वोटों की फसल पर यूरिया
दस्तक : अनिल यादव
इन दिनों नेता सबसे बड़ा किसान है। अपने भाषणों के जरिए वोटों की फसल पर यूरिया छिड़क रहा है। इसी तरह जुताई, बुवाई, निराई, गुड़ाई सब करता है, पानी भी पटाता है। असली किसान को ही फसल में बदल देता है। इसे आप किसी भी किसान रैली में घटित होता देख सकते हैं। पहली नजर में लगेगा कि यह किसानों की बेहतरी के लिए नई मुहिम की तैयारी है। गौर से देखिए ये किसानों को नहीं किसी खास जाति या जातियों के समूह को संबोधित किया जा रहा है। मुद्दा किसान की आजीविका यानि खेती नहीं उन जातियों अमूर्त की आन, बान, शान है जो आज तक किसी के काम नहीं आ पाई है।
अगर लोकतंत्र में वोट से ही कानून और नीतियां बनाने बिगाड़ने का मौका मिलना है तो अपना वोट बैंक बनाने में कोई बुराई नहीं है। समस्या वहां शुरू होती है जब नेता मदारी की भूमिका में आकर नजरबंद करना शुरू कर देता है। खेती की बदहाली के बजाय जाति को मुद्दा बनाता है। थोड़ी देर के लिए सदियों से जाति की दलदल में धंसे आदमी की छाती चौड़ी हो जाती है लेकिन एक भयानक दुष्चक्र का पहिया आगे बढ़ता है जिसके कारण गांव और खेती तबाह हो रहे हैं, किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं। आजादी के बाद से किसान को अन्नदाता कहा जरूर जाता रहा लेकिन उसे कभी सचमुच एक उत्पादक, निवेशक, परिश्रम से देश का पेट भरने वाले के रूप में नहीं एक जाति और एक वोट के रूप में देखा गया। नजरबंद अब स्थायी मोतियाबिंद में बदल चुका है। किसान कठिन कलेजे वाला जीव हुआ करता था। अंग्रेजी राज में जब जमींदार के जुल्म थे, बेगारी और किसिम किसिम की लगान और वसूली थी, किसी का आसरा नहीं था तब उसने आत्महत्या नहीं की। वह बाढ़, सुखाड़ और आपदाएं सब अपने हौसले, कुदरत और ईश्वर पर आस्था के भरोसे झेल जाया करता था लेकिन अब वोट के मदारियों के कुचक्र के कारण कुछ ऐसा घटित हो चुका है कि उसका धरती पर से ही भरोसा डोल चुका है।
सबसे साधारण चीजों में ही असाधारण सच छिपे होते हैं। एक तथ्य को ध्यान में रखिए कि भारत भाषणों में सुपर पॉवर बन रहा है लेकिन जीडीपी में खेती का योगदान 13 प्रतिशत है और 64 फीसदी खेती लायक जमीन सिंचाई के लिए अब भी मानसून पर निर्भर है। नई आर्थिक नीति लागू होने के बाद से छोटे और मंझोले किसान (जिनकी तादाद सबसे अधिक है) एक मोटी बात कह रहे हैं कि खेती अब घाटे का काम है, लागत भी नहीं निकलती, किसानी करने से बेहतर किसी दफ्तर में चपरासी होना है। साल दर साल खाद, बीज, कीटनाशक, पानी के दाम बढ़ते जाते हैं लेकिन अनाज की कीमत उस अनुपात में नहीं बढ़ती जिसे समर्थन मूल्य के रूप में तय करने का काम सरकारें करती हैं। अगर ये सरकारें वाकई किसानों के मसीहाओं की हैं तो आज तक उपज का लाभकारी दाम क्यों नहीं तय हो पाया जबकि उद्योगों को अपने उत्पाद को मनमानी कीमतों पर बेचने की पूरी छूट है।
पुराने फरेबों को भूल भी जाएं तो यह कैसे भूलें कि 2004 में कांग्रेस की सरकार ने एमएस स्वामीनाथन आयोग बनाया था जिसने फसल की लागत का डेढ़ गुना समर्थन मूल्य देने की सिफारिश की थी। बीच के दस सालों में कांग्रेस की सरकार रही और अब मोदी की सरकार को एक साल होने को आया लेकिन किसी को इसे लागू करने की हिम्मत नहीं पड़ रही। इस बीच के दस साल भाजपा किसानों के हित में वैसी ही मदारियों वाली आक्रामक भाषा बोलती रही है जैसी अब विपक्षी पार्टी होने के बाद कांग्रेस बोल रही है। साफ है कि इन पार्टियों की पसंद मोटा चंदा देने वाले और शेयर सूचकांकों के हवाई चढ़ाव के जरिए विकास का छद्म रचने वाले उद्योगपति हैं किसान नहीं। दूसरी मोटी बात यह है कि किसानों की नई पीढ़ी की दिलचस्पी खेती में नहीं है। होनी भी नहीं चाहिए क्योंकि वह भूखों मरने और दोयम दर्जे का जीवन जीने का चुनाव करना होगा। इस बीच बिजली बिल, कर्जे की माफी की सतही राजनीति करते हुए किसान को हद दर्जे का निर्भर और लालची बनाया जा चुका है। भूमिअधिग्रहण के प्रपंचों के पीछे कुल खेल अधिक से अधिक मुआवजा पाना है जिसे लेकर किसान खेती से अपना पिंड हमेशा के लिए छुड़ा लेना चाहता है। यदि ऐसा हुआ तो पूरे महाद्वीप में खाने के लाले पड़ जाएंगे और भारत एक कृषि प्रधान देश था, बीती कहानी हो जाएगी।