थमता नजर नहीं आ रहा है। छोटे व्यापारियों, दस्तकारों, बुनकरों के सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो गया है। ऐसे हालात में इस सरकार का साथ देना एक तरह का राष्ट्रीय अपराध है।’

तो शरद यादव ने अपने पुराने सहयोगियों के आग्रह को ठुकराते हुए सत्ता में साझेदारी करने के बजाय सड़क और संघर्ष को तरजीह दी और जनता के बीच जाने का फैसला किया। इस सिलसिले की शुरुआत के लिए उन्होंने सबसे पहले अपनी पार्टी के आधार वाले सूबे को ही चुना और निकल पडे़ बिहार की सडकों पर। उनके इस अभियान को थामने के लिए नीतीश कुमार ने अनुशासन के डंडे का सहारा भी लिया। इस सिलसिले में सबसे पहले शरद यादव को संसदीय दल के नेता पद से तथा उनके समर्थक माने जाने वाले अरुण श्रीवास्तव को दल-विरोधी गतिविधियों में शामिल होने के आरोप में पार्टी महासचिव पद से हटा दिया गया और फिर दो सांसदों एमपी वीरेंद्र कुमार और अली अनवर को पार्टी से निलंबित कर दिया गया। शरद यादव का बिहार दौरा खत्म होते ही पार्टी के 21 अन्य नेताओं पर भी निलंबन की तलवार चला दी गई। अपने और अपने समर्थकों के खिलाफ नीतीश की ओर से होने वाली इस कार्रवाई का अंदाजा शरद को भी था, लिहाजा उन्होंने अपने दौरे में हर जगह यही कहा कि कुछ लोग सत्ता की खातिर महागठबंधन से अलग होकर भाजपा के साथ चले गए हैं लेकिन बिहार में जद (यू), राजद और कांग्रेस का महागठबंधन अभी भी कायम है और आगे भी कायम रहेगा। उनका दावा है, ‘नीतीश अब सरकारी जनता दल की अगुवाई कर रहे हैं, जबकि असली जनता दल हमारे साथ है। सरकार के कुछ मंत्री और विधायक भी हमारे साथ हैं जो उचित समय पर सामने आएंगे।’ जाहिर है कि शरद भी नीतीश के साथ दो-दो हाथ करने की तैयारी के साथ ही मैदान में उतरे हैं।

बताया जा रहा है कि जद (यू) की 14 राज्य इकाइयों ने नीतीश कुमार को पत्र लिखकर उनसे पार्टी का राष्ट्रीय अधिवेशन बुलाने की मांग की है। यह मांग नीतीश के महागठबंधन से अलग होने के फैसले के परिपे्रक्ष्य में है, लेकिन नीतीश एक तरह से यह मांग खारिज कर चुके हैं। उनका कहना है कि जद (यू) व्यावहारिक तौर पर एक क्षेत्रीय पार्टी है और उसका जनाधार मुख्य रूप से उसका बिहार में ही है, इसलिए पार्टी की बिहार इकाई ने राज्य के हितों को ध्यान में रखकर जो फैसला लिया है उसे ही पूरी पार्टी को मानना होगा। यह सच है कि जद (यू) का मुख्य जनाधार बिहार में ही है, लेकिन देश के अन्य राज्यों में भी पार्टी की इकाइयां कार्यरत हैं, जो कि शरद यादव के अध्यक्षीय कार्यकाल में ही गठित की गई थीं। हालांकि उनमें से ज्यादातर का प्रभाव नगण्य हैं। चूंकि शरद लंबे समय तक पार्टी के अध्यक्ष रहे हैं, उससे पहले वे जनता पार्टी, लोकदल और अविभाजित जनता दल में भी राष्ट्रीय स्तर पर महत्वपूर्ण पदों पर रह चुके हैं, जबकि नीतीश को पार्टी का नेतृत्व संभाले महज एक साल ही हुआ है, लिहाजा बिहार के बाहर देश भर में पार्टी से जुडे़ कार्यकर्ताओं और नेताओं से शरद का संपर्क नीतीश की तुलना में कहीं ज्यादा है।

