विपक्ष बनता लेखक
लेखकों की पुरस्कार वापसी यानि किसी स्टैंड लेने, विरोध करने का दौर ऐसे समय हो रहा है जब हिंदी जगत में लंबे समय से पस्ती छायी हुई थी, अन्यों के साथ खुद लेखक जो लिख रहे हैं वे भी मानने लगे थे कि लिखने का समाज पर कोई असर नहीं होता वरना चहुंओर पतन में कहीं से तो रोशनी की कोई किरण दिखाई देती।
चुटकुले और किस्से सबूत हैं कि हिंदी का लेखक आमतौर पर निरीह प्राणी माना जाता रहा है। पुरस्कारों को लेकर होने वाली तिकड़म और राजनीति ने उसकी अपकीर्ति में और इजाफा किया है, कहा जाने लगा था कि यह दो ढाई सौ लोगों का समूह है जो एक दूसरे की पीठ ठोंकता और वाह-वाह करता हुआ किसी काल्पनिक दुनिया में रहता है। इसका कारण दुनिया के पैमाने पर हिंदी और उसके लेखकों की कमजोर हैसियत है वरना फिल्म, संगीत, कला, राजनीति, विज्ञान, कानून हर क्षेत्र में इसी तिकड़म का बोलबाला है, लेकिन उनकी मजबूत आर्थिक हैसियत और उससे प्रायोजित ग्लैमर के कारण उंगलियां नहीं उठतीं, लेकिन देश में बढ़ते साम्प्रदायिक उत्पात के माहौल में पानसारे, कलबुर्गी, दाभोलकर की हत्याओं और दादरी में एक मुसलमान को अफवाह फैलाकर मार देने के बाद पुरस्कारों की वापसी का जो सिलसिला शुरू हुआ है, उसने एक नई उर्जा नई चेतना का संचार किया है। पहली बार ऐसा हुआ है लेखक विपक्ष की भूमिका में खड़ा दिखाई दे रहा है। उसने साबित किया है कि वह सिर्फ कुर्सी में धंसा रहने वाला अकर्मण्य चिंतक नहीं है, वरन उसमें अपने समाज और देश के लिए सत्ता के सामने खड़े होने का जज्बा भी है। इस अभूतपूर्व प्रतिरोध को राजनीति के चालू तर्कों और दायित्वहीन खिंचाई से टालने की कोशिश की जा रही है, लेकिन हिंदी की नई पीढ़ी इन छद्यों को पहचानते हुए लेखन की ताकत को एक बार फिर से पहचान रही है, प्रस्तुत है इसी विषय पर आवरण कथा।
सुनियोजित हिंसा और हमले का ये पैटर्न बन गया है। इसके लिए किसी भविष्यकथन की थपथपी से रोमांचित होने की ज़रूरत भी नहीं, लोग मारे जाते रहेंगे, एक दर्दनाक मायूसी छा गई है, कौमें उदास हैं, और बद्दुआएं किन्हीं कोनों से उठने लगी हैं। नाइंसाफ़ी के प्रतिकार की गूंजें वही नहीं जो सिर्फ़ सुनाई दी जाती रहें, कुल विपदा एक साथ नहीं गिरेगी।
जातीय, धार्मिक और अभिव्यक्ति की आज़ादी पर तो हमले नए नहीं है, वे तो मंटो से बदस्तूर जारी हैं।
हमारे और बहुत सारे युवाओं, नवागुंतकों के इन अतिप्रिय कवियों लेखकों की पंक्तियां हम कोट करते हैं और आगे बढ़ाते हैं और बाज़दफ़ा हमला करने वालों की आंखों में टॉर्च की रोशनी की तरह रखने का साहस कर देते हैं। इधर जो स्टैंड या जो निष्क्रिय सा या उदासीन सा रवैया इनमें से कुछ सम्मानीय लेखकों ने दिखाया है। ये हिंदी की युवतर और नई पीढ़ी को चौंकाता है और स्तब्ध करता है, हो सकता है अन्य भाषाओं में भी ऐसा ही सोचा जा रहा हो, लेकिन सज्जनों, पुरस्कार लौटाने वाले थके हुए लोग नहीं हैं, वे प्रतिरोध के ताप से भरे हुए साहसी लोग हैं, ये कोई तात्कालिक नायकत्व थोड़े ही है, ये कोई बॉलीवुड की मसाला फिल्म नहीं चल रही हैं, ये कोई अस्थायी संवेग नहीं है, ये वृथा भावुकता और इसके वशीभूत कोई शहादत नहीं है।
ये क्षणभंगुरता नहीं है, क्या आप ऐसा ही मानते हैं?
आज इतिहास पलटकर एक मांग कर रहा था, कुछ लोग कंबल ओढ़कर करवट ले बैठे हैं और सो गए हैं। साहित्य अकादमी को छोड़ दीजिए, आज जो ये लेखकीय संताप अपनी रचनाओं से निकलकर एक निर्णय की तरह प्रकट हो चुका है और फैल रहा है। क्या ये कोई बीमारी है या संक्रमण?
आप किन वक्तों का इंतज़ार करेंगे? क्या हो जाएगा जब आप कहेंगे, हां, ये हद है, क्या सारी हदें चूर-चूर होने के लिए आपको किसी भारी शक्तिशाली विस्फोट की आवाज़ चाहिए या उससे होने वाली बरबादी?
आप सलीब की तरह इसे क्यों ढोएंगे, ईसा पर सलीब उनकी इच्छा से नहीं लादी गई, उन पर थोपी गई, क्या आप कहना चाह रहे हैं कि ये आप पर थोपा गया है? और आपकी तो सलीब हुई आपको चुभती हुई और हर रोज़ दबाती हुई। और वे जो बाक़ायदा पीट-पीट कर मार डाले जा रहे हैं, वे? क्या उनकी तक़लीफ़ की कोई कील होगी जो सीधे आत्मा में आपके जा चुभे और आप कराह उठें? ग्लानि की और कुछ न कर पाने की छटपटाहट की और अपराधबोध की सलीब ढोने के बजाय क्यों न सामूहिकता की एक जवाबदेही आप भी अपने ऊपर ले लें?आप इसे अपनी वैचारिकता और यातना का एकांत कैसे बना सकते हैं? इन वक्तों में, आप छिटके हुए क्यों हो सकते हैं?
सलीब को ढोने के मुहावरे में क्यों जा रहे हैं? वो तो आप दैनंदिन व्यथाओं? वेदनाओं? हिंसाओं और संघर्षों के हवाले से ढो ही रहे हैं? ये पुरस्कार कैसे उस अत्यन्त यातना में शुमार हो गया है जो आपके लेखकीय जीवन की धुरी थी? आपने सलीब ढोने के लिए जन्म नहीं लिया था? आपका मक़सद कविता करना ही था, आप उस पीड़ित और व्याकुल समाज की परवाह करते थे और इसलिए आपने लिखा, फिर सलीब क्योंकर आ गई?
और भाड़ फोड़ना किसे कहते हैं? क्यों प्रिय कवि मुहावरों में जा रहे हैं? क्यों वो एक तरह की ग्रंथि के हवाले से कह रहे है कि उनका कहा ही सही है और सिद्ध है? प्रतिरोध को इतना कमतर और इतना संदेहास्पद क्यों बनाया जा रहा है?
आज जब कन्नड़, पंजाबी, कोंकणी, मराठी जैसी भाषाओं में हम एकजुटता देख रहे हैं तो इधर हिंदी के खेमे, कुंजे क्यों बिखरे हुए हैं? उसके शामियानों पर अलग अलग पताकाएं क्यों लहरा रही है? जैसे ब्रिटिश राज और उसके पूर्व भारत का कोई दृश्य हो, ये एक तंबू क्यों नहीं है, कोई एक कैंप? इन कैंपों पर ये घुसपैठ किसकी है?
कोई हैरानी नहीं कि जो विचार आपके हैं और जो धारणाएं आप ज़ाहिर कर रहे हैं वे कमोबेश इस देश के श्रीमंत भी कर रहे हैं। वही मीडिया के अधिकांश हिस्से के मूढ़मति भी कर रहे हैं, और लेखकों में तो दो फाड़ बता ही दिया गया है। देखिए चेतन भगत कहने वाले हो गए हैं, तो आज चेतन भगत जैसे तत्व भी ज्ञान दे रहे हैं और पीएम निंदा से हमेशा व्याकुल नज़र आते अनुपम खेर जैसे लोग भी, वे लेखकों से ही उनका हिसाब पूछ रहे हैं।
एक विवादास्पद और वाद विवाद के लंदन माहिर, शशि थरूर तक कहने से बाज़ न आए, आप लेखक हैं तो लेखक ही रहिए, ख़बरदार राजनीति पर मत बोलिए, और इस राजनीति पर जो इधर दिल्ली से लेकर भारत भूमि के कस्बों शहरों तक एक भयावह अट्टाहास में कह रही हैं, मुझे मानो, उस पर कोई कुछ न बोले सब शरणागत हो जाएं,क्या यही हासिल है?
