‘व्यवस्था’ को ताउम्र ललकारते रहे अदम गोंडवी
(जन्मदिन : 22 अक्टूबर पर विशेष)
लखनऊ । हिंदी साहित्य में अनेक कवियों एवं शायरों ने समाज के दबे कुचले एवं कमजोर वर्ग के लोगों की भावनाओं को स्वर दिया है मगर देश की आजादी के बाद समाज में व्याप्त बुराइयों नेताओं व अधिकारियों के चरित्र तथा सामंती जुल्म पर अदम गोंडवी ने जिस प्रकार बेबाकी से अपनी लेखनी चलाई ऐसे रचनाकार बहुत कम मिलते हैं। हिंदी गजल को आशिक और माशूक की रूमानियत से मुक्त करके जनोन्मुखी और समाज संवेदित बनाने की दिशा में दुष्यंत कुमार की कोशिशों को आगे बढ़ाने का काम अदम ने ही किया। कम पढ़े-लिखे होने के बावजूद अदम गोंडवी ने अपनी रचनाओं में जिन उपमेय और उपमानों का प्रयोग किया है वह उनकी सोच और जानकारी पर दांतों तले उंगली दबाने पर मजबूर करता है। अदम अब इस दुनिया में नहीं रहे। गोंडा के तत्कालीन जिलाधिकारी राम बहादुर ने वर्ष 2०11 में उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किए जाने की संस्तुति भारत सरकार को भेजे जाने के लिए एक पत्र उत्तर प्रदेश शासन को लिखा था वह पत्र आज तक शासन के गोपन विभाग में धूल फांक रहा है।
गोंडा जिले के आटा गांव में 22 अक्टूबर 1948 को एक साधारण किसान परिवार में जन्मे रामनाथ सिंह (अदम गोंडवी) का बचपन बहुत मुफलिसी में बीता। पारिवारिक पृष्ठभूमि कमजोर होने के कारण केवल प्राइमरी तक शिक्षा पाने के बाद उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी और खेती-किसानी में लग गए। बचपन से ही उनका झुकाव कविता पाठ की ओर हो गया और वे मुशायरों व कवि सम्मेलनों में जाने लगे।
8० का दशक आते-आते अदम गोंडवी घुटनों तक धोती मटमैला कुर्ता और गले में गमछा डाले एक ठेठ देहाती आदमी के रूप में हिन्दुस्तान के मंचों पर पहचाने जाने लगे। अदम कक्षा पांच तक ही पढ़े थे मगर स्वाध्याय की बदौलत वे अपने ज्ञान कोष को सागर की गहराइयों तक ले जाने में सफल रहे।
अदम ताउम्र अपनी रचनाओं में न केवल गांव गरीब खेत किसान जमीन जमींदारी सामंतवाद शोषण अत्याचार और अनाचार को आवाज देते रहे बल्कि शहरी छल छद्म और राजनीतिक अहंकार पर भी करारी चोट करते रहे। कबीर दास की भांति उन्होंने किसी को बख्शा नहीं है। अदम लिखते हैं :
काजू भुनी प्लेट में व्हिस्की गिलास में
उतरा है राम राज विधायक निवास में
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इलेक्शन पर मुसलमानों से हम रूमाल बदलेंगे
अभी बदला है चेहरा देखिए अब चाल बदलेंगे
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वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है
उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई है
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इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है।
अदम ने अपनी रचनाओं में देरीदा (विखंडनवाद का सिद्धांत देने वाले विद्वान जाक देरीदा) हीरामन (फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी ‘तीसरी कसम’ का नायक) मंटो (विद्रोही चेतना के लिए विख्यात उर्दू कथाकार सआदत हसन मंटो) मंसूर (अहंब्रस्मि कहने वाले एक वली जिनको अपराधी मानते हुए उनकी गर्दन उड़ा दी गई थी) आदि की चर्चा करके यह साबित कर दिया कि उनका ज्ञान कितना व्यापक था।
इलाहाबाद व लखनऊ से प्रकाशित एक हिंदी समाचारपत्र में उनकी बहुचर्चित रचना ‘चमारों की गली’ छपने के बाद हिंदी जगत को एक बार लगा कि यह कवि सुभद्रा कुमारी चौहान की कथात्मक काव्यशैली का नया अवतार साबित होगा। पर अचानक वह मुड़ा और गजलों की राह पर आ गया। और ऐसे आया जिनको आना कहते हैं। यह रचना छपते ही सत्ता का ‘आसुरी सर्प’ फुफकार उठा था लेकिन शब्द की शक्ति से सत्ता की शक्ति टकराने का साहस न कर सकी। इस रचना में अदम जी ने खुलेआम एक ग्रामीण दलित युवती की चीत्कार सत्ता स्वामियों के पास इन शब्दों में पहुंचाई थी :
धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को
मैं निमंत्रण दे रहा हूं आएं मेरे गांव में
तट पे नदियों की घनी अमराइयों की छांव में।
गांव जिसमें आज पांचाली उघारी जा रही
या अहिंसा की जहां पर नथ उतारी जा रही
हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती हैं जिस्म कितनी कृष्णाएं रोटी के लिए।
यह कहने में तनिक झिझक नहीं कि अदम सच्चे अर्थों में जनकवि थे। आज भी जिनके मन में समाज की पीड़ा है और जो इस पीड़ा से निपटना और निस्तार पाना चाहते हैं वे राष्ट्रकवि का दर्जा पाने वाले मैथिली शरण गुप्त और माखनलाल चतुर्वेदी के बजाय दुष्यंत कुमार और अदम गोंडवी के पास अपनी व्यथा की जुबान पाने आते हैं।
बेहद कटुसत्य और ताउम्र आम जनता की आवाज बुलंद करने के बावजूद अदम गोंडवी शायद अपेक्षित सम्मान इसलिए हासिल नहीं कर पाए क्योंकि उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से शासन प्रशासन जनप्रतिनिधि संत महंत सभी को कटघरे में खड़ा किया। यह विडंबना ही है कि डा. राम मनोहर लोहिया को अपना आदर्श बताने वाली उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी की सरकार दो वर्ष बाद भी अदम गोंडवी को सम्मानित किए जाने का प्रस्ताव भारत सरकार को नहीं भेज सकी है।