शरद यादव और नीतीश की राहें औपचारिक तौर पर भले ही अभी-अभी अलग हुई हों लेकिन अनौपचारिक तौर पर यह सिलसिला बिहार विधानसभा चुनाव के बाद से ही शुरू हो गया था। स्पष्ट तौर पर इसकी पहली झलक मोदी सरकार के नोटबंदी के फैसले के समय देखने को मिली थी जब नीतीश कुमार मोदी सरकार के इस फैसले के साथ खडे़ दिखाई दिए थे, जबकि शरद यादव ने नोटबंदी का संसद में और संसद के बाहर खुलकर विरोध किया था। ऐसा ही सर्जिकल स्ट्राइक के सरकार के दावे को लेकर भी हुआ। शरद ने जहां सरकार के दावे पर संसद में कई सवाल उठाए, वहीं नीतीश ने सरकार के दावे का समर्थन किया। राष्ट्रपति पद के चुनाव में भाजपा के उम्मीदवार का समर्थन करने के सवाल पर भी दोनों नेताओं की राय एक-दूसरे से जुदा थी। दरअसल, शरद यादव पिछले लोकसभा चुनाव के बाद से ही मोदी सरकार के खिलाफ विपक्ष को एकजुट करने की मुहिम में जुटे हैं। मोदी सरकार के भूमि अधिग्रहण विधेयक के खिलाफ विपक्ष की कामयाब गोलबंदी उन्हीं की पहल का परिणाम थी, जिसके चलते सरकार को अपने कदम पीछे खींचने पडे़ थे। बिहार विधानसभा के चुनाव में नीतीश और लालू प्रसाद यादव को साथ लाने और महागठबंधन बनाने में भी उनकी अहम भूमिका रही। हालांकि असम और उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में महागठबंधन बनाने की उनकी कोशिशें परवान नहीं चढ़ सकीं, लेकिन इसके बावजूद वे विपक्ष की व्यापक एकता की कोशिशों में जुटे रहे। राष्ट्रपति चुनाव से पहले कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के निमंत्रण पर हुई 17 विपक्षी दलों की बैठक भी शरद की ही कोशिशों का परिणाम थी। वे अपनी इन कोशिशों को और विस्तार देना चाहते थे लेकिन बिहार में महागठबंधन तोड़कर भाजपा के साथ जाने के नीतीश कुमार के फैसले ने उनकी कोशिशों को तात्कालिक तौर पर गहरा झटका पहुंचाया है। हालांकि शरद यादव ऐसा नहीं मानते। उनके मुताबिक नीतीश का भाजपा के साथ जाना भी एक तरह से विपक्षी एकता के लिए ठीक ही रहा है।

यह सच है कि मौजूदा राजनीति में जिन संकुचित और सतही अर्थों में किसी नेता को जनाधार वाला नेता माना जाता है, उन अर्थों में शरद यादव अपने चार दशक से भी लंबे संसदीय जीवन के बावजूद कभी भी वैसे जनाधार वाले नेता नहीं रहे। लेकिन चौधरी चरणसिंह, मधु लिमये, कर्पूरी ठाकुर, देवीलाल जैसे नेताओं के साथ लंबे समय तक राष्ट्रीय राजनीति में रहने तथा बाद में मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू कराने में अहम भूमिका के चलते वे राष्ट्रीय स्तर के नेता के तौर पर अपनी पहचान बनाने में कामयाब रहे। वे इंदिरा गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी के बाद तीसरे ऐसे राजनेता हैं, जो अलग-अलग समय में तीन अलग-अलग राज्यों से लोकसभा में पहुंचे हैं। समकालीन राजनीति में शरद यादव का कद इस नाते भी दूसरे नेताओं से कहीं ज्यादा ऊंचा है कि उन्होंने एक-नहीं दो-दो बार लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा दिया है। आपातकाल के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपनी सुविधा के लिए लोकसभा की अवधि एक साल के बढ़ाने का अनैतिक फैसला किया था तो उसके विरोध में जयप्रकाश नारायण के अपील पर महज दो विपक्षी सांसदों ने ही लोकसभा से इस्तीफा देने का नैतिक साहस दिखाया था- एक थे दिवंगत हो चुके समाजवादी नेता मधु लिमये और दूसरे थे 29 साल के शरद यादव। छद्म नैतिकता का कर्कश नगाड़ा पीटने वाले उस समय के कई दिग्गज सांसदों ने तरह-तरह के कुतर्क देते हुए इस्तीफा देने से मना कर दिया था। ऐसे महानुभावों में संघ की संस्कार शाला में दीक्षित अटल बिहारी वाजपेयी भी शामिल थे। शरद यादव ने दूसरी बार लोकसभा से इस्तीफा तब दिया था जब हवाला मामले में उनका नाम आया था। तब भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी के साथ दूसरे नेता शरद यादव ही थे जिन्होंने लोकसभा से इस्तीफा देते हुए ऐलान किया था कि जब तक वे इस मामले अपने को अदालत में पाक-साफ साबित नहीं कर देंगे तब तक कोई चुनाव नहीं लडेंगे।