न जाने क्यों भटके हुए से दिख रहे माननीयों, इस समय हम सही हैं,हंकार नहीं, आत्मबल है चतुराई नहीं साहस है, स्वार्थ नहीं विवेक है, हमारा विवेक हमारी अंतरात्मा के साथ पूरे समन्वय में है,ये एक स्थायी दृढ़ता है, प्लीज़ आप इस दृढ़ता में लौट आएं। ये लौट आना भविष्य में दाखिल होना होगा। भविष्य का निर्माण दृढ़ता ही करती आई है, ये झपटना और ऐंठना नहीं, अगली रचना आखिर आप किस हवाले से करेंगे, कौन सा मर्म होगा जो आपकी मुंदी हुई आंखों के सामने थरथरा उठेगा? मुक्तिबोध होते तो हमारी ओर से बेशक कहते पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है, ये क्लिशे नहीं हो जाता जैसा क्लिशे अंधेरे में नाम की कुल महान रचना का बना दिया गया है और सब उस पर मानो तृप्त, होकर बोलते न रहते। अंधेरे में कोल्ड ड्रिंक की तरह या किसी भी अन्य ड्रिंक की तरह पीना बंद कीजिए।
हम क्या कहे, हम सब लोग हुसैन के गुनहगार हैं,उनकी जन्मशती है, क्या ग्लानिबोध इतनी अस्थायी सी भटकन होती है कि जल्द ही बिला जाती है? क्या भारतीय परंपरा के उस्ताद हुसैन के सम्मान में ही ऐसा नहीं हो सकता कि लोग उस ड््योढ़ी पर आ पहुंचें? जहां उस महान कलाकार ने अपनी उदासी और अवसाद में एक छतरी रख छोड़ी है
जस की तस
ऊपर लिखी ये लाइनें उत्तराखंड के एक लेखक, पत्रकार शिवप्रसाद जोशी की हैं जो लेखकों और पुरस्कार लौटाने पर नुक्ताचीनी करने वालों से मुखातिब होते हुए देश में जहरीले होते जाते माहौल और उसके प्रतिरोध की जरूरत पर रौशनी डालती हैं,वे मार्मिक ढंग से सवाल उठा रहे हैं कि अगर लोग सांप्रदायिक अफवाहें और प्रायोजित उन्माद फैलाकर मारे जा रहे हैं और लेखक चुप रहें तो आखिर वे किसके लिए लिख रहें हैं।
अगर कागज पर उतारे जाने वाले मूल्यों से उनका कोई सरोकार है तो वह उनके कर्म में दिखाई ही पड़ना चाहिए, दूसरी तरफ विरोध का मजाक बनाने वाले अपने राजनीतिक सरोकारों को छिपाते हुए इस अभूतपूर्व पहल को लेखन का स्तर, पुरस्कारों के लिए होने वाली जोड़तोड़, मोदी राज से पहले की घटनाओं पर निष्क्रियता या उनकी राजनीति में दखलंदाजी के औचित्य तक समेट कर भटका देना चाहते हैं।
वे चाहते हैं कि ऐसे युवा जो साहित्य तो पढ़ते हैं, लेकिन राजनीति को तिकड़म और फरेब का खेल समझने के कारण इससे कटे हुए हैं, वे इस लहर के प्रभाव में न आएं, ऐसा करके वे बारीक ढंग से अभिव्यक्ति का गला घोंटने और सत्ता में आने बाद देश पर अपना सांप्रदायिक एजेंडा थोपने वालों की मदद करना चाहते हैं इसी स्थिति को लक्ष्य करके वरिष्ठ कवि असद जैदी ने कहा, मेरी समझ से तो इस समय अगर फासीवादी बर्बरता के विरोधस्वरूप एक अयोग्य, अधम या अप्रिय व्यक्ति भी ज्ञानपीठ या साहित्य अकादमी या पद्मश्री उपाधि लौटाता है तो वह हमारी सराहना और समर्थन का हकदार है।
एक तरफ प्रतिरोध को भटकाने की जोरआजमाइश चल रही है तो इसी के बरअक्स युवा लेखक जो अपेक्षाकृत कम राजनीतिक माहौल में बड़े हुए हैं इस खतरे को बखूबी समझ ही नहीं रहे हैं बल्कि अपना पक्ष भी चुन रहे हैं, बनारस के कवि और रंगकर्मी व्योमेश शुक्ल का कहना है- हमारे सर्वोत्तम लेखक अपने-अपने पुरस्कार लौटा रहे हैं, यह भारत के इतिहास की एक अभूतपूर्व घटना है, एक बड़ी असहमति प्रतिफलित हो रही है, लेकिन कुछ लोग, न जाने क्यों, इस विरोध का विरोध कर रहे हैं, क्या हमलोग विरोध करने की ताक़त खो रहे हैं?
युवा लेखक देख पा रहे हैं कि भीड़ को उकसाकर असुविधाजनक लोगों की हत्याएं करने की संस्कृति कैसे विस्तार पा रही है, वे इसे सिर्फ सांप्रदायिक नजरिए से नहीं बल्कि ऐसे भी देख पा रहे हैं कि ये हत्याएं उसी तंत्र के कारनामों का विस्तार हैं जो नागरिक अधिकारों की पैरवी करने वालों को पहले भी खामोश करता आया है।
युवा कथाकार चंदन पांडेय का कहना है, हत्याओं का चतुर्दिक स्वीकार, दुखी मन से ही सही, विगत वर्षों में एक परिघटना बन कर उभरा है। बड़ी संख्या में आरटीआइ कार्यकर्ता और पत्रकार मारे गए हैं। सोचने में भी अजीब लगता है कि उन कलमनवीसों के साहस को संजोने और श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए मुझे बहुत सारे फूल चाहिए।
प्रश्न यह है कि वे निर्भय लोग कौन है जो लिखने के लिए हत्या कर देते हैं, बाकी की दुनिया आम जनता का तमगा लेकर कभी उदास हो लेती है, कभी आक्रोशित होती है तो कभी, हतभाग्य मार दिए लोगों के इरादे पर शक कर लेती है और हतभाग्य कि……उनके विचलन याद करने लगती है, पर विचलन की सजा के लिए प्रावधान भी है। विचलन गलत होते होंगे पर किसी की हत्या की वजह नहीं बन सकते, विचलित वही होता है जो कुछ काम करता है, आदर्श स्थिति में तो कर्महीन या निठल्ले ही रह सकते हैं।
हुआ यह है कि आरटीआइ एक्टिविस्टों और पत्रकारों की हत्या करते करते ये ही लोग लेखकों की हत्या करने लगे, मांसाहार हत्या की वजह बनने लगी, आज आलम यह है कि गाय के बगल में खुद को खड़ा पाकर आप घबरा जाते हैं, आज की तारीख में इस हत्यारी प्रवृत्ति का विरोध करने वाले ही कठघरे में खड़े कर दिए गए है।
इस पेंच को पहचानने वाले युवा लेखक उन पुराने मठाधीशों को भी नहीं बख्श रहे हैं जो येन केन प्रकारेण प्रासंगिक बने रहने के लिए कुछ भी कर गुजरते हैं, प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह जो मौके के अनुरूप माफिया को भी लेखक बना देते हैं और साहित्य की प्रतिरोध शक्ति को ही पहचानने से इंकार कर देते हैं, उनके निशाने पर हैं। इस प्रकरण में जब उन्होंने बयान दिया कि लेखक सिर्फ अखबारों में प्रचार पाने के लिए पुरस्कार लौटा रहे हैं तो युवा कवि अविनाश मिश्र ने अपनी प्रतिक्रिया इस तुकबंदी के जरिए व्यक्त की-
मंच कोई भी हो चढ़ जाए नामवर सिंह
छोड़ सोच संकोच नहीं शर्मा नामवर सिंह
भाई को पुरस्कार दिलवा,नामवर सिंह
वह लौटा दे यह कह न पाए नामवर सिंह
सत्ता संग बकलोल बने नहीं घबराए नामवर सिंह
फर्क क्या जो उपकृतों की फौज बढ़ा, नामवर सिंह
धोती पहने पान चबा, रंगा सियार नजर आए नामवर सिंह
जीयनपुर में अपना सबकुछ छोड़ आए नामवर सिंह
वे उन्हें भी बख्शने को तैयार नहीं हैं जिनका अतीत संदिग्ध रहा है। जो इस मौके का उपयोग अपनी नयी साख बनाने के लिए कर रहे हैं। मूलत: प्रशासक किंतु वरिष्ठ कवि अशोक वाजपेयी के सम्मान लौटाने पर अविनाश ने कहा, वैसे सम्मान अगर छीना गया हो तब उसे लौटाना नहीं चाहिए। इस अर्थ में देखें तो लौटाना उन अकिंचनों का अपमान है जो कुछ छीन नहीं सकते और पा जाने पर लौटा नहीं सकते। गौरतलब है कि यह सम्मान अशोक वाजपेयी ने वर्ष 1994 में हासिल किया था और 2002 में उन्होंने इसे लौटाने के काबिल नहीं समझा।
इस प्रकार के अन्य प्रसंगों में भी इस प्रकार की तथ्यात्मक बातें बहुत की गईं और की जा रही हैं, लेकिन बहुत होना हरदम फिजूल होना तो नहीं है। सांप्रदायिकता और फासिज्म के प्रतिकार में साहित्य अकादमी सम्मान लौटाने की यह रवायत और समझ-सूझ हालिया वक्त में भारतीय लेखकों को एक हिंदी लेखक उदय प्रकाश ने सौंपी है, और मंजर कुछ इस कदर खौफनाक है कि इन कदमों को स्वागतयोग्य मानना पड़ रहा है,
लेखकों की पुरस्कार वापसी यानि किसी स्टैंड लेने, विरोध करने का दौर ऐसे समय हो रहा है जब हिंदी जगत में लंबे समय से पस्ती छायी हुई थी, अन्यों के साथ खुद लेखक जो लिख रहे हैं वे भी मानने लगे थे कि लिखने का समाज पर कोई असर नहीं होता वरना चहुंओर पतन में कहीं से तो रोशनी की कोई किरण दिखाई देती। लेखकों का मजाक बनाने वालों ने इसी पस्ती को तर्क की तरह प्रस्तुत करना शुरू किया है, इसकी शिनाख्त करते हुए फिल्मों और यात्रावृतांतों के जरिए चर्चा में आए बलिया के युवा लेखक रामजी तिवारी का कहना है इधर लोग-बाग कहते हैं कि लिखने और बोलने से क्या होता है और उधर लिखने और बोलने के कारण ही गोली मार देते हैं। अब जब लोग-बाग़ कह रहे हैं कि पुरस्कार लौटाने से क्या होता है.। –
तो पता नहीं क्यों, मुझे कुछ भय सा लग रहा है…।
इसी हताशा के दौर में एक गौरतलब बात यह हुई है कि हर बात की आलोचना करने वाला एक दायित्वहीन तबका पैदा हुआ है जो खुद को सारे कर्तव्यों से परे मानते हुए सिर्फ गाली देने के अधिकार में यकीन रखता है, पुरस्कार वापसी प्रकरण में भी ऐसे लोग देवताओं की तरह गाल बजा रहे हैं जिन्होंने इन लेखकों को पढ़ा तक नहीं है। उनकी शिनाख्त करते हुए पत्रकार और गायक पंकज श्रीवास्तव ने कहा, जो लेखक पुरस्कार लौटा रहे हैं वे किसी पार्टी नहीं, अपनी अंतरात्मा के निर्देश पर ऐसा कर रहे हैं। जो नहीं लौटा रहे हैं, वे भी गुनाह नहीं कर रहे हैं। देखने की बात यह है कि ऐसे अजब दौर में जब सिर्फ लिखने के अपराध में सरेआम क़त्ल किया जा रहा हो तो ख़ुद को लेखक कहने वाले सड़क पर मुट्ठी ताने खड़े हैं कि नहीं। जो अशक्त हैं, उनका बयान भी चलेगा।
सबसे संदिग्ध हैं वे जो इस मौके का इस्तेमाल लिहाड़़ी लेने के लिए कर रहे हैं। फिर चाहे पुरस्कार वापस करने वालों के इतिहास का छिद्रान्वेषण हो या न करने वालों पर लानत बरसाना। दुश्मन सामने खड़ा है और आप गोली दागने के बजाय बंदूक की फ़ैक्ट्री पर बहस ताने हैं, हद है !