बहरहाल, अब संभव है कि शरद यादव और उनके समर्थन में खुलकर आए नेताओं के खिलाफ नीतीश की ओर से अनुशासनात्मक कार्रवाई के बाद पार्टी के दोनों खेमे अपने को असली जद (यू) बताने का दावा करें। अगर ऐसा होता है तो विवाद चुनाव आयोग में और फिर अदालत में भी जा सकता है। वैसे पार्टी के अध्यक्ष पद पर नीतीश की नियुक्ति की वैधता को भी चुनाव आयोग के समक्ष चुनौती पहले ही दी जा चुकी है, जिस पर आयोग ने वादियों को अदालत में जाने की सलाह दी है। पार्टी का औपचारिक तौर पर विभाजन होने की स्थिति में शरद यादव और उनके सहयोगियों की पूरी कोशिश होगी की कि वे जद (यू) के कुछ विधायकों को अपने पाले में लाकर नीतीश कुमार की सरकार को गिराकर महागठबंधन की वैकल्पिक सरकार बनाए या राज्य में नए चुनाव की स्थिति पैदा करें। बिहार की राजनीति और जद (यू) में छिडे़ घमासान का नतीजा चाहे जो हो, इस घमासान के शुरुआती दौर में शरद यादव सत्ता में हिस्सेदारी की पेशकश ठुकरा कर यह संदेश देने में तो कामयाब हो ही गए हैं कि उनके लिए जन सरोकारों और उसूलों के आगे सत्ता गौण हैं। उनका यह कदम उन्हें आने वाले दिनों में विपक्षी एकता की धुरी भी बना सकता है। अगर ऐसा होता है तो इसे भी एक तरह से इतिहास का पुनर्जन्म ही कहेंगे, क्योंकि 1974 में जयप्रकाश नारायण के जनता उम्मीदवार के तौर पर लोकसभा का उपचुनाव जीतकर शरद यादव ही उस वृहद विपक्षी एकता की प्रतीकात्मक बुनियाद बने थे, जिसने आगे चलकर कांग्रेस को सत्ता से बेदखल किया था और देश को आपातकाल के अभिशाप से मुक्ति दिलाई थी। नीतीश कुमार एक संभावना थे! नीतीश कुमार चार साल बाद फिर भाजपा और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की महफिल के मनसबदार हो गए। चार साल पहले तक भी वे एक दशक से भाजपा की साझेदारी में सरकार चला रहे थे लेकिन नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने के विरोध में भाजपा के साथ अपना 16 साल पुराना गठबंधन तोड़कर अलग हो गए थे। उस वक्त उन्होंने नरेंद्र मोदी को भाजपा का सबसे बड़ा सांप्रदायिक चेहरा करार दिया था। हालांकि तब भी जद (यू) के कई नेता नीतीश के इस फैसले को अतार्किक मानते हुए उससे सहमत नहीं थे लेकिन उनकी असहमति पर नीतीश की मनमानी भारी रही थी।

दरअसल, नीतीश को उस वक्त उनके कुछ गैर राजनीतिक और चापलूस सलाहकार यह समझाने में सफल रहे थे कि वे गठबंधन की राजनीति के दौर में अपनी ‘सुशासन’ वाली छवि के बूते प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हो सकते हैं। इस सिलसिले में एचडी देवगौड़ा की मिसाल भी दी गई थी कि कैसे वे मुट्ठीभर सांसदों के दम पर प्रधानमंत्री बन गए थे। नीतीश के दिल-दिमाग में भी इस अव्यावहारिक महत्वाकांक्षा के लिए अच्छी खासी जगह बनने में देर नहीं लगी। यह वह दौर था जब भाजपा में अटल-आडवाणी युग अंतिम सांसें ले रहा था और पार्टी पूरी तरह संघ के इशारों पर थिरक रही थी। नरेंद्र मोदी ने गुजरात में अपने नेतृत्व में भाजपा को लगातार तीसरी बार जीत दिलाकर दिल्ली आने का यानी बड़ी भूमिका निभाने का संकेत दे दिया था। मोदी के दिल्ली कूच को संघ की रजामंदी हासिल थी। लालकृष्ण आडवाणी अपनी पार्टी में पूरी तरह हाशिए पर डाले जा चुके थे। ऐसे में नीतीश कुमार यह अच्छी तरह जानते थे कि एनडीए में रहते हुए उनकी महत्वाकांक्षा की दाल गलने वाली नहीं है। इसीलिए वे धर्मनिरपेक्ष राजनीति के चैंपियन बनकर मैदान में उतर पडे़ थे। मोदी, भाजपा और संघ उनके लिए एकाएक इस कदर अछूत हो गए थे कि उन्होंने न सिर्फ एनडीए से नाता तोड़ा बल्कि अपनी सरकार में शामिल भाजपा के मंत्रियों से इस्तीफा मांगने के बजाय उन्हें बर्खास्त कर अपमानित किया था। इसी क्रम में उन्होंने बिहार के बाढ़ पीड़ितों के सहायतार्थ गुजरात सरकार से आई पांच करोड़ रुपए की राशि का चैक भी लौटा दिया था। दरअसल नीतीश अहंकार और अति आत्मविश्वास के शिकार हो गए थे। उनका और उनके सलाहकारों का आकलन था कि लोकसभा चुनाव में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलेगा लेकिन जनता दल (यू) बिहार में अपने बूते 40 में से 30 से अधिक सीटें जीत लेगा। उनका यह भी आकलन था कि भाजपा विरोधी सारी पार्टियां ऐसी स्थिति में उन्हें हाथोहाथ लेकर अपना नेता स्वीकार कर लेगी। लेकिन लोकसभा चुनाव के नतीजों ने नीतीश कुमार के सारे मुगालते दूर कर दिए। उन्हें 40 में से महज दो सीटें हासिल हुई, जबकि 30 सीटों पर उनकी पार्टी तीसरे नंबर पर रही और उनमें से भी 20 पर उनके उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई। जबकि पिछली लोकसभा में जद (यू) की 22 सीटें थीं। उनसे बेहतर स्थिति तो लालू यादव की रही जिन्होंने 25 सीटों पर चुनाव लडा और चार सीटें जीतने में कामयाब रहे। लोकसभा चुनाव में लुटने-पिटने के बाद उनके सामने एकमात्र लक्ष्य था बिहार में अपनी सल्तनत बचाने का। यह लक्ष्य उनके अकेले के बूते हासिल करना मुमकिन नहीं था। इस बात को वे लोकसभा चुनाव में अच्छी तरह समझ चुके थे। ऐसे में शरद यादव लालू उनके लिए संकट मोचक बनकर उभरे। शरद ने नीतीश और लालू दोनों को गठबंधन के लिए राजी किया और फिर उसमें कांग्रेस को भी शामिल कर लिया। इस तरह महागठबंधन ने आकार लिया।