इसी अगर मगर को रेखांकित करते हुए और हिंदी लेखन में स्पष्ट पक्षधरता के अभाव को इंगित करते हुए पत्रकार और लेखिका मनीषा पांडेय का कहना है- बस यही फर्क है।
बस इत्ता सा। हिंदी के तमाम एक्स, वाई, जेड साहित्य अकादमी लौटाने को लेकर नुक्ताचीनी कर रहे हैं, मीनमेख निकाल रहे हैं। शब्दों की जलेबी बना रहे हैं। ऐसा तो वैसा तो कैसा आदि-आदि कर रहे हैं। रुश्दी ने सीधा समर्थन कर दिया। दो लाइन में सीधी, सिंपल बात। आय सपोर्ट। बात खत्म।
जरा झांकिए अपने गिरेबान में भी सरकार, रुश्दी जैसा क्यों नहीं लिख पाते हैं हिंदी वाले।
अब इसकी भी नुक्ताचीनी न करने लग जाइएगा।
हिंदी की सबसे नई पीढ़ी इस प्रतिरोध की कीमत को समझ रही है और उन पुरानों को भी समझाने का प्रयास कर रही है जो इस वक्त भी अपने पुराने हिसाब किताब नहीं भूल पा रहे हैं, कानपुर के युवा वीरु सोनकर का अंदाज देखिए- मैत्रेयी पुष्पा जी भी कमाल हैं, जिस बन्दूक की नली दूसरों की ओर हो वहां ये तुरंत बारूद भर कर दाग देती है और जब नली का मुंह खुद की तरफ हो तो तुरंत एक कभी न टूटने वाली लंबी चुप्पी ?
जय हो माते!
माते, जो लोग पुरस्कार वापस कर रहे है वो भाग नहीं रहे है …। उनके अपने-अपने सही गलत तर्क हो सकते है उनके वापस करने का समय निसंदेह बहस का मुद्दा बन सकता है पर आप उनके प्रतिरोध को जाया नहीं घोषित कर सकते है…
माते ए दम चाहिए लिया गया वापस करने के लिए ….ये वह लोग नहीं समझ सकते है जो खुद सरकारो के कृपापात्र बन कर बैठे हो। देश में और दिल्ली में शासन व्यवस्था नष्ट हो चुकी है। बांटने की हर कोशिशो में चाहे केजरीवाल हो या मोदी हो या लालू, नीतीश, मुलायम हो, सबके सब एक घिनौनी होड़ में शामिल है। अपना नफा नुकसान देख कर लोगो को बरी करना या ख़ारिज करना छोड़िये। क्या आपसे यह आशा की जा सकती है कि आप दिल्ली और केंद्र सरकार की नीतियों के विरोध में हिंदी अकादमी का पद छोड़ देंगी? या अपने पुरस्कार वापस करेंगी ?
बिलकुल नहीं, आप नहीं छोड़ सकती है
आप एक बढ़िया सा तर्क गढ़ कर अपना बचाव कर लेंगी, यह जो आज के हालात हुए है देश के, वह ऐसे ही तर्कों से उत्पन्न हुए है। आप सत्ता सुख के साथ बनी रहें पर जो विरोध दर्ज करा रहे है उनकी धार कुंद मत करिये माते ए जनता सब देख-समझ रही है।=
प्रश्न यह है कि वे निर्भय लोग कौन हैं जो लिखने के लिए हत्या कर देते हैं, बाकी की दुनिया आम जनता का तमगा लेकर कभी उदास हो लेती है, कभी आक्रोशित होती है तो कभी, हतभाग्य मार दिए लोगों के इरादे पर शक कर लेती है और हतभाग्य कि……उनके विचलन याद करने लगती है, पर विचलन की सजा के लिए प्रावधान भी है। विचलन गलत होते होंगे पर किसी की हत्या की वजह नहीं बन सकते
लिखिए जोर से लिखिए, किसने रोका है भाई!
तथाकथित सांप्रदायिकता से संतप्त बुद्धिजीवियों और लेखकों द्वारा साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने का सिलसिला वास्तव में प्रभावित करने वाला है। यह कितना सुंदर है कि एक लेखक अपने समाज के प्रति कितना संवेदनशील है, कि वह यहां घट रही घटनाओं से उद्वेलित होकर अपने सम्मान लौटा रहा है। कुछ ने तो चेक भी वापस किए हैं। सामान्य घटनाओं पर यह संवेदनशीलता और उद्वेलन सच में भावविह्वल करने वाला है।
सही मायने में देश के इतिहास में यह पहली घटना है, जब पुरस्कारों को लौटाने का सिलसिला इतना लम्बा चला है। बावजूद इसके लेखकों की यह संवेदनशीलता सवालों के दायरे में है। यह संवेदना सराही जाती अगर इसके इरादे राजनीतिक न होते। कर्नाटक और उत्तर प्रदेश जहां भाजपा की सरकार नहीं है के ‘पाप’ भी नरेंद्र मोदी के सिर थोपने की हड़बड़ी न होती, तो यह संवेदना सच में सराही जाती। सांप्रदायिकता को लेकर ‘चयनित दृष्टिकोण’ रखने और प्रकट करने का पाप लेखक कर रहे हैं। उन्हें यह स्वीकार्य नहीं कि जिस नरेंद्र मोदी को कोस-कोसकर, लिख-लिखकर, बोल-बोलकर वे थक गए, उन्हें देश की जनता ने अपना प्रधानमंत्री स्वीकार कर लिया। यह कैसा लोकतांत्रिक स्वभाव है कि जनता भले मोदी को पूर्ण बहुमत से ‘दिल्लीपति’ बना दे, किंतु आप उन्हें अपना प्रधानमंत्री मानने में संकोच से भरे हुए हैं।
देश में सांप्रदायिक दंगों और सांप्रदायिक हिंसा का इतिहास बहुत लंबा है किंतु इस पूरे लेखक समूह को गोधरा और उसके बाद के गुजरात दंगों के अलावा कुछ भी याद नहीं आता। विस्मृति का संसार इतना व्यापक है कि इंदिरा जी हत्या के बाद हुए सिखों के खिलाफ सुनियोजित दंगे भी इन्हें याद नहीं हैं। मलियाना और भागलपुर तो भूल ही जाइए। जहां मोदी है, वहीं इन्हें सारी अराजकता और हिंसा दिखती है। कुछ अखबारों के कार्टून कई दिनों तक मोदी को ही समर्पित दिखते हैं। ये अखबारी कार्टून समस्या केंद्रित न होकर व्यक्ति केंद्रित ही दिखते हैं। उप्र में दादरी के बेहद दुखद प्रसंग पर समाजवादी पार्टी और उसके मुख्यमंत्री को कोसने के बजाए नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार की आलोचना कहां से उचित है? क्या नरेंद्र मोदी को घेरने के लिए हमारे बुद्धिजीवियों के पास मुद्दों का अकाल है? इस नियम से तो गोधरा दंगों के समय इन साहित्यकारों को नरेंद्र मोदी के बजाए प्रधानमंत्री से इस्तीफा मांगना चाहिए था, लेकिन उस समय मोदी उनके निशाने पर थे। किंतु अखिलेश यादव और कर्नाटक के मुख्यमंत्री हिंसा को न रोक पाने के बावजूद लेखकों के निशाने पर नहीं हैं। उन्हें इतनी राहत इसलिए कि वे सौभाग्य से ‘भाजपाई मुख्यमंत्री’ नहीं हैं और सेकुलर सूरमाओं के साथ उनके रक्त संबंध हैं। ऐसे आचरण, बयानों और कृत्यों से लेखकों की स्वयं की प्रतिष्ठा कम हो रही है। हमारे संघीय ढांचे को समझे बिना किसी भी ऐरे-गैरे के बयान को लेकर नरेंद्र मोदी की आलोचना कहां तक उचित है? औवेसी से लेकर साध्वी प्राची के विवादित बोल का जिम्मेदार नरेंद्र मोदी को ठहराया जाता है जबकि इनका मोदी से क्या लेना देना? लेकिन तथाकथित सेकुलर दलों के मंत्री और पार्टी पदाधिकारी भी कोई बकवास करें तो उस पर किसी लेखक को दर्द नहीं होता। क्या ही अच्छा होता कि ये लेखक उस समय भी आगे आए होते जब कश्मीर में कश्मीरी पंडितों पर बर्बर अत्याचार और उनकी हत्याएं हुईं। उस समय इन महान लेखकों की संवेदना कहां खो गई थी, जब लाखों कश्मीरी पंडितों को अपने ही वतन में विस्थापित होना पड़ा। नक्सलियों पर पुलिस दमन पर आंसू बहाने वाली यह संवेदना तब सुप्त क्यों पड़ जाती है, जब हमारा कोई जवान माओवादी आतंक का शिकार होता है। जनजातियों पर बर्बर अत्याचार और उनकी हत्याएं करने वाले माओवादी इन बुद्धिजीवियों की निगाह में ‘बंदूकधारी गांधीवादी’ हैं। कम्युनिस्ट देशों में दमन, अत्याचार और मानवाधिकारों को जूते तले रौंदनेवाले समाजवादियों का भारतीय लोकतंत्र में दम घुट रहा है, क्योंकि यहां हर छोटी-बड़ी घटना के लिए आप बिना तथ्य के सीधे प्रधानमंत्री को लांछित कर सकते हैं और उनके खिलाफ अभियान चला सकते हैं।