महागठबंधन बिहार की सामाजिक सरंचना के अनुकूल था, लिहाजा उसने भाजपा को बुरी तरह पराजित किया। महागठबंधन में लालू यादव की पार्टी को सबसे ज्यादा सीटें मिली लेकिन चूंकि महागठबंधन ने नीतीश कुमार के चेहरे पर चुनाव लड़ा था लिहाजा, लालू ने उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं दिखाई। उनकी सरकार में लालू यादव के दोनों बेटे भी मंत्री बन गए। मीडिया के प्रचार को छोड़ दे तो सब कुछ सामान्य चल रहा था, लेकिन सामान्य नहीं थे तो सिर्फ नीतीश कुमार। उन्होंने मजबूरी के चलते लालू के साथ गठबंधन कर चुनाव तो लड लिया था लेकिन अपनी सरकार में लालू के बेटों की मौजूदगी उन्हें सहज नहीं रहने दे रही थी। वे लालू से नाता तोडने और भाजपा से नाता जोडने का अवसर तलाश रहे थे। उनका नोटबंदी और सर्जिकल स्ट्राइक के दावे का समर्थन करना स्पष्ट तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ उनके रिश्ते पटरी पर आने का संकेत था। इसके बाद राष्ट्रपति पद के लिए भाजपा के उम्मीदवार का तुरत-फुरत समर्थन करके भी उन्होंने विपक्षी एकता के प्रयासों को धक्का तथा प्रधानमंत्री मोदी को राहत पहुंचाने का काम किया। इसी दौरान केंद्र सरकार की जांच एजेंसियों ने लालू यादव के रेल मंत्रित्वकाल के कुछ मामलों को लेकर उन पर तथा उनके परिवार के सदस्यों पर मुकदमें दर्ज कर लिए। इन्हीं मुकदमों को नीतीश कुमार ने मुद्दा बनाकर महागठबंधन से नाता तोड लिया और एक बार फिर भाजपा के बगलगीर हो गए। महागठबंधन से नाता तोडते हुए नीतीश ने कहा कि वे भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कोई समझौता नहीं कर सकते थे और महागठबंधन के नेताओं पर लगे आरोपों से उनकी सरकार की छवि पर आंच आ रही थी। यह सफाई देते वक्त नीतीश कुमार ने इस सवाल का कोई जवाब देना मुनासिब नहीं समझा कि लालू यादव तो भ्रष्टाचार के एक मामले में उस वक्त भी सजायाफ्ता थे जब उन्होंने उनकी पार्टी के साथ महागठबंधन बनाकर चुनाव लड़ा था और फिर सरकार बनाई थी।

दरअसल नीतीश के लालू से अलग होने की असल वजह लालू पर लगे भ्रष्टाचार आरोप नहीं हैं। अगर ऐसा होता तो वे भाजपा के उन नेताओं को अपनी सरकार में शामिल नहीं करते जिन पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं। गौरतलब है कि नीतीश कुमार के नए मंत्रिमंडल में उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी सहित भाजपा के आधा दर्जन मंत्री भ्रष्टाचार के मामले में मुकदमों का सामना कर रहे हैं। लालू से नीतीश का अलगाव भ्रष्टाचार के मुद्दे को लेकर नहीं हुआ है, यह बात भाजपा के साथ सरकार बनाने के बाद खुद नीतीश ने अपनी पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में स्वीकार की है। उन्होंने कहा है, ‘लालू अक्सर सार्वजनिक रूप से कहा करते थे कि हमारी पार्टी की सीटें ज्यादा होते हुए भी हमने नीतीश को मुख्यमंत्री बनाया है। उनका यह कहना बडा अपमानजनक लगता था, इसलिए हमें उनसे अलग होने का फैसला करना पडा।’ हालांकि यहां भी नीतीश ने पूरा सच बयान नहीं किया है। दरअसल, लालू से उनके अलग होने और भाजपा के साथ जुड़ने की असली वजह तो कुछ और ही है जो कभी न कभी तो उजागर होगी ही। बहरहाल इतना ही कहा जा सकता है कि गैर भाजपा राजनीति के लिए नीतीश कुमार एक संभावना थे जिसका हास्यास्पद तरीके से अंत हो गया।

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