दरअसल, ये वे लोग हैं जिनसे नरेंद्र मोदी का प्रधानमंत्री बनना हजम नहीं हो रहा है। ये भारतीय जनता के विवेक पर सवाल उठाने वाले अलोकतांत्रिक लोग हैं। ये उसी मानसिकता के लोग हैं, जो नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर देश छोड़ देने की धमकियां दे रहे थे। सही मायने में ये ऐसे लेखक हैं जिन्हें जनता के मनोविज्ञान, उसके सपनों और आकांक्षाओं की समझ ही नहीं है। वैसे भी ये लेखक भारत में रहना ही कहां चाहते हैं? भारतद्वेष इनकी जीवनशैली, वाणी और व्यवहार में दिखता है। भारत की जमीन और उसकी खूशबू का अहसास उन्हें कहां है? ये तो अपने ही बनाए और रचे स्वर्ग में रहते हैं। जनता के दुख-दर्द से उनका वास्ता क्या है? शायद इसीलिए हमारे दौर में ऐसे लेखकों का घोर अभाव है, जो जनता के बीच पढ़े और सराहे जा रहे हों क्योंकि जनता से उनका रिश्ता कट चुका है। वे संवाद के तल पर हार चुके हैं। एक खास भाषा और खास वर्ग को समर्पित उनका लेखन दरअसल इस देश की माटी से कट चुका है।
साहित्य अकादमी दरअसल लेखकों की स्वायत्त संस्था है। एक बेहद लोकतांत्रिक तरीके से उसके पदाधिकारियों का चयन होता है। पुरस्कार भी लेखक मिल कर तय करते हैं। पं. जवाहरलाल नेहरू जैसे लोग इस संस्था के अध्यक्ष रहे। आज डॉ. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी इसके अध्यक्ष हैं। वे पहले हिंदी लेखक हैं, जिन्हें अध्यक्ष बनने का सौभाग्य मिला। ऐसे में इस संस्था के द्वारा दिए गए पुरस्कारों पर सवाल उठाना कहां का न्याय है? लेखकों की, लेखकों के द्वारा, चुनी गयी संस्था का विरोध बेमतलब ही कहा जाएगा। अगर यह न भी हो तो सरकार द्वारा सीधे दिए गए अलंकरणों, सम्मानों, पुरस्कारों और सुविधाओं को लौटाने का क्या औचित्य है? यह सरकार हमारी है और हमारे द्वारा दिए गए टैक्स से ही चलती है। कोई सरकार किसी लेखक को कोई सुविधा या सम्मान अपनी जेब से नहीं देती।
यह सब जनता के द्वारा दिए गए धन से संचालित होता है। ऐसे में साहित्यकारों द्वारा पुरस्कार लेकर लौटाना जनता का ही अपमान है। जनता के द्वारा दिए गए जनादेश से चुने गए प्रधानमंत्री की उपस्थिति अगर आपसे बर्दाश्त नहीं हो रही है तो सड़कों पर आइए। अपना विरोध जताइए, किंतु वितंडावाद खड़ा करने से लेखकों की स्थिति हास्यास्पद ही बनी रहेगी। आज यह भी आवाज उठ रही है कि क्या ये लेखक सरकारों द्वारा दी गई अन्य चीजें जैसे मकान या जमीन जैसी सुविधाएं वापस करेंगे। जाहिर है ये सवाल बेमतलब हैं, लंबे समय तक सरकारी सुविधाओं और सुखों को भोगने वाला समाज अचानक ‘क्रांतिकारी’ नहीं हो सकता। =
टकुले और किस्से सबूत हैं कि हिंदी का लेखक आमतौर पर निरीह प्राणी माना जाता रहा है। पुरस्कारों को लेकर होने वाली तिकड़म और राजनीति ने उसकी अपकीर्ति में और इजाफा किया है, कहा जाने लगा था कि यह दो ढाई सौ लोगों का समूह है जो एक दूसरे की पीठ ठोंकता और वाह-वाह करता हुआ किसी काल्पनिक दुनिया में रहता है। इसका कारण दुनिया के पैमाने पर हिंदी और उसके लेखकों की कमजोर हैसियत है वरना फिल्म, संगीत, कला, राजनीति, विज्ञान, कानून हर क्षेत्र में इसी तिकड़म का बोलबाला है, लेकिन उनकी मजबूत आर्थिक हैसियत और उससे प्रायोजित ग्लैमर के कारण उंगलियां नहीं उठतीं, लेकिन देश में बढ़ते साम्प्रदायिक उत्पात के माहौल में पानसारे, कलबुर्गी, दाभोलकर की हत्याओं और दादरी में एक मुसलमान को अफवाह फैलाकर मार देने के बाद पुरस्कारों की वापसी का जो सिलसिला शुरू हुआ है, उसने एक नई उर्जा नई चेतना का संचार किया है। पहली बार ऐसा हुआ है लेखक विपक्ष की भूमिका में खड़ा दिखाई दे रहा है। उसने साबित किया है कि वह सिर्फ कुर्सी में धंसा रहने वाला अकर्मण्य चिंतक नहीं है, वरन उसमें अपने समाज और देश के लिए सत्ता के सामने खड़े होने का जज्बा भी है। इस अभूतपूर्व प्रतिरोध को राजनीति के चालू तर्कों और दायित्वहीन खिंचाई से टालने की कोशिश की जा रही है, लेकिन हिंदी की नई पीढ़ी इन छद्यों को पहचानते हुए लेखन की ताकत को एक बार फिर से पहचान रही है, प्रस्तुत है इसी विषय पर आवरण कथा।
सुनियोजित हिंसा और हमले का ये पैटर्न बन गया है। इसके लिए किसी भविष्यकथन की थपथपी से रोमांचित होने की ज़रूरत भी नहीं, लोग मारे जाते रहेंगे, एक दर्दनाक मायूसी छा गई है, कौमें उदास हैं, और बद्दुआएं किन्हीं कोनों से उठने लगी हैं। नाइंसाफ़ी के प्रतिकार की गूंजें वही नहीं जो सिर्फ़ सुनाई दी जाती रहें, कुल विपदा एक साथ नहीं गिरेगी।
जातीय, धार्मिक और अभिव्यक्ति की आज़ादी पर तो हमले नए नहीं है, वे तो मंटो से बदस्तूर जारी हैं।
हमारे और बहुत सारे युवाओं, नवागुंतकों के इन अतिप्रिय कवियों लेखकों की पंक्तियां हम कोट करते हैं और आगे बढ़ाते हैं और बाज़दफ़ा हमला करने वालों की आंखों में टॉर्च की रोशनी की तरह रखने का साहस कर देते हैं। इधर जो स्टैंड या जो निष्क्रिय सा या उदासीन सा रवैया इनमें से कुछ सम्मानीय लेखकों ने दिखाया है। ये हिंदी की युवतर और नई पीढ़ी को चौंकाता है और स्तब्ध करता है, हो सकता है अन्य भाषाओं में भी ऐसा ही सोचा जा रहा हो, लेकिन सज्जनों, पुरस्कार लौटाने वाले थके हुए लोग नहीं हैं, वे प्रतिरोध के ताप से भरे हुए साहसी लोग हैं, ये कोई तात्कालिक नायकत्व थोड़े ही है, ये कोई बॉलीवुड की मसाला फिल्म नहीं चल रही हैं, ये कोई अस्थायी संवेग नहीं है, ये वृथा भावुकता और इसके वशीभूत कोई शहादत नहीं है।
ये क्षणभंगुरता नहीं है, क्या आप ऐसा ही मानते हैं?
आज इतिहास पलटकर एक मांग कर रहा था, कुछ लोग कंबल ओढ़कर करवट ले बैठे हैं और सो गए हैं। साहित्य अकादमी को छोड़ दीजिए, आज जो ये लेखकीय संताप अपनी रचनाओं से निकलकर एक निर्णय की तरह प्रकट हो चुका है और फैल रहा है। क्या ये कोई बीमारी है या संक्रमण?
आप किन वक्तों का इंतज़ार करेंगे? क्या हो जाएगा जब आप कहेंगे, हां, ये हद है, क्या सारी हदें चूर-चूर होने के लिए आपको किसी भारी शक्तिशाली विस्फोट की आवाज़ चाहिए या उससे होने वाली बरबादी?
आप सलीब की तरह इसे क्यों ढोएंगे, ईसा पर सलीब उनकी इच्छा से नहीं लादी गई, उन पर थोपी गई, क्या आप कहना चाह रहे हैं कि ये आप पर थोपा गया है? और आपकी तो सलीब हुई आपको चुभती हुई और हर रोज़ दबाती हुई। और वे जो बाक़ायदा पीट-पीट कर मार डाले जा रहे हैं, वे? क्या उनकी तक़लीफ़ की कोई कील होगी जो सीधे आत्मा में आपके जा चुभे और आप कराह उठें? ग्लानि की और कुछ न कर पाने की छटपटाहट की और अपराधबोध की सलीब ढोने के बजाय क्यों न सामूहिकता की एक जवाबदेही आप भी अपने ऊपर ले लें?आप इसे अपनी वैचारिकता और यातना का एकांत कैसे बना सकते हैं? इन वक्तों में, आप छिटके हुए क्यों हो सकते हैं?
सलीब को ढोने के मुहावरे में क्यों जा रहे हैं? वो तो आप दैनंदिन व्यथाओं? वेदनाओं? हिंसाओं और संघर्षों के हवाले से ढो ही रहे हैं? ये पुरस्कार कैसे उस अत्यन्त यातना में शुमार हो गया है जो आपके लेखकीय जीवन की धुरी थी? आपने सलीब ढोने के लिए जन्म नहीं लिया था? आपका मक़सद कविता करना ही था, आप उस पीड़ित और व्याकुल समाज की परवाह करते थे और इसलिए आपने लिखा, फिर सलीब क्योंकर आ गई?
और भाड़ फोड़ना किसे कहते हैं? क्यों प्रिय कवि मुहावरों में जा रहे हैं? क्यों वो एक तरह की ग्रंथि के हवाले से कह रहे है कि उनका कहा ही सही है और सिद्ध है? प्रतिरोध को इतना कमतर और इतना संदेहास्पद क्यों बनाया जा रहा है?
आज जब कन्नड़, पंजाबी, कोंकणी, मराठी जैसी भाषाओं में हम एकजुटता देख रहे हैं तो इधर हिंदी के खेमे, कुंजे क्यों बिखरे हुए हैं? उसके शामियानों पर अलग अलग पताकाएं क्यों लहरा रही है? जैसे ब्रिटिश राज और उसके पूर्व भारत का कोई दृश्य हो, ये एक तंबू क्यों नहीं है, कोई एक कैंप? इन कैंपों पर ये घुसपैठ किसकी है?
कोई हैरानी नहीं कि जो विचार आपके हैं और जो धारणाएं आप ज़ाहिर कर रहे हैं वे कमोबेश इस देश के श्रीमंत भी कर रहे हैं। वही मीडिया के अधिकांश हिस्से के मूढ़मति भी कर रहे हैं, और लेखकों में तो दो फाड़ बता ही दिया गया है। देखिए चेतन भगत कहने वाले हो गए हैं, तो आज चेतन भगत जैसे तत्व भी ज्ञान दे रहे हैं और पीएम निंदा से हमेशा व्याकुल नज़र आते अनुपम खेर जैसे लोग भी, वे लेखकों से ही उनका हिसाब पूछ रहे हैं।
एक विवादास्पद और वाद विवाद के लंदन माहिर, शशि थरूर तक कहने से बाज़ न आए, आप लेखक हैं तो लेखक ही रहिए, ख़बरदार राजनीति पर मत बोलिए, और इस राजनीति पर जो इधर दिल्ली से लेकर भारत भूमि के कस्बों शहरों तक एक भयावह अट्टाहास में कह रही हैं, मुझे मानो, उस पर कोई कुछ न बोले सब शरणागत हो जाएं,क्या यही हासिल है?
न जाने क्यों भटके हुए से दिख रहे माननीयों, इस समय हम सही हैं,हंकार नहीं, आत्मबल है चतुराई नहीं साहस है, स्वार्थ नहीं विवेक है, हमारा विवेक हमारी अंतरात्मा के साथ पूरे समन्वय में है,ये एक स्थायी दृढ़ता है, प्लीज़ आप इस दृढ़ता में लौट आएं। ये लौट आना भविष्य में दाखिल होना होगा। भविष्य का निर्माण दृढ़ता ही करती आई है, ये झपटना और ऐंठना नहीं, अगली रचना आखिर आप किस हवाले से करेंगे, कौन सा मर्म होगा जो आपकी मुंदी हुई आंखों के सामने थरथरा उठेगा? मुक्तिबोध होते तो हमारी ओर से बेशक कहते पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है, ये क्लिशे नहीं हो जाता जैसा क्लिशे अंधेरे में नाम की कुल महान रचना का बना दिया गया है और सब उस पर मानो तृप्त, होकर बोलते न रहते। अंधेरे में कोल्ड ड्रिंक की तरह या किसी भी अन्य ड्रिंक की तरह पीना बंद कीजिए।
हम क्या कहे, हम सब लोग हुसैन के गुनहगार हैं,उनकी जन्मशती है, क्या ग्लानिबोध इतनी अस्थायी सी भटकन होती है कि जल्द ही बिला जाती है? क्या भारतीय परंपरा के उस्ताद हुसैन के सम्मान में ही ऐसा नहीं हो सकता कि लोग उस ड््योढ़ी पर आ पहुंचें? जहां उस महान कलाकार ने अपनी उदासी और अवसाद में एक छतरी रख छोड़ी है
जस की तस
ऊपर लिखी ये लाइनें उत्तराखंड के एक लेखक, पत्रकार शिवप्रसाद जोशी की हैं जो लेखकों और पुरस्कार लौटाने पर नुक्ताचीनी करने वालों से मुखातिब होते हुए देश में जहरीले होते जाते माहौल और उसके प्रतिरोध की जरूरत पर रौशनी डालती हैं,वे मार्मिक ढंग से सवाल उठा रहे हैं कि अगर लोग सांप्रदायिक अफवाहें और प्रायोजित उन्माद फैलाकर मारे जा रहे हैं और लेखक चुप रहें तो आखिर वे किसके लिए लिख रहें हैं।
अगर कागज पर उतारे जाने वाले मूल्यों से उनका कोई सरोकार है तो वह उनके कर्म में दिखाई ही पड़ना चाहिए, दूसरी तरफ विरोध का मजाक बनाने वाले अपने राजनीतिक सरोकारों को छिपाते हुए इस अभूतपूर्व पहल को लेखन का स्तर, पुरस्कारों के लिए होने वाली जोड़तोड़, मोदी राज से पहले की घटनाओं पर निष्क्रियता या उनकी राजनीति में दखलंदाजी के औचित्य तक समेट कर भटका देना चाहते हैं।
वे चाहते हैं कि ऐसे युवा जो साहित्य तो पढ़ते हैं, लेकिन राजनीति को तिकड़म और फरेब का खेल समझने के कारण इससे कटे हुए हैं, वे इस लहर के प्रभाव में न आएं, ऐसा करके वे बारीक ढंग से अभिव्यक्ति का गला घोंटने और सत्ता में आने बाद देश पर अपना सांप्रदायिक एजेंडा थोपने वालों की मदद करना चाहते हैं इसी स्थिति को लक्ष्य करके वरिष्ठ कवि असद जैदी ने कहा, मेरी समझ से तो इस समय अगर फासीवादी बर्बरता के विरोधस्वरूप एक अयोग्य, अधम या अप्रिय व्यक्ति भी ज्ञानपीठ या साहित्य अकादमी या पद्मश्री उपाधि लौटाता है तो वह हमारी सराहना और समर्थन का हकदार है।
एक तरफ प्रतिरोध को भटकाने की जोरआजमाइश चल रही है तो इसी के बरअक्स युवा लेखक जो अपेक्षाकृत कम राजनीतिक माहौल में बड़े हुए हैं इस खतरे को बखूबी समझ ही नहीं रहे हैं बल्कि अपना पक्ष भी चुन रहे हैं, बनारस के कवि और रंगकर्मी व्योमेश शुक्ल का कहना है- हमारे सर्वोत्तम लेखक अपने-अपने पुरस्कार लौटा रहे हैं, यह भारत के इतिहास की एक अभूतपूर्व घटना है, एक बड़ी असहमति प्रतिफलित हो रही है, लेकिन कुछ लोग, न जाने क्यों, इस विरोध का विरोध कर रहे हैं, क्या हमलोग विरोध करने की ताक़त खो रहे हैं?
युवा लेखक देख पा रहे हैं कि भीड़ को उकसाकर असुविधाजनक लोगों की हत्याएं करने की संस्कृति कैसे विस्तार पा रही है, वे इसे सिर्फ सांप्रदायिक नजरिए से नहीं बल्कि ऐसे भी देख पा रहे हैं कि ये हत्याएं उसी तंत्र के कारनामों का विस्तार हैं जो नागरिक अधिकारों की पैरवी करने वालों को पहले भी खामोश करता आया है।
युवा कथाकार चंदन पांडेय का कहना है, हत्याओं का चतुर्दिक स्वीकार, दुखी मन से ही सही, विगत वर्षों में एक परिघटना बन कर उभरा है। बड़ी संख्या में आरटीआइ कार्यकर्ता और पत्रकार मारे गए हैं। सोचने में भी अजीब लगता है कि उन कलमनवीसों के साहस को संजोने और श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए मुझे बहुत सारे फूल चाहिए।
प्रश्न यह है कि वे निर्भय लोग कौन है जो लिखने के लिए हत्या कर देते हैं, बाकी की दुनिया आम जनता का तमगा लेकर कभी उदास हो लेती है, कभी आक्रोशित होती है तो कभी, हतभाग्य मार दिए लोगों के इरादे पर शक कर लेती है और हतभाग्य कि……उनके विचलन याद करने लगती है, पर विचलन की सजा के लिए प्रावधान भी है। विचलन गलत होते होंगे पर किसी की हत्या की वजह नहीं बन सकते, विचलित वही होता है जो कुछ काम करता है, आदर्श स्थिति में तो कर्महीन या निठल्ले ही रह सकते हैं।
हुआ यह है कि आरटीआइ एक्टिविस्टों और पत्रकारों की हत्या करते करते ये ही लोग लेखकों की हत्या करने लगे, मांसाहार हत्या की वजह बनने लगी, आज आलम यह है कि गाय के बगल में खुद को खड़ा पाकर आप घबरा जाते हैं, आज की तारीख में इस हत्यारी प्रवृत्ति का विरोध करने वाले ही कठघरे में खड़े कर दिए गए है।
इस पेंच को पहचानने वाले युवा लेखक उन पुराने मठाधीशों को भी नहीं बख्श रहे हैं जो येन केन प्रकारेण प्रासंगिक बने रहने के लिए कुछ भी कर गुजरते हैं, प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह जो मौके के अनुरूप माफिया को भी लेखक बना देते हैं और साहित्य की प्रतिरोध शक्ति को ही पहचानने से इंकार कर देते हैं, उनके निशाने पर हैं। इस प्रकरण में जब उन्होंने बयान दिया कि लेखक सिर्फ अखबारों में प्रचार पाने के लिए पुरस्कार लौटा रहे हैं तो युवा कवि अविनाश मिश्र ने अपनी प्रतिक्रिया इस तुकबंदी के जरिए व्यक्त की-
मंच कोई भी हो चढ़ जाए नामवर सिंह
छोड़ सोच संकोच नहीं शर्मा नामवर सिंह
भाई को पुरस्कार दिलवा,नामवर सिंह
वह लौटा दे यह कह न पाए नामवर सिंह
सत्ता संग बकलोल बने नहीं घबराए नामवर सिंह
फर्क क्या जो उपकृतों की फौज बढ़ा, नामवर सिंह
धोती पहने पान चबा, रंगा सियार नजर आए नामवर सिंह
जीयनपुर में अपना सबकुछ छोड़ आए नामवर सिंह
वे उन्हें भी बख्शने को तैयार नहीं हैं जिनका अतीत संदिग्ध रहा है। जो इस मौके का उपयोग अपनी नयी साख बनाने के लिए कर रहे हैं। मूलत: प्रशासक किंतु वरिष्ठ कवि अशोक वाजपेयी के सम्मान लौटाने पर अविनाश ने कहा, वैसे सम्मान अगर छीना गया हो तब उसे लौटाना नहीं चाहिए। इस अर्थ में देखें तो लौटाना उन अकिंचनों का अपमान है जो कुछ छीन नहीं सकते और पा जाने पर लौटा नहीं सकते। गौरतलब है कि यह सम्मान अशोक वाजपेयी ने वर्ष 1994 में हासिल किया था और 2002 में उन्होंने इसे लौटाने के काबिल नहीं समझा।
इस प्रकार के अन्य प्रसंगों में भी इस प्रकार की तथ्यात्मक बातें बहुत की गईं और की जा रही हैं, लेकिन बहुत होना हरदम फिजूल होना तो नहीं है। सांप्रदायिकता और फासिज्म के प्रतिकार में साहित्य अकादमी सम्मान लौटाने की यह रवायत और समझ-सूझ हालिया वक्त में भारतीय लेखकों को एक हिंदी लेखक उदय प्रकाश ने सौंपी है, और मंजर कुछ इस कदर खौफनाक है कि इन कदमों को स्वागतयोग्य मानना पड़ रहा है,
लेखकों की पुरस्कार वापसी यानि किसी स्टैंड लेने, विरोध करने का दौर ऐसे समय हो रहा है जब हिंदी जगत में लंबे समय से पस्ती छायी हुई थी, अन्यों के साथ खुद लेखक जो लिख रहे हैं वे भी मानने लगे थे कि लिखने का समाज पर कोई असर नहीं होता वरना चहुंओर पतन में कहीं से तो रोशनी की कोई किरण दिखाई देती। लेखकों का मजाक बनाने वालों ने इसी पस्ती को तर्क की तरह प्रस्तुत करना शुरू किया है, इसकी शिनाख्त करते हुए फिल्मों और यात्रावृतांतों के जरिए चर्चा में आए बलिया के युवा लेखक रामजी तिवारी का कहना है इधर लोग-बाग कहते हैं कि लिखने और बोलने से क्या होता है और उधर लिखने और बोलने के कारण ही गोली मार देते हैं। अब जब लोग-बाग़ कह रहे हैं कि पुरस्कार लौटाने से क्या होता है.। –
तो पता नहीं क्यों, मुझे कुछ भय सा लग रहा है…।
इसी हताशा के दौर में एक गौरतलब बात यह हुई है कि हर बात की आलोचना करने वाला एक दायित्वहीन तबका पैदा हुआ है जो खुद को सारे कर्तव्यों से परे मानते हुए सिर्फ गाली देने के अधिकार में यकीन रखता है, पुरस्कार वापसी प्रकरण में भी ऐसे लोग देवताओं की तरह गाल बजा रहे हैं जिन्होंने इन लेखकों को पढ़ा तक नहीं है। उनकी शिनाख्त करते हुए पत्रकार और गायक पंकज श्रीवास्तव ने कहा, जो लेखक पुरस्कार लौटा रहे हैं वे किसी पार्टी नहीं, अपनी अंतरात्मा के निर्देश पर ऐसा कर रहे हैं। जो नहीं लौटा रहे हैं, वे भी गुनाह नहीं कर रहे हैं। देखने की बात यह है कि ऐसे अजब दौर में जब सिर्फ लिखने के अपराध में सरेआम क़त्ल किया जा रहा हो तो ख़ुद को लेखक कहने वाले सड़क पर मुट्ठी ताने खड़े हैं कि नहीं। जो अशक्त हैं, उनका बयान भी चलेगा।
सबसे संदिग्ध हैं वे जो इस मौके का इस्तेमाल लिहाड़़ी लेने के लिए कर रहे हैं। फिर चाहे पुरस्कार वापस करने वालों के इतिहास का छिद्रान्वेषण हो या न करने वालों पर लानत बरसाना। दुश्मन सामने खड़ा है और आप गोली दागने के बजाय बंदूक की फ़ैक्ट्री पर बहस ताने हैं, हद है !
इसी अगर मगर को रेखांकित करते हुए और हिंदी लेखन में स्पष्ट पक्षधरता के अभाव को इंगित करते हुए पत्रकार और लेखिका मनीषा पांडेय का कहना है- बस यही फर्क है।
बस इत्ता सा। हिंदी के तमाम एक्स, वाई, जेड साहित्य अकादमी लौटाने को लेकर नुक्ताचीनी कर रहे हैं, मीनमेख निकाल रहे हैं। शब्दों की जलेबी बना रहे हैं। ऐसा तो वैसा तो कैसा आदि-आदि कर रहे हैं। रुश्दी ने सीधा समर्थन कर दिया। दो लाइन में सीधी, सिंपल बात। आय सपोर्ट। बात खत्म।
जरा झांकिए अपने गिरेबान में भी सरकार, रुश्दी जैसा क्यों नहीं लिख पाते हैं हिंदी वाले।
अब इसकी भी नुक्ताचीनी न करने लग जाइएगा।
हिंदी की सबसे नई पीढ़ी इस प्रतिरोध की कीमत को समझ रही है और उन पुरानों को भी समझाने का प्रयास कर रही है जो इस वक्त भी अपने पुराने हिसाब किताब नहीं भूल पा रहे हैं, कानपुर के युवा वीरु सोनकर का अंदाज देखिए- मैत्रेयी पुष्पा जी भी कमाल हैं, जिस बन्दूक की नली दूसरों की ओर हो वहां ये तुरंत बारूद भर कर दाग देती है और जब नली का मुंह खुद की तरफ हो तो तुरंत एक कभी न टूटने वाली लंबी चुप्पी ?
जय हो माते!
माते, जो लोग पुरस्कार वापस कर रहे है वो भाग नहीं रहे है …। उनके अपने-अपने सही गलत तर्क हो सकते है उनके वापस करने का समय निसंदेह बहस का मुद्दा बन सकता है पर आप उनके प्रतिरोध को जाया नहीं घोषित कर सकते है…
माते ए दम चाहिए लिया गया वापस करने के लिए ….ये वह लोग नहीं समझ सकते है जो खुद सरकारो के कृपापात्र बन कर बैठे हो। देश में और दिल्ली में शासन व्यवस्था नष्ट हो चुकी है। बांटने की हर कोशिशो में चाहे केजरीवाल हो या मोदी हो या लालू, नीतीश, मुलायम हो, सबके सब एक घिनौनी होड़ में शामिल है। अपना नफा नुकसान देख कर लोगो को बरी करना या ख़ारिज करना छोड़िये। क्या आपसे यह आशा की जा सकती है कि आप दिल्ली और केंद्र सरकार की नीतियों के विरोध में हिंदी अकादमी का पद छोड़ देंगी? या अपने पुरस्कार वापस करेंगी ?
बिलकुल नहीं, आप नहीं छोड़ सकती है
आप एक बढ़िया सा तर्क गढ़ कर अपना बचाव कर लेंगी, यह जो आज के हालात हुए है देश के, वह ऐसे ही तर्कों से उत्पन्न हुए है। आप सत्ता सुख के साथ बनी रहें पर जो विरोध दर्ज करा रहे है उनकी धार कुंद मत करिये माते ए जनता सब देख-समझ रही है।
बात इस पर हो कि लेखक सम्मान वापस क्यों कर रहे
कभी-कभी ऐसे अवसर आते हैं जब साहित्यकार को लगता है कि सिर्फ लिख देने भर से पर्याप्त प्रतिकार नहीं हो रहा। आज कई लेखकों को लग रहा कि पुरस्कार लौटाना ज़्यादा प्रभावी प्रतिरोध होगा और सचमुच हो रहा है। दुनिया के इतिहास में ऐसे कई मौके आए जब साहित्यकारों ने लेखन से कहीं आगे जाकर प्रतिरोध किए और अपने समय में सार्थक व प्रभावी हस्तक्षेप किया।
कन्नड़ लेखक और तर्कवादी एमएम कलबुर्गी की हत्या के विरोध में चार सितम्बर को हिंदी के तेज-तर्रार लेखक उदय प्रकाश द्वारा साहित्य अकादमी सम्मान वापस करने से शुरू हुआ सिलसिला अब देशव्यापी हो चुका है, कश्मीर से, पंजाब से, गोआ से, गुजरात से, केरल और दिल्ली समेत उत्तर व मध्य भारत के कई राज्यों से विभिन्न भाषाओं के लेखक सम्मान वापस कर देश में फैलाई जा रही साम्प्रदायिक घृणा का विरोध कर रहे हैं। इन पक्तियों के लिखे जाने तक 30 से ज्यादा साहित्यकार अकादमी सम्मान लौटा चुके हैं, जिनमें कृष्णा सोबती और काशीनाथ सिंह जैसे बुजुर्ग और बहुसम्मानित हिंदी साहित्यकार भी शामिल हैं। यह संख्या बढ़ती जा रही है। कुछ लेखक साहित्य अकादमी की कार्यकारिणी और सदस्यता भी छोड़ चुके हैं। पंजाबी लेखिका दलवीर कौर टिवाणा ने पद्मश्री और कन्नड़ की रंगकर्मी माया कृष्णा राव ने संगीत अकादमी का सम्मान लौटाकर कलम के सिपाहियों के प्रतिरोध के दायरे को और व्यापक बनाया है। सलमान रुश्दी ने ट्वीट किया कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए यह खतरनाक समय है और मैं इन लेखकों के इस कदम का स्वागत करता हूं।
यह प्रतिरोध सम्मान प्राप्त लेखकों ही का नहीं है। बहुत से ऐसे लेखक भी जो साहित्य अकादमी से सम्मानित नहीं हैं। इस विरोध में अपनी आवाज मिला रहे हैं। कई साहित्यकार ऐसे भी हैं जो अकादमी सम्मान लौटाए जाने के पक्षधर नहीं हैं, लेकिन वे उन मुद्दों के समर्थन में हैं जो इन लेखकों ने उठाए हैं। गिरिराज किशोर और मृदुला गर्ग अलग-अलग बयानों में कहते हैं कि सम्मान वापस करके लेखक खुद ही सरकार के हाथों में खेल रहे हैं। वे सरकार को मौका दे रहे हैं कि वह अकादमी में अपने लोगों को ला बिठाए। इस बयान के बावजूद ये दोनों साहित्यकार विरोध पर उतारू लेखकों की भावनाओं के साथ हैं।
साहित्यकारों का विरोध व्यापक और राष्ट्रव्यापी होते ही केंद्र सरकार, भाजपा और हिंदूवादी संगठनों में तीखी प्रतिक्रिया हुई है। केंद्र सरकार के संस्कृति मंत्री महेश शर्मा कहते हैं कि अगर लेखक लिख नहीं पा रहे हैं तो लिखना बंद कर दें। तब हम देखेंगे। वे यह भी कहते हैं कि अकादमी सम्मान लेखकों द्वारा लेखकों को दिया गया सम्मान है।् इसका सरकार से क्या वास्ता। केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा कि नरेंद्र मोदी से चिढ़ने वाले लेखक ही सम्मान लौटा रहे हैं। वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली तो साफ-साफ कहते हैं कि यह कांग्रेस और वाम समर्थक साहित्यकारों के खेमे का राजनीतिक विरोध है। राजनीतिक हाशिए पर चले गए कांग्रेस और वाम दल अपने समर्थक साहित्यकारों की मार्फत कृत्रिम संकट पैदा करके कृत्रिम राजनीति कर रहे हैं।
भाजपा और हिंदूवादी संगठनों के लोगों की प्रतिक्रिया समझ में आती है, लेकिन कुछ लेखकों, पाठकों और सोशल साइटों पर सक्रिय लोगों ने भी सवाल उठाए हैं। नामवर सिंह ने सीधे-सीधे आरोप ही लगा दिया कि कुछ लेखक प्रचार पाने के लिए सम्मान वापस कर रहे हैं। हालांकि, उनके आज्ञाकारी लघु भ्राता काशीनाथ सिंह ने सम्मान वापस करना सही समझा। असहमति या विरोध में कुछ इस तरह के सवाल उठ रहे हैं- 1 : साहित्य अकादमी लेखकों की अपनी संस्था है, सम्मान वापसी साहित्य अकादमी और सम्मान चयन समिति का अपमान है। 2- लेखक जो मुद्दे उठा रहे हैं वे कानून-व्यवस्था से जुड़े हैं, साहित्य अकादमी का कानून-व्यवस्था से क्या लेना-देना। 3- लेखकों का हथियार कलम है, उन्हें विरोध करना है तो लिखकर करें, क्या उनकी लेखनी चुक गई है। 4- लेखकों, संस्कृतियों पर हमले और समुदायों के खिलाफ हिंसा पहले भी हुए हैं, 1984 के सिख नरसंहार, 1992 की देशव्यापी हिंसा, 2002 के गुजरात दंगों के खिलाफ तो लेखकों ने सम्मान वापस नहीं किए, आज क्यों?
अब इन पर विचार करें, जितना यह सच है कि साहित्य अकादमी लेखकों की संस्था है, उतना ही यह भी कि इस संस्था ने अपनी प्रतिष्ठा खोई है। अकादमी के सम्मानों पर विवाद भी उठते हैं। कई श्रेष्ठ कृतियों को अकादमी सम्मान नहीं मिला। विष्णु खरे जैसे प्रखर साहित्यकार अकादमी की घनघोर निंदा करते रहे हैं, लेकिन आज जो लेखक अकादमी का सम्मान वापस कर रहे हैं वे वर्तमान हालात में अकादमी की भूमिका पर सवाल तो उठा रहे हैं, लेकिन उनके विरोध का मुद्दा साहित्य अकादमी न होकर हमारे समय के ज्वलंत प्रश्न हैं। जो सम्मान वापसी को साहित्य अकादमी का विरोध मान रहे हैं वे उन बड़े और सामयिक मुद्दों की अनदेखी कर रहे हैं जो सम्मान वापसी पर उठाए जा रहे हैं। उदय प्रकाश ने अपने निर्णय के पीछे यह कारण गिनाए थे। पिछले कुछ समय से हमारे देश में लेखकों, कलाकारों, चिंतकों और बौद्धिकों के प्रति जिस तरह का हिंसक, अपमानजनक, अवमाननापूर्ण व्यवहार लगातार हो रहा है। जिसकी ताजा कड़ी प्रख्यात लेखक और विचारक तथा साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित कन्नड़ साहित्यकार श्री कलबुर्गी की मतांध हिदुत्ववादी अपराधियों द्वारा की गई कायराना और दहशतनाक हत्या है। उसने मेरे जैसे अकेले लेखक को भीतर से हिला दिया है। अब यह चुप रहने का और मुंह सिलकर सुरक्षित कहीं छुप जाने का पल नहीं है। वर्ना ये खतरे बढ़ते जाएंगे। इसके अंत में वे पुरस्कार का चयन करने वाले निर्णायक मण्डल के प्रति आभार व्यक्त करना भी नहीं भूले। इससे साफ हो जाना चाहिए कि सम्मान लौटाने का फैसला साहित्य अकादमी का विरोध मात्र नहीं है।
अकादमी सम्मान लौटाने की घोषणा करते हुए गुजराती कवि अनिल जोशी और कोंकणी लेखक एन. शिवदास के बयान और भी महत्वपूर्ण हैं। अनिल जोशी ने कहा कि देश का वातावरण घृणामय हो गया है और लेखकों की आज़ादी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता छिन गई है। कुछ धार्मिक पहचानें साम्प्रदायिक ताकतों के कारण खतरे में पड़ गई हैं। मैं लेखक हूं और सम्मान वापस कर अपना विरोध प्रकट कर रहा हूं। कोंकणी लेखक एन. शिवदास का कहना है कि हम सनातन संस्था जैसे संगठनों, जो धर्म के नाम पर लोगों को बरगला रहे हैं और तर्कवादियों की हत्या के लिए जिम्मेदार हैं, का लगातार विरोध करते रहे हैं और अब हम खुद पर खतरा महसूस कर रहे हैं। हमें धमकियां मिल रही हैं। जहां तक लिख कर विरोध करने का सवाल है, लेखक लिख कर तो अपनी आवाज़ उठाते ही रहे हैं। प्रगतिशील, जनवादी और समाज के प्रति उत्तरदायी हमारा साहित्य अपने समय के ज्वलंत प्रश्नों और प्रतिरोध के स्वरों से भरा है, लेकिन वह तात्कालिक बड़े मुद्दों पर सीधा हस्तक्षेप नहीं कर पाता। जैसे, जो पढ़ते हैं वे जानते हैं कि आज के हालात के विरोध में काफी कुछ लिखा जा रहा है, लेकिन जब असहमति पर भी हत्याएं हो रहीं हों तो कविता-कहानी लिख कर कितना प्रभावी प्रतिकार हो सकता है। मगर जब लेखकों ने साहित्य अकादमी का सम्मान लौटाना शुरू किया तो देश भर में उनकी आवज गूंजी कि नहीं। सत्ता-शिखरों तक उसकी धमक हुई या नहीं। कभी-कभी ऐसे अवसर आते हैं जब साहित्यकार को लगता है कि सिर्फ लिख देने भर से पर्याप्त प्रतिकार नहीं हो रहा। आज कई लेखकों को लग रहा है कि पुरस्कार लौटाना ज़्यादा प्रभावी प्रतिरोध होगा और सचमुच हो रहा है। दुनिया के इतिहास में ऐसे कई मौके आए जब साहित्यकारों ने लेखन से कहीं आगे जाकर प्रतिरोध किए और अपने समय में सार्थक व प्रभावी हस्तक्षेप किया। भारत में भी कई उदाहरण हैं। रवींद्र नाथ टैगोर ने 1919 में जलियांवाला बाग नरसंहार के विरोध में नाइटहुड की पदवी लौटाई थी। 1975-76 में इमरजेंसी के खिलाफ कई लेखक सक्रिय रहे। फणीश्वर नाथ रेणु ने पद्मश्री लौटा दी थी और आज अकादमी सम्मान वापस करने वाली नयनतारा सहगल ने आपातकाल के विरोध कारण प्रताड़ना झेली थी। खुशवंत सिंह ने 1984 में स्वर्ण मंदिर में सैनिक कार्रवाई के विरोध में पद्मश्री लौटाई थी। ऐसे और भी उदाहरण मिले जाएंगे। इसलिए यह सवाल कि लेखकों ने पहले सम्मान क्यों नहीं लौटाए, सही नहीं है। यह भी कोई तर्क नहीं है कि पहले नहीं किया तो इस समय भी न किया जाए। अगर आज तीस से ज्यादा अकादमी सम्मान प्राप्त लेखक पुरस्कार वापसी को अपने विरोध का कारगर हथियार मान रहे हैं तो इसकी खिल्ली कैसे उड़ाई जा सकती है। किसी ने भी किसी दवाब या लालच में पुरस्कार नहीं लौटाए हैं। और यह प्रतिरोध सिर्फ सम्मान प्राप्त लेखकों का ही नहीं है, जिन्हें अकादमी सम्मान नहीं मिला है, मगर उन्हें लगता है कि आज विरोध करना ज़रूरी हो गया है। वे अपने तरीके से विरोध कर रहे हैं। पंजाबी लेखिका दलवीर कौर टिवाणा ने पद्मश्री लौटाकर, कन्नड़ रंगकर्मी माया कृष्णा राव ने संगीत अकादमी सम्मान लौटा कर अपना विरोध जताया है। कई लेखक ऐसे हैं जो आज के हालात के विरोध में हैं, लेकिन अकादमी सम्मान लौटाना उचित तरीका वे नहीं मानते। सिर्फ सम्मान लौटाना ही विरोध प्रकट करने का सही तरीका है। ऐसा कोई नहीं कह रहा। एन. शिवदास समेत बीसेक कोंकणी लेखकों ने पहले अकादमी सम्मान लौटाने की घोषणा की थी, लेकिन बाद में सामूहिक बैठक में तय हुआ कि सम्मान लौटाने की बजाय राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव के दौरान प्रदर्शन करके विरोध व्यक्त किया जाए। यह रचनाकारों के विवेक पर है। मूल प्रश्न यह है कि आप देश में अभिव्यक्ति की आजादी, लोकतांत्रिक, प्रगतिशील, परस्पर सम्मान और बहु-धार्मिक, बहु-सांस्कृतिक समाज में सह-अस्तित्व की परम्परा के खिलाफ की जा रही साजिशों के खिलाफ हैं या नही। देश को और ज्यादा टूटता-बंटता देख कर आप प्रभावी विरोध करना उचित समझते हैं या नहीं। साहित्यकारों का ऐसा संगठित विरोध पहले नहीं देखा गया। यह आरोप कि ये लेखक कांग्रेसी या वाम दलों से सम्बद्ध हैं, तथ्यों से आंखें मूदना है। इनमें कुछ ही लेखक हैं जिन्हें कांग्रेसी या वामपंथी कहा जा सकता है। ज्यादातर लेखक लोकतांत्रिक परम्परा में विश्वास करने वाले और प्रगतिकामी हैं। वे अभिव्यक्ति की आज़ादी और सहिष्णु समाज चाहते हैं। इन लेखकों की चिंता का वृहद दायरा अफवाहों और कुतर्कों से फैलाई जा रही नफरत का है। विज्ञान सम्मत और तार्किक बातों से अपने समय में सार्थक हस्तक्षेप करने वाले नरेंद्र दाभोलकर और गोविंद पानसरे को धमकियां क्यों दी जाती रहीं और अंतत: उनकी हत्या क्यों की गईं। ये कौन लोग हैं और किन संगठनों से सम्बद्ध हैं? उन्हें कहां से ताकत और संरक्षण मिल रहा है? और सबसे बड़ा सवाल यह कि इन हत्याओं के विरोध में सत्ता प्रतिष्ठान क्यों चुप हैं? हमलावरों और घृणा फैलाने वाले संगठनों पर कारवाई क्यों नहीं हो रही? अकेले दादरी इलाके में, जहां के गांव बिसाहड़ा में मंदिर से अफवाह फैलाकर अकलाख के घर भीड़ से हमला कराया गया और उसकी हत्या की गई। वहां गोरक्षा के नाम पर आधा दर्जन संगठन कैसे और क्यों सक्रिय हो गए। दादरी मामले पर करीब पंद्रह दिन बाद प्रधानमंत्री का यह कहना कि जो हुआ वह दुर्भाग्यपूर्ण था, लेकिन सरकार का इससे क्या सम्बंध, बहुत बचकाना और चालाकी भरा बयान है। उन्होंने मुंह भी तब खोला जब राष्ट्रपति ने देश में फैल रही असहिष्णुता पर चिंता जताई। नवरात्र लगते ही गुजरात के गोधरा में अगर ऐसे बैनर दिखाई दिए कि अपनी बेटियों को लव जिहाद से सुरक्षित रखने के लिए गरबा में मुस्लिम लड़कों को न आने दें। तो भी क्या प्रधान मंत्री को सक्रिय हस्तक्षेप करने लायक स्थितियां नहीं दिखाई देतीं। लेखकों के विरोध के यही असल मुद्दे हैं। इन मुद्दों से ध्यान हटाकर सम्मान वापसी या सम्मान की राजनीति या लेखकों की खेमेबाजी को बहस में न लाया जाए।
सत्ता-शिखरों तक उसकी धमक हुई या नहीं। कभी-कभी ऐसे अवसर आते हैं जब साहित्यकार को लगता है कि सिर्फ लिख देने भर से पर्याप्त प्रतिकार नहीं हो रहा। आज कई लेखकों को लग रहा है कि पुरस्कार लौटाना ज़्यादा प्रभावी प्रतिरोध होगा और सचमुच हो रहा